कौन है नायक नई पीढ़ी का ?
जीवन के किसी भी अन्य क्षेत्र के महत्वपूर्ण व प्रेरणादायी लोग, नई पीढ़ी के आदर्श नहीं हैं।
कौन है नायक।बहुत सारे प्रश्न, पिछले कई दशकों में, अनेकों स्तरों पर, समाज व देश में उठाये गये हैं, परन्तु अनेकों लोगों द्वारा विचार करने के बावजूद भी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न, समाज व देश में उस प्रकार से नहीं उठाया गया, जिसकी आवश्यकता थी। यह प्रश्न, विशेषतः नई पीढ़ी के लिए अत्यन्त ज्वलंत व महत्वपूर्ण है। प्रश्न यह है कि समाज व देश के लिए नायक कौन होना चाहिए? क्या वह राजनेता होगा, समाज सुधारक होगा, उद्योगपति होगा, अध्यापक होगा, आध्यात्मिक गुरू होगा, वैज्ञानिक होगा, डॉक्टर होगा, इंजीनियर होगा, प्रबन्धक होगा, किसान होगा, श्रमिक होगा, फिल्मी सितारे होंगे, गायक या गायिका होंगे, पत्रकार होंगे, लेखक या कवि या साहित्यकार होंगे यानि समाज के किसी भी वर्ग से हो सकता है।
इसी से जुड़ा प्रश्न उठता है कि नायक के गुण क्या होने चाहिए? इसी प्रश्न से समाज व देश का वर्तमान व भविष्य जुड़ा है। देश व समाज, राष्ट्रहित को दृष्टिगत रखकर ही नेतृत्व क्षमता का आकलन करता है। नेतृत्व के गुण व उसकी क्षमता का आकलन, व्यक्तिगत स्तर पर और समष्टिगत स्तर पर अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु उनका समग्र प्रभाव तो समाज व राष्ट्र के लिए अल्पकाल व दीर्घकाल में होता ही है।
नायक की नेतृत्व क्षमता को ध्यान में रखने पर, समाज के सर्वांगीण विकास को दृष्टिगत रखना ही चाहिए। परन्तु आज यदि हम ध्यान से विचार करें तो विशेषतः स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद से ही एक ऐसी जीवन शैली व जीवन दृष्टि का आगमन व विकास दिखायी देता है, जिससे मूलभूत महत्वपूर्ण विषयों को ध्यान में नहीं रखा जाता।
नकली-जीवन पद्धति, बनावटी व नकली जीवनशैली एवं उपभोगप्रधान संस्कृति को अपनाने का परिणाम यह हुआ कि स्वास्थ्य, शिक्षा, चरित्र को महत्व न देकर, विलासितापूर्ण जीवन के प्रति मोह ने पूरे समाज को दिग्भ्रमित करने का प्रयास किया।
वस्तुतः नेतृत्व-क्षमता का प्रश्न इस लिए भी महत्वपूर्ण है कि समाज का भविष्य इससे जुड़ा रहता है। आजकल, जिस तरह से अल्पकालिक व शार्टकट तरीकों के जरिए, भौतिक सफलताओं की प्राप्ति के लिए, सिद्धान्तहीन जीवन-पद्धति को लोग अपना रहे हैं, वह इस प्रश्न से भी संपृक्त रूप से जुड़ा है। अपने फायदे के लिए नैतिकता विहीन कार्य करना भी इसी के परिणाम के रूप में देखा जा सकता है।
अब तो नई पीढ़ी के आदर्श, मुख्यतः फिल्मों के हीरो व हिरोइन हैं। वैसे क्रिकेट के नामी-गिरामी स्टार खिलाड़ियों को भी अपना आदर्श मानने वाले कम नहीं हैं। जीवन के किसी भी अन्य क्षेत्र के महत्वपूर्ण व प्रेरणादायी लोग, नई पीढ़ी के आदर्श नहीं हैं। नेता जी सुभाष चन्द्र बोस, डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर, महात्मा गाँधी, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द, ए0पी0जे0 अब्दुल कलाम, होमी जहाँगीर भाभा, डा0 राधाकृष्णन, वीर सावरकर, मेट्रोमैन ई0 श्रीधरन, अमर शहीद अब्दुल हमीद, महर्षि दयानन्द, सदृश लोग इनके आदर्श नहीं हैं। यह नई पीढ़ी टी0वी0 के विज्ञापनों में आने वाले फिल्मी हीरो व हिरोइन, तथा क्रिकेट के खिलाड़ी में ही अपना रोल मॉडल देखते हैं।
आजकल के युवा फिल्मों के किसी भी चरित्र अभिनेता में अपना आदर्श नहीं देखते। उनके आदर्श वही फिल्मी हीरो व हीरोइनें हैं, जो अश्लील दृश्यों, द्विअर्थी संवादों, हिंसक व्यवहार, निरर्थक उछलकूद वाले नृत्य में महारत रखने वाले, चरित्रहीनता के प्रतीक, ड्रग्स व मदिरा के अभ्यस्त, पारिवारिक जीवन में विश्वास न रखकर मात्र स्वछन्दता को प्रसारित-प्रचारित करते हैं। ऐसे ही अभिनेता व अभिनेत्री, अधिकांश युवाओं के आदर्श बन चुके हैं, जिनके निजी पारिवारिक जीवन को समाज के लिए कतई मार्गदर्शक नहीं माना जाता।
खेलों में क्रिकेट के अलावा किसी भी अन्य खेल, हॉकी, फुटबाल, कुश्ती, तैराकी, वेट लिफ्टिंग, बैडमिन्टन, लानटेनिस, टेबल-टेनिस आदि के नामी खिलाड़ी इनके आदर्श कतई नहीं हैं। यह महत्वपूर्ण बात है कि क्रिकेट ब्रिटिश साम्राज्य की निशानी है। क्रिकेट ज्यादातर उन्हीं देशों में खेला जाता है, जिनमें इंग्लैंड की सत्ता बहुत समय तक रही थी। आखिर पुराने मालिकों की जीवन शैली का अनुकरण तो उनमें महान पथ पर जाने की ललक जगाता होगा। किसी भी भारतीय खेल जैसे कुश्ती आदि में उनमें दूर-दूर तक कोई रुचि नहीं।
फिल्मों के हीरो, हिरोइनों व क्रिकेट खिलाड़ियों को रोल मॉडल बनाने में दृश्य-श्रव्य माध्यमों, जैसे टी0वी0 आदि की भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। दुर्भाग्य की बात यह है कि ज्यादातर दैनिक उपभोग की वस्तुओं जैसे टूथ पेस्ट, साबुन आदि ही नहीं वरन् विभिन्न प्रकार के श्रृंगार-प्रसाधनों जैसे पाउडर, फेसक्रीम, टॉनिक और बालों को काला करने से कपड़ों, जूतों आदि के विज्ञापनों में ज्यादातर फिल्मी हीरो-हिरोइनों व क्रिकेट खिलाड़ियों को विज्ञापनों का आधार बनाया जाता है। इन विज्ञापनों के जरिए जहाँ एक तरफ, उपभोग में उपभोक्ता की पसंद को बहुत हद तक प्रभावित किया जाता है, दूसरी ओर हीरो-हिरोइन व क्रिकेट खिलाड़ियों को बहुत बड़ी राशि विज्ञापनों हेतु दी जाती है। घूम फिर कर विज्ञापनों का आर्थिक बोझ भी उपभोक्ता पर ही पड़ता है। इस प्रकार से न केवल नकली/बनावटी जीवन-पद्धति के लिए प्रोत्साहन मिलता है, बल्कि आर्थिक दृष्टि से उपभोक्ताओं पर प्रदर्शन-प्रभाव भी पड़ता है।
इन विज्ञापनों के लिए ज्यादातर दृश्य श्रव्य माध्यमों का बहुतायत में इस्तेमाल होता है। टी0वी0 की जनसामान्य तक उपलब्धता ने जीवन के प्रति दृष्टि तो बदली है ही, राष्ट्र-समाज के प्रति महत्वपूर्ण विषयों से उपेक्षा का भाव भी पनपता है। यह तो मानना ही पड़ता है कि अब मीडिया से बचकर रहना बहुत मुश्किल है। इसीलिए राष्ट्र के नायक कौन होने चाहिए, उनमें क्या गुण होने चाहिए, यह खासकर नई पीढ़ी को कम पता चलता है।
राष्ट्र के नायक किसे मानना चाहिए, इस प्रश्न को कम महत्व का बनाने में, आजकल पुस्तकों को पढ़ने के प्रति अरुचि का भी एक घटक है। समाचार पत्रों व पत्रिकाओं के पढ़ने की प्रवृत्ति भी कम होती जा रही है। पहले घरों में अच्छी पुस्तकें, धार्मिक, साहित्यिक, सामाजिक विषयों की पढ़ी जाती थीं। अब खासकर नई पीढ़ी को तो परीक्षा पास करने के लिए “टेक्स्ट बुक” के अलावा, अन्य प्रकार की पुस्तकों को पढ़ते नहीं देखा जाता है।
पहले गर्मी की छुट्टियों में बच्चे अच्छी पुस्तकें पढ़ते थे। प्रेमचन्द्र, शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, महात्मा गाँधी, डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर, वीर सावरकर, मैथिली शरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर जैसे विद्वानों की पुस्तकें पढ़ते देखे जाते थे, अब तो मोबाइल, लैपटाप व टी0वी0 से चिपके रहते हैं। एक तरफ तो वे अपनी आँखों पर बहुत खराब प्रभाव झेलते हैं, दूसरी ओर जीवन के लिए उद्देश्यपूर्ण लक्ष्य उनसे ओझल होते जाते हैं।
कुल मिलाजुलाकर, भारतीय समाज की स्थिति अब ऐसी हो रही है कि विशेषतः युवा वर्ग देश-समाज-राष्ट्र की दृष्टि को ठीक से ग्रहण नहीं कर पा रहा है और भौतिकता की मृगमरीचिका में पड़ा है। येन केन प्रकारेण, जल्दी से जल्दी धनी बनने के लिए शार्टकट ढूंढ रहे हैं। एक ऐसी जीवन-प्रणाली को अपनाने में लगे हैं, जो भारतीय परंपराओं व संस्कारों से उन्हें दूर ले जा रही है। एक दूसरे की प्रगति में सहयोगी बनने की तो बात संभव ही नहीं है, विरोध की प्रकृति “कट-थ्रोट कम्पटीशन” अधिक दिखायी पड़ती है।
जहाँ एक ओर समाज, क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषायी विवादों तथा दलगत राजनीति के दलदल में फंसता रहा है और दूसरी ओर “ग्लोबल विलेज” की भी बात की जाती है। यह “ग्लोबल विलेज” की अवधारणा खासकर इन्टरनेट के विश्वव्यापी प्रसार ने अधिक पुष्ट की है। वैसे यातायात के साधनों खासकर, हवाई यातायात के खूब उपयोग में आने के बाद, “ग्लोबल विलेज” की अवधारणा मजबूत हुई थी। परन्तु यह तथाकथित “ग्लोबल विलेज” हमारी “विश्वबन्धुत्व” व “वसुधैव कुटुम्बकम्” की विचारधारा से एकदम अलग है। यह अन्तर, आज का भारतीय समाज, और खासकर युवा वर्ग नहीं समझ पा रहा है। अपना नायक चुनने में संभ्रम, संभवतः इसी कारण ज्यादा है।
उपरोक्त तमाम कारणों से ही भारत का युवा वर्ग अपने स्वास्थ्य के प्रति भी अधिक जागरुक नहीं है। “ग्लोबल विलेज” का सदस्य बनने के चक्कर में, अक्सर भारत राष्ट्र की संकल्पना, उसकी परंपराओं व संस्कारों से परिचित नहीं हो पा रहे हैं और अल्पकालिक लक्ष्य की मृगमरीचिका में फंसे हैं।
राष्ट्रों का निर्माण एक दिन में या अल्पकाल में नहीं होता है। राष्ट्र-निर्माण के लिए, व्यक्ति-निर्माण अत्यावश्यक है तथा व्यक्ति निर्माण के लिए नायक या रोल मॉडल का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। अब युवा पीढ़ी का नायक कैसा हो, यह प्रश्न बहुत महत्व का है। मीडिया, टी0वी0, इलेक्ट्रानिक मीडिया, फिल्मों और अखबारों आदि की तुलना में माता-पिता की भूमिका इस विषय में ज्यादा महत्व की है। आज आवश्यकता इस बात की है कि माता-पिता व शिक्षक, युवा पीढ़ी को नायक या रोल मॉडल के चुनाव में सक्रिय रूप से मार्गदर्शन करें। जिससे व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र का निर्माण वांछित दिशा में हो सकेगा।
(लेखक ओम प्रकाश मिश्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व प्राध्यापक एवं पूर्व रेल अधिकारी रहे हैं।)
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