उत्तर भारत में निषाद और नदी

डॉ. रमाशंकर सिंह जी की लिखी शोध पुस्तक

अंकेश मद्धेसिया

सद्य: प्रकाशित डॉ. रमाशंकर सिंह जी की लिखी शोध पुस्तक ‘नदी पुत्र : उत्तर भारत में निषाद और नदी’ उत्तर भारत में गंगा और यमुना के किनारे बसने वाले निषाद समुदाय के जीवन, इतिहास और संस्कृति की एक गहन पड़ताल करती है। इसे पढ़ते हुए उनका 10 वर्ष से भी अधिक समय तक किया गया फील्ड वर्क, निषाद समुदाय का उल्लेख करने वाले प्राचीन ग्रंथों की जानकारी और इस दिशा में अबतक हुए शोध के बारे में उनके ज्ञान की झलक मिलती है। निषाद समुदाय पर केन्द्रित इस शोध की आवश्यकता के संदर्भ में उनकी पुस्तक से इस अंश को देखा जा सकता है।

“भारत के सामाजिक इतिहास लेखन में अभी बहुत कुछ लिखा जाना शेष है। उन समुदायों का इतिहास अभी तक सक्रिय और रचनात्मक रूप से नहीं लिखा गया है जो हाशिये पर हैं। ऐसा लगता है कि मानो वे सहस्राब्दियों से जिये जा रहे हैं और इतिहास निर्माण में उनकी कोई भूमिका ही न हो। यदि इसे रेखांकित करने का प्रयास भी होता है तो वह बहिष्करण और अपवंचना के आख्यानों से मुक्त नहीं हो पाता है। अधिकांश मामलों में वह इसी में फँसकर रह जाता है जबकि युग की परिचालक शक्तियों के निर्माण में इनकी भूमिका का रेखांकन किया जाना आवश्यक है। इस किताब में यह कोशिश की गयी है। इन समुदायों से सम्बन्धित विषय का शोध संस्कृत, पाली-प्राकृत और अन्य भारतीय भाषाओँ के साहित्य की सहायता से किया जाना है जिसमें परिधीय (हाशिये के) समुदायों के उसके जीवन के दैनन्दिन अनुभवों के साथ लिखा जाए। उन बिन्दुओं पर शोध किये जाने की आवश्यकता है जिन्होंने परिधीय समुदायों को को सामाजिक, आर्थिक रूप से सुभेद्य (वल्नरेबल) बनाया, इसे बढ़ावा दिया। ऐसे समुदाय अपनी कहानी कहना चाहते हैं। अभी तक वे अपने आत्म इतिहास की तलाश में थे, अब वे अपने लिए एक राजनीतिक दायरे का भी निर्माण करना चाह रहे हैं।”

इस किताब को पढ़ने से पहले तक मैं इस प्रश्न पर सोचता था कि जातियों पर शोध करने की या जाति आधारित इतिहास लेखन की क्या आवश्यकता है? और यदि सभी जातियों का यूँ पृथक-पृथक इतिहास लिखा जाता रहा और एक को दूसरे का लिखा इतिहास स्वीकार्य न हो तो अकादमिक जगत में कैसी अराजकता व्यापत नहीं हो जाएगी? जाति केन्द्रित शोध करने वाले शोधकर्ताओं को राष्ट्रवादी या अबतक किये गये इतिहास लेखन में क्या कमियाँ नज़र आती हैं जिस कारण उन्हें जाति केन्द्रित शोध या इतिहास लेखन की आवश्यकता पडी? इस तरह की आशंकाएँ मेरे मन में रही हैं।

इसके अलावा साहित्यकार श्री श्रीप्रकाश मिश्र जी से मैंने यह बात सुनी थी कि अमेरिका तीसरी दुनिया के देशों की सामाजिक विसंगतियों को गहराने के प्रयास में लगा रहता है जिस कारण हम अपनी छोटी-छोटी अस्मिताओं पर आधारित विमर्शों में लगे हुए हैं। साम्राज्यवाद के विरूद्ध राष्ट्र जैसी कोई व्यापक सत्ता का अस्तित्व न हो इसके लिए एकेडमिक दायरे में अस्मिता विमर्शों को प्रोत्साहन दिया गया। दलित विमर्श और स्त्री-विमर्श की शुरूआत के पीछे भी यही प्रेरणा काम कर रही थी।

वर्तमान समय में व्यापत कॉरपोरेटी साम्राज्यवाद के बरक्स मुझे श्रीप्रकाश जी की बात अधिक स्वीकार्य मालूम पड़ी थी और मैंने इस विचार को अपना लिया था। यह किताब मेरी सभी आशंकाओं का जवाब तो नहीं देती है लेकिन निषादों और नदी से उनके संबंध पर शोध की आवश्यकता के संदर्भ में यह प्रबल तर्क प्रस्तुत करती है कि अब तक का सामाजिक इतिहास लेखन मुख्यतः भूमि पर उत्पादन करने वाले समूहों और उनके उत्पादन से उपजे अधिशेष के आधार पर किया गया इतिहास लेखन है। जो समुदाय भूमि पर या राज्य की जमीन पर नहीं रहते थे। वहाँ से बेदखल कर दिये गये थे और जिन्होंने प्राकृतिक परिवेश में शरण पायी उनका इतिहास तो लिखा ही नहीं गया। जैसे कि वह इतिहास में हो ही नहीं या बिना किसी हलचल के अपना जीवन बीता रहे हों। इस दृष्टि से देखें तो अभी बहुत सारा इतिहास लेखन करने की, इतिहास बनाने की आवश्यकता है। इतिहास बनाने की जो बात मैं कह रहा हूँ उसे निम्न उद्धरण के माध्यम से समझिए।

“विभिन्न समुदाय सत्ता के लिए संघर्ष को अपने पक्ष में करने के लिए, उसे अपने अनुकूल बनाने के लिए इतिहास और स्मृति का एक ही समय में सहारा लेते हैं। निषाद समुदाय के लिए महाभारत में वर्णित एकलव्य की कथा और बीसवीं शताब्दी में हुई फूलन देवी एक ही सामाजिक धरातल पर उपस्थित होकर उनका सबलीकरण करने लगते हैं। यह सबलीकरण एक सुनिश्चित राजनीतिक चेतना को जन्म देता है। जैसा हम जानते हैं निषाद समुदाय के पास लिखित इतिहास, मौखिक परम्परा और सामूहिक स्मृतियों का सांस्कृतिक भण्डार मौजूद है।

यह उनके भविष्य के इमारत की कच्ची सामग्री है। अपनी हर बात में वे बताते हैं कि उनका एक राज्य हुआ करता था जिसका वर्णन महाकाव्यों में है। निषादराज गुह इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने राजा राम की सहायता की थी। गौरव के इस आख्यान के साथ वे पीड़ा के आख्यान भी सुनाते हैं कि उनके प्रतिभाशाली नौजवान एकलव्य का अँगूठा काटा गया और फूलन देवी को उच्च जातीय लोगों के अत्याचार का सामना करना पड़ा। उनके इन आख्यानों में इतिहास और मिथक आपस में घुल-मिल जाता है और इससे एक बहुत ही सक्रिय ‘राजनीतिक समाज’ का निर्माण होता है। राजनीतिक समाज एक ऐसा समाज है जिसमें कमजोर तबके स्पर्धा और मोलभाव के द्वारा सत्ता से धीरे-धीरे अधिकार प्राप्त करने की कोशिश करते हैं।”

किसी नदी को स्वच्छ बनाये रखने के लिए शास्त्रों में जो प्रावधान बताये गये हैं निषाद समुदाय अबतक उसका पालन करता आ रहा है लेकिन ध्यान देने की बात यह भी है कि इसके लिए वह निर्देश किसी शास्त्र से नहीं ग्रहण करता बल्कि उसने इसे अपनी जीवन शैली में ही इस प्रकार ढ़ाल लिया है कि उसे अलग से ध्यान देने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। उनका जीवन नदी से गहराई से जुड़ा हुआ और नदी पर आश्रित है। इसके विपरीत समाज की मुख्यधारा पर ऐसा कोई नैतिक दबाव काम नहीं करता है। एक शताब्दी से ज्यादा समय हो गया है जब उनका नदी से सम्बन्ध टूट गया है। नदियों के प्रदूषण और उनकी दुर्दशा का यह भी एक प्रमुख कारण है।

इस किताब से यह बात भी जानने को मिली की किस तरह औपनिवेशिक शासन के दौरान गंगा नदी एवं अन्य नदियों को ‘वाटर मशीन’ में तब्दील कर दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी इस स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ और नदियों का दोहन-शोषण बदस्तूर जारी रहा। एक संसाधन के तौर पर इनका महत्व बढ़ने पर इन प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर समुदायों को यहाँ से भी बेदखल करके एक तरह के माफिया कैपिटलिज्म को ही बढ़ावा मिला।

इस किताब में क्रिमिनल्स ट्राइब एक्ट के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है। किस तरह औपनिवेशिक शासन के दौरान लागू किया गया यह कानून उन लोगों को जो औपनिवेशिक शासन के दायरे में सीधे-सीधे नहीं आते थे या उनकी प्रजा के तौर पर चिन्हित नहीं किये जा सकते थे जिससे उनपर कर लगाया जा सके और वह कानून के दायरे में आ सकें तो ऐसे समुदायों को ‘जन्मना अपराधी’ ही घोषित कर दिया गया। आज़ादी के बाद भी उनकी स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हो पाया बल्कि प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे की लड़ाई के कारण उनका जीवन और अस्तित्व ही संकट में पड़ता जा रहा है।

इस शोध में फील्डवर्क के दौरान प्राप्त हुई निषाद पुरूषों और स्त्रियों की बातों को, लोकगीतों को इतनी सुंदरता से पिरोया गया है जैसे कि अनेक मार्मिक स्थलों पर यह पुस्तक कविता या उपन्यास मालूम पड़ने लगती है।

इस किताब में वर्णव्यवस्था, स्पृश्यता-अस्पृश्यता और वर्णव्यवस्था से बाहर रखें गये समुदायों, जातियों के प्रति समाज का दृष्टिकोण समय-समय पर किस प्रकार परिवर्तित होता रहा है इसकी भी जानकारी मिलती है। प्राचीन ग्रंथों और शास्त्रों के हवाले से इस बात को रेखांकित किया गया है।

यह किताब छात्रों, शोधार्थियों और सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक परिवर्तन के काम में लगे सभी व्यक्तियों के लिए उपयोगी है।

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