किसान आंदोलन और यूपी फतह की तैयारी

"वोटकटवा" बिगाड़ेंगे बड़े दलों का खेल

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गृहनगर गोरखपुर है और बनारस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है. यानी सब मिलाकर यदि पूर्वांचल हाथ से गया तो फिर लखनऊ की कुर्सी संभालना मुश्किल हो जाएगा. 2014, 2017 और 2019 में हुए चुनाव में जीत हासिल करने के बाद से भाजपा इतनी उत्साहित है कि उसे पूरा भरोसा है कि 2022 में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में उसे 300+ सीटें मिलेंगी. लेकिन यह इतना आसान नहीं है. राह में अनेक कांटे बिखरे पड़े हैं.

सुरेश प्रताप

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन का व्यापक असर है, लेकिन पूर्वांचल में इसका असर फीका है. लखीमपुर खीरी कांड के बाद स्थितियां कुछ बदली हैं. यही कारण है कि भाजपा पूर्वांचल को खोना नहीं चाहती है.

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गृहनगर गोरखपुर है और बनारस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है. यानी सब मिलाकर यदि पूर्वांचल हाथ से गया तो फिर लखनऊ की कुर्सी संभालना मुश्किल हो जाएगा.

2014, 2017 और 2019 में हुए चुनाव में जीत हासिल करने के बाद से भाजपा इतनी उत्साहित है कि उसे पूरा भरोसा है कि 2022 में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में उसे 300+ सीटें मिलेंगी. लेकिन यह इतना आसान नहीं है. राह में अनेक कांटे बिखरे पड़े हैं.

देश में यूपी का विधानसभा चुनाव आमूल परिवर्तन करेगा, इसका आभास भाजपा को अच्छी तरह से है. इसीलिए भाजपा के रणनीतिकार व केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह बार-बार यह कहना नहीं भूलते हैं कि यदि 2024 में पुन: मोदी की सरकार बनानी है तो 2022 में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को जिताना पड़ेगा. भाजपा नेताओं को विश्वास है कि सात साल में उसके द्वारा किए गए “विकास” के काम से जनता काफी खुश है. उसे महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी और उद्योग-धंधों के चौपट होने की कोई चिंता नहीं है.

इसी कारण बनारस में 12-13 नवम्बर को चल रही भाजपा की चुनावी मंथन बैठक में महंगाई और बेरोजगारी का सवाल बहस के केंद्र में ही नहीं है. चर्चा का मुख्य बिंदु यह है कि 2022 में यूपी को कैसे फतह किया जाएगा. गृहमंत्री अमित शाह का मानना है कि “बूथ पर जीत चुनाव में विजय की गारंटी है.” सबसे प्रमुख कड़ी “पन्ना प्रमुखों” को सक्रिय करना है. पन्ना प्रमुख उसे कहते हैं, जो गांव व मुहल्ले स्तर पर मतदाताओं से सीधे संपर्क में रहते हैं.

किसान आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में बदलते चुनाव समीकरण को देखा जाए तो 2017 के विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा को 43-44 फीसदी वोट मिला था, जो 2019 में बढ़कर 52 प्रतिशत हो गया, तब जाट भाजपा के साथ खड़े थे. अब किसान आंदोलन के कारण चुनावी गणित बदल गया है.

एक और आश्चर्य की बात है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने गंगा के सवाल को प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाया था लेकिन अब गंगा में बढ़ते प्रदूषण की कोई चर्चा ही नहीं कर रहा है. यह सवाल विमर्श से बाहर है. बनारस में मणिकर्णिका श्मशान से ललिताघाट तक गंगा की धारा को बालू और मलबे से पाट दिया गया और घाट के समानांतर उसपार साढ़े पांच किलोमीटर लम्बी “रेत की नहर” बनाई गई थी, जो गंगा की जलधारा में विलीन हो गई.

लेकिन यह चुनावी बहस का मुद्दा नहीं है. बाबा विश्वनाथ काॅरिडोर का रखरखाव पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) माॅडल पर होगा. इसकी जिम्मेदारी ब्रिटिश कंपनी ई एंड वाई को दी गई है, जिसका मुख्यालय लंदन में है. बूढ़ा शहर बनारस अब धीरे-धीरे क्योटो बनने की प्रक्रिया में है. काशीवासी टुकुर-टुकुर अपने शहर को बदलते हुए चुपचाप निहारते हुए 2022 के विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुटे हैं.

किसान आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में बदलते चुनाव समीकरण को देखा जाए तो 2017 के विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा को 43-44 फीसदी वोट मिला था, जो 2019 में बढ़कर 52 प्रतिशत हो गया, तब जाट भाजपा के साथ खड़े थे. अब किसान आंदोलन के कारण चुनावी गणित बदल गया है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 142 सीटें हैं, जबकि पूर्वांचल में 124 सीटें हैं. यानी यूपी की 403 विधानसभा सीटों में इन दोनों क्षेत्रों का विशेष महत्व है. अगर यह दोनों क्षेत्र हाथ से फिसला तो शेष बची 137 सीटों के बल पर कोई भी दल यूपी में अपनी सरकार नहीं बना सकता है.

इसे भी पढ़ें:

किसान मज़दूर संगठन यूपी विधान सभा चुनाव में बीजेपी के ख़िलाफ़ मुख्य भूमिका निभाएँगे

2017 के विधानसभा चुनाव में ओमप्रकाश राजभर (सुभासपा) का भाजपा से गठबंधन था जो अब सपा के साथ हैं. उधर, कांग्रेस की प्रियंका गांधी भी यूपी की राजनीति में सक्रिय हो गई हैं, जिसके कारण भाजपा कि चिंता बढ़ गई है. प्रियंका ने बनारस में रैली भी की थी. उनकी रैली के बाद पीएम मोदी की भी रैली हुई थी. सपा के प्रमुख अखिलेश यादव ने यह संकेत देकर कि यूपी में भाजपा की राजनीति के खिलाफ व्यापक मोर्चा बनेगा से सियासी हल्के में चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया है.

बसपा सुप्रीमो मायावती और आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल ने यह कहकर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है कि वे सभी 403 सीटों पर अपना प्रत्याशी खड़ा करेंगे. बसपा खुद ही अंदर से टूट गई है. यूपी की राजनीति में उसकी अब वह स्थिति नहीं है जो कभी थी. भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावण किसके साथ जाएंगे ? फिलहाल इस संबंध में कुछ कहना जल्दीबाजी होगी. भाजपा भी चुप नहीं बैठी है, वह निषाद पार्टी से गठबंधन करके ओमप्रकाश राजभर की कमी को पूर्वांचल की राजनीति में पूरा करना चाहती है. अपना दल से उसका गठबंधन पहले से ही है. हालांकि अपना दल भी टूट गया है और उसका एक गुट कांग्रेस से हाथ मिला लिया है. ऐसी स्थिति में यूपी की राजनीति में जातीय क्षत्रपों की भूमिका बढ़ जाती है. देसज भाषा में इन्हें “वोटकटवा” कहा जाता है लेकिन ये वोटकटवा बड़े दलों का खेल बिगाड़ने का भी दमखम रखते हैं.

(लेखक सुरेश प्रताप वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

इसे भी पढ़ें:

UP Assembly Election 2022 : क्या कांग्रेस का चेहरा होंगी प्रियंका गांधी?

Leave a Reply

Your email address will not be published.

seven + nine =

Related Articles

Back to top button