कृषि कानूनों की वापसी से PM मोदी की छवि को कितना बड़ा धक्का लगा है?

रिफ़ॉर्म को बेचना पड़ता है, जो एक मुश्किल काम है और इसमें समय लगता है. "लोगों को समझाना पड़ता है क्योंकि ये आसान नहीं है. मोदी लोगों को समझाने में नाकाम रहे."

गुरु पर्व की सुबह जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों की वापसी का ऐलान करते हुये किसानों को घर वापस जाने के लिये कहा तो देश ही नहीं, विदेशों में भी सबके कान खड़े हो गये. कृषि कानूनों को लेकर तो जो चर्चा मशविरा हो रही है, वह एक बात है, लेकिन इससे भी बड़ी बात यह हुई कि पीएम मोदी के यू टर्न ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि को धूमिल कर दिया.

मीडिया स्वराज डेस्क

भारत में कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसानों के प्रदर्शन को राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी काफ़ी सुर्ख़ियां मिली थीं. कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका में तो बाक़ायदा इन क़ानूनों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन होते रहे हैं. इन क़ानूनों के वापस लिए जाने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा के बाद यह भी साफ़ था कि इसे अंतरराष्ट्रीय सुर्ख़ियां मिलेंगी.

शुक्रवार को जैसे ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुबह 9 बजे राष्ट्र को संबोधित करते हुए इन क़ानूनों को आगामी संसद सत्र मे वापस लेने की घोषणा की वैसे ही अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों ने इस ख़बर को प्रमुखता से अपनी वेबसाइट, अख़बार और टीवी पर जगह देनी शुरू कर दी.

अमेरिका के मीडिया समूह सीएनएन ने इसको लेकर ख़बर अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित की और इसका शीर्षक है ‘एक साल से अधिक प्रदर्शनों के बाद भारत के प्रधानमंत्री मोदी विवादित कृषि क़ानूनों को वापस लेंगे.’

सीएनएन लिखता है कि प्रमुख राज्यों के चुनावों से पहले भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को कहा कि वो तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेंगे.

“भारत में खेती-किसानी राजनीति का केंद्रीय मुद्दा है और जारी प्रदर्शन बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती थे. अगले साल भारत के सात राज्यों में चुनाव होने हैं, जहाँ मोदी की बीजेपी सत्ता स्थापित करना चाहेगी. उनकी सत्तारुढ़ पार्टी सात में से छह राज्यों में इस समय सत्ता में है और इनमें मुख्य रूप से कृषि प्रधान उत्तर प्रदेश भी है.”

“किसान देश में सबसे बड़ा मतदाता गुट है और भारत की 130 करोड़ की आबादी का 58% कृषि क्षेत्र पर निर्भर है. ग़ुस्साए किसानों के कारण मोदी बड़ी संख्या में वोट गंवा सकते थे.”

अशोका विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर जाइल्स वर्नियर्स सीएनएन से कहते हैं कि पीएम मोदी का यह क़दम बेहद ‘दुर्लभ’ राजनीतिक पल है जो ‘बहुत ही महत्वपूर्ण है.’ वो कहते हैं, “जो समय है, वो इशारा करता है कि वो चुनावी उद्देश्य से है.”

“ये कृषि क़ानून एक साल लंबे प्रदर्शनों के बाद वापस लिए जा रहे हैं और इस दौरान किसानों ने बहुत कठिनाइयां देखी हैं. इनमें सर्दी, गर्मी, प्रदूषण, हिंसा और एक समय राज्य का दबाव भी शामिल था.”

वर्नियर्स कहते हैं कि पीएम मोदी को अपने इस फ़ैसले को ‘एक उपकार के तौर पर बेच पाने में काफ़ी मुश्किलें आएंगी. वो कहते हैं कि पीएम मोदी का यह फ़ैसला उनके समर्थकों को भी नाराज़ कर सकता है. वो कहते हैं, “उन्होंने (समर्थक) अपने नेताओं को आज तक अपनी नीतियों के फ़ैसलों पर पीछे हटते हुए नहीं देखा है.”

और क्या बोला अमेरिकी मीडिया

अमेरिकी अख़बार ‘वॉशिंगटन पोस्ट’ ने कृषि क़ानूनों को वापस लिए जाने पर अपना विश्लेषण लिखा है, जिसका शीर्षक है ‘किसानों के ग़ुस्से के आगे मोदी का सख़्त मिज़ाज नहीं चला.’

अख़बार लिखता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पीछे हटने के लिए नहीं जाने जाते हैं तो इसलिए इसका ख़ास महत्व है. तीन विवादित क़ानूनों के कारण हज़ारों किसान देश की राजधानी की सीमाओं पर पूरे एक साल से डटे हुए थे. पीएम मोदी की सात साल की सत्ता में यह सबसे गंभीर राजनीतिक झटका है.

इसके आगे वॉशिंगटन पोस्ट लिखता है कि पिछले साल लिए गए फ़ैसले का उद्देश्य पीएम मोदी ने बताया था कि इससे दशकों पुराना राज्य द्वारा संचालित थोक बाज़ार समाप्त होगा और इससे लोग निजी तौर पर अपनी फ़सल बेच सकेंगे. यह क़ानून बिना चर्चा या चेतावनी के लागू किया गया और इस पर तुरंत विवाद खड़ा हो गया.

“यहाँ तक कि सुप्रीम कोर्ट ने अस्थायी तौर पर क़ानूनों को निलंबित कर दिया लेकिन प्रदर्शनकारी पीछे नहीं हटे. किसान भयंकर सर्दी, गर्मी और कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान डटे रहे. प्रदर्शनकारी किसानों का कहना है कि प्रदर्शन के दौरान 750 से अधिक किसानों की मौत हुई.”

“लेकिन मोदी बिना किसी राजनीतिक परिणाम के जबरन विवादित फ़ैसले लागू करने के लिए जाने जाते हैं. 2016 में बिना किसी चेतावनी के उन्होंने देश की 86% करंसी को चलन से बाहर कर दिया था. जब महामारी की लहर आई तो बिना किसी नोटिस के कुछ ही घंटों के अंदर लॉकडाउन लगाने की घोषणा कर दी. विभाजन के बाद यह सबसे बड़ा पलायन था.”

एक दूसरे अमेरिकी अख़बार ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने भी प्रमुखता से अपने पन्ने पर इस ख़बर को जगह देते हुए शीर्षक लगाया है ‘मोदी भारत के किसानों के आगे झुके.’

अख़बार लिखता है कि सात सालों से नरेंद्र मोदी का भारत की राजनीति पर वर्चस्व कायम है, जिसमें भारी जनसमर्थन के साथ वो संसद में हैं और प्रधानमंत्री अपनी नाटकीय और कई दफ़ा नुक़सानदेह नीतियों को आगे बढ़ाते हैं लेकिन शुक्रवार को एक दुर्लभ घटना हुई और मोदी वैसे नहीं दिखे जैसे प्रभावशाली दिखते थे.

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“भाषण ने आम भारतीयों को चौंका दिया क्योंकि मोदी की एक सामान्य पहचान ताक़तवर नेता के रूप में है, जिन पर आलोचनाओं का कोई फ़र्क नहीं पड़ता है लेकिन इसने संकेत दिया कि कई समस्याओं के बीच उनकी स्थिति कमज़ोर हुई है. इनमें कोरोना वायरस की दूसरी लहर के दौरान विनाशकारी स्थिति और एक संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था भी शामिल है.”

कुछ सर्वे के अनुसार पीएम मोदी काफ़ी प्रसिद्ध हैं और अव्यवस्थित विपक्ष के कारण ऐसा असंभव है कि वो सत्ता हार पाएंगे.

लेकिन मई में उनकी भारतीय जनता पार्टी को पश्चिम बंगाल के चुनाव में काफ़ी झटका लगा. साथ ही सर्वे बताते हैं कि उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में जहाँ अगले साल चुनाव होने वाले हैं, वहाँ पर उनकी बढ़त कमज़ोर हो रही थी.

‘चौंकाने वाला यू-टर्न’

अमेरिकी अख़बारों के अलावा हॉन्ग कॉन्ग के मशहूर अंग्रेज़ी अख़बार ‘साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट’ ने भी इस ख़बर को अपने पन्ने पर जगह दी है.

अख़बार ने इस ख़बर को लेकर शीर्षक लिखा है ‘महीनों लंबे विरोध प्रदर्शन के बाद भारतीय प्रधानमंत्री मोदी विवादित कृषि कानूनों को ख़त्म करेंगे जो आश्चर्यजनक है.’

इस ख़बर में आगे लिखा है कि एक साल से जारी विरोध प्रदर्शनों के बाद तीन कृषि सुधार क़ानूनों को वापस लिया जाएगा, जिसकी घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की है और कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यह ‘चौंकाने वाला यू-टर्न उनके राजनीतिक करियर की एक महत्वपूर्ण हार है.’

राजनीतिक विश्लेषक आरती जेराथ अख़बार से कहती हैं कि यह फ़ैसला ‘अभूतपूर्व है क्योंकि मोदी जब कोई फ़ैसला ले लेते हैं तो फिर वो उसे वापस नहीं लेते.’ लेकिन दूसरे विश्लेषकों की तरह जेराथ का मानना है कि यह फ़ैसला रणनीतिक है और यह इस डर से लिया गया है क्योंकि बीजेपी को अगले साल उत्तर प्रदेश और पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनावों में झटका लग सकता है.

“दोनों राज्यों के किसान इन क़ानूनों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे और ख़ासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का कहना था कि वो फ़रवरी में होने वाले चुनाव में बीजेपी को हराएंगे. जेराथ कहती हैं कि मोदी की पार्टी उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में सत्ता बचाने को लेकर बेकरार है.”

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पीएम मोदी के ऐलान के बाद अर्थशास्त्री गुरचरण दास ने एक इंटरव्यू में कहा, “इस फ़ैसले से मैं बहुत हैरान हूं, दुखी हूं. मायूस हूं. मुझे दुख हुआ क्योंकि ये पंजाब के किसानों की जीत नहीं, हार है. देश की भी हार है.”

उन्होंने अपनी निराशा जताते हुए कहा, “मेरे ख़याल में सियासत की जीत हो गयी है और अर्थव्यवस्था की हार हुई है. यूपी में चुनाव आ रहा है तो सरकार के लोग डर गए कि किसान नहीं मान रहे हैं तो उन्होंने यह फ़ैसला ले लिया.”

विदेश में मौजूद वे लोग, जो भारत में आर्थिक सुधार की मांग कर रहे थे, वो भी मानते हैं कि प्रधानमंत्री का निर्णय किसानों की जीत है, लेकिन वो ये भी कहते हैं कि इस क़दम ने कृषि क्षेत्र के सुधारों पर एक बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है.

हॉलैंड में वैगनिंगन विश्वविद्यालय और अनुसंधान केंद्र में कृषि साइंटिस्ट प्रोफ़ेसर एलेग्जेंडर हेज़ेल ने कहा, “हम भारत में भूमि और श्रम में सुधार देखना चाहते थे. कृषि क्षेत्र में और सुधार देखना चाहते थे, आर्थिक सुधार की उम्मीद थी लेकिन यह फ़ैसला मोदी सरकार पर भरोसे को नुकसान पहुंचा सकता है.”

‘इंडिया अनबाउंड’ नाम की चर्चित किताब के लेखक गुरचरण दास के मुताबिक़ अब कृषि क्षेत्र में सुधार का मुद्दा और भी पीछे चला गया है. वो कहते हैं, “यह प्रधानमंत्री मोदी की बहुत बड़ी नाकामी है. उनकी सुधारवाद छवि को धक्का लगा है. कई लोगों को अब वे एक कमज़ोर प्रधानमंत्री लगेंगे.”

पीएम मोदी संदेश देने में नाकाम रहे?

गुरचरण दास के मुताबिक अब इस देश में कृषि क्षेत्र में रिफ़ॉर्म लाना मुश्किल हो गया है. उनके मुताबिक, “प्रधानमंत्री किसानों तक सही पैग़ाम देने में नाकाम रहे हैं. नरेंद्र मोदी दुनिया के सबसे बड़े कम्युनिकेटर होने के बावजूद किसानों तक अपनी बात पहुंचाने में सफल नहीं रहे.” उन्होंने कहा कि रिफ़ॉर्म को बेचना पड़ता है, जो एक मुश्किल काम है और इसमें समय लगता है. “लोगों को समझाना पड़ता है क्योंकि ये आसान नहीं है. मोदी लोगों को समझाने में नाकाम रहे.” प्रधानमंत्री ने ख़ुद शुक्रवार की सुबह के अपने भाषण में स्वीकार किया को वो किसानों को ये क़ानून समझाने में नाकाम रहे. हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि किसान भी समझने में नाकाम रहे.” गुरचरण दास ने ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर के हवाले से बताया कि ‘वह हमेशा कहा करती थीं कि वह 20 प्रतिशत समय लेती हैं सुधार के लिए क़दम उठाने में और 80 प्रतिशत उस सुधार को बेचने में. तो हम ने नहीं किया यह.’

(यह लेख बीबीसी के दो लेखों को मिलाकर तैयार किया गया है)

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