जब धर्म और राजनीति मिल जाती है, तब चारों ओर विकृति ही फैलाती है
अफगानिस्तान में आत्मघाती हमला
यह कैसी मानसिकता है कि आप मुसलमान नहीं हैं तो इस्लामी आतंकवादी ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे. इस्लाम में भी अगर आप सुन्नी नहीं हैं तो किसी भी समय निशाने पर लिये जा सकते हैं. अगर गैर-मुसलमानों के प्रति नफ़रत कट्टरता का उदाहरण है तो गैर-सुन्नियों के प्रति नफ़रत संकीर्णता का. कट्टरता, उस पर संकीर्णता; जैसे कोढ़ के ऊपर खाज!
प्रोफ़ेसर अजय तिवारी
अफ़ग़ानिस्तान के कुंदूज़ में शुक्रवार को नमाज़ अदा करने के समय आत्मघाती हमले में सौ लोग मारे गये और 150 लोग घायल हो गए. मरने वाले “नमाज़” पढ़ रहे थे यानी मुसलमान थे. वहाँ तालिबान का शासन है और वह भी कट्टर इस्लामी शासन है!
कट्टरपंथी धार्मिक राज्य में उसी धर्म के लोग सुरक्षित नहीं हैं!! हमले की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट (आईएएस) ने ली है. वह भी तालिबान जैसा ही कट्टर संगठन है. जींस मस्जिद में आत्मघाती हमला हुआ, वह शिआओं की है और तालिबान या आईएस सुन्नियों के संगठन हैं.
यह कैसी मानसिकता है कि आप मुसलमान नहीं हैं तो इस्लामी आतंकवादी ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे. इस्लाम में भी अगर आप सुन्नी नहीं हैं तो किसी भी समय निशाने पर लिये जा सकते हैं. अगर गैर-मुसलमानों के प्रति नफ़रत कट्टरता का उदाहरण है तो गैर-सुन्नियों के प्रति नफ़रत संकीर्णता का. कट्टरता, उस पर संकीर्णता; जैसे कोढ़ के ऊपर खाज!
धर्म जब राजनीति से जुड़ता है तो दोनों विकृत होते हैं. विकृति यहीं नहीं रुकती. वह बाहर ‘दूसरों’ से तो नफ़रत जगाती ही है, आपस में भी नफ़रत ही जगाती है. राजनीति की बात नहीं करूँगा लेकिन धर्म का संबंध तो नैतिकता, सदाचार और आस्था से था. नफ़रत कब धर्म से जुड़ गयी, यह शोध का विषय है.
जब भी धर्म में नफ़रत का प्रवेश हुआ, वह हमेशा जीवन के सौमनस्य और समाज के सौहार्द को बिगाड़ने में ही काम आया. नफ़रत की ज़रूरत ही तब पड़ी होगी जब कुछ विशेष स्वार्थों के लिए धर्म का इस्तेमाल किया जाना ज़रूरी हुआ होगा.
ईसाइयत के आविर्भाव से पहले सिकंदर का हमला हुआ था, वह ईसाई नहीं था. उसमें यूनानियों की उदारता नहीं थी, मख़्दूनियाई क्रूरता थी. चंगेज़ खाँ हमलावर था लेकिन मुसलमान नहीं, बौद्ध था. उसकी क्रूरता का श्रेय इस्लाम को नहीं, तुर्कों की कट्टरता को है.
इन दोनों हमलों से न तब कोई धार्मिक उद्देश्य जोड़ा गया, न बाद में जोड़ा गया लेकिन ईसाई धर्म के उदय के बाद जितना धार्मिक उत्पीड़न हुआ, जितने ‘क्रूसेड’ हुए, जितना क़त्लेआम और विनाश कार्य हुआ, उतना न कभी पहले हुआ था, न बाद में हुआ. इसी प्रकार इस्लाम के जन्म के बाद विजय के अभियानों में धर्म-प्रचार की भावना जुड़ जाने से जिस क्रूरता का सूत्रपात हुआ, वह ईसाइयों की क्रूरता से किसी तरह घटकर नहीं थी.
ऐसे ही समझा जा सकता है कि जब कारीगरों से सेवा का काम लिया जाने लगा और उन स्वीकार्यों को हेय या तुच्छ बनाया गया तब अंत्यजों (अछूतों) का मंदिर प्रवेश वर्जित हो गया. जिन कारीगरों ने ऋग्वेद के मंत्र रचे थे, उन्हीं के वंशज वेदमंत्र पढ़ने या सुन लेने भर से दंडित होने लगे.
अगर हमले, धर्म प्रचार और राज्य विस्तार के समय क्रूरता धर्म के बाह्य उपयोग का द्योतक है— ‘दूसरों’ से नफ़रत तो दलित समूहों के प्रति भेदभाव और उत्पीड़न ‘आपस’ में नफ़रत का सबूत है.
यही कारण है कि अंतर्धार्मिक हमलों पर बात करते हुए मुझे हमेशा अंत:धार्मिक उत्पीड़न याद आता है. दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं तथा दोनों सत्ता और वर्चस्व के लिए धर्म के इस्तेमाल के उदाहरण हैं.
सत्ता और वर्चस्व की रणनीति का ही दूसरा नाम राजनीति है. इसलिए आज अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धर्म का इस्तेमाल करने वाली शक्तियाँ मध्ययुगीन बर्बरों की उत्तराधिकारी प्रतीत होती हैं.
निस्संदेह, मध्ययुग की उन्नतिशील संस्कृतियों की नहीं, धर्म का सहारा लेकर दुनिया को जीतने के इरादे से निकले आततायियों के वंशज, जो दुनिया को दहलाने वाले सिद्ध हुए, वही आज हर जगह धर्म के नाम पर दुनिया में दहशत फैला रहे हैं. अफ़ग़ानिस्तान की घटनाएँ हमें बार-बार इतिहास, सभ्यता, धर्म, संस्कृति और राजनीति के सवालों पर सोचने के लिए मजबूर करती हैं.