भाषा संस्कृति की संवाहक होती है
भाषा का भविष्य अब बाजार ही तय कर रहा है
भाषा संस्कृति की संवाहक होती है। हिन्दी में भारतीय संस्कृति की अभिव्यक्ति है। लेकिन अंग्रेजी की ठसक है। महात्मा गांधी इस बात पर दुखी थे। भाषा के प्रश्न पर म0 गांधी ने लिखा था, “पृथ्वी पर हिन्दुस्तान ही एक ऐसा देश है जहां मां बाप अपने बच्चों को अपनी भातृभाषा के बजाय अंग्रेजी पढ़ाना लिखाना पसंद करेंगे।” (सम्पूर्ण गांधी वाड्.मय 15/249).
देश की मातृभाषा राजभाषा हिन्दी है। लेकिन अंग्रेजी के सामने कमजोर मानी जाती है। अंग्रेजी को विश्वभाषा बताया जाता है। लेकिन जापान, रूस और चीन आदि अनेक देशों में अंग्रेजी की कोई हैसियत नहीं है।
संविधान सभा में बहस
भारत की संविधान सभा (14 सितम्बर 1949) ने हिन्दी को राजभाषा बनाया, 15 वर्ष तक अंग्रेजी में राजकाज चलाने का ‘परन्तुक’ जोड़ा। अध्यक्ष डाॅ0 राजेन्द्र प्रसाद ने समापन भाषण में कहा “हमने संविधान में एक भाषा रखी है। ……. अंग्रेजी के स्थान पर एक भारतीय भाषा (हिन्दी) को अपनाया है। हमारी परम्पराएं एक हैं, संस्कृति एक है।” इसके एक दिन पूर्व पं0 नेहरू ने कहा, “हमने अंग्रेजी इस कारण स्वीकार की, कि वह विजेता की भाषा थी, …… अंग्रेजी कितनी ही अच्छी हो किन्तु इसे हम सहन नहीं कर सकते।”
इसके भी एक दिन पूर्व (12.9.1949) एन0जी0 आयंगर ने सभा में हिन्दी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव रखते हुए, 15 बरस तक अंग्रेजी को जारी रखने का कारण बताया, “हम अंग्रेजी को एकदम नहीं छोड़ सकते। …….. यद्यपि सरकारी प्रयोजनों के लिए हमने हिन्दी को अभिज्ञात किया फिर भी हमें यह मानना चाहिए कि आज वह सम्मुनत भाषा नहीं है।”
पं0 नेहरू अंग्रेजी सहन करने को तैयार नहीं थे, राजभाषा अनुच्छेद के प्रस्तावक हिन्दी को कमतर बता रहे थे। संविधान सभा में 3 दिन तक बहस हुई। संविधान के अनु0 343 (1) में हिन्दी राजभाषा बनी, किन्तु अनु0 343 (2) में अंग्रेजी जारी रखने का प्राविधान हुआ। हिन्दी के लिए आयोग/समिति बनाने की व्यवस्था हुई। हिन्दी के विकास की जिम्मेदारी (अनु0 351) केन्द्र पर डाली गयी।
बेशक अंग्रेजी विजेता की भाषा थी, लेकिन 1947 के बाद हिन्दी भी विजेता की भाषा थी। अंग्रेज जीते, अंग्रेजी लाये, भारतवासी स्वाधीनता संग्राम जीते, हिन्दी क्यों नहीं लाये? स्वाधीनता संग्राम की भाषा मातृभाषा हिन्दी थी।
लेकिन कांग्रेस अपने जन्मकाल से ही अंग्रेजी को वरीयता देती रही, गांधी जी ने कहा, “अंग्रेजी ने हिन्दुस्तानी राजनीतिज्ञों के मन में घर कर लिया। मैं इसे अपने देश और मनुष्यत्व के प्रति अपराध मानता हूं।” (सम्पूर्ण गांधी वाड्.मय 29/312) गांधी जी ने बी0बी0सी0 (15 अगस्त 1947) पर कहा “दुनिया वालो को बता दो, गांधी अंग्रेजी नहीं जानता।”
भारतीय संस्कृति, सृजन और सम्वाद की भाषा हिन्दी है। बावजूद इसके अंग्रेजी का मोह बढ़ा” अंग्रेजी स्कूल बढ़े, अंग्रेजी प्रभुवर्ग की भाषा बनी। भूमण्डलीकरण ने नया नवधनाढ्य समाज बनाया। अंग्रेजी महज ज्ञापन की भाषा थी, वही विज्ञापन की भाषा में घुसी। हिन्दी का अंग्रेजीकरण हुआ। टी0वी0 सिनेमा ने नई ‘शंकर भाषा’ को गले लगाया।
हिन्दी सौंदर्य और कला व्यक्त करने का माध्यम थी/है, अंग्रेजीकृत हिन्दी/हिंग्लिश/ मिश्रित बोली ने उदात्त भारतीय सौन्दर्य बोध को भी ‘सेक्सी’ बनाया। अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी शैम्पू और दादखाज की दवा बेचने का माध्यम हो सकती है लेकिन सृजन और सम्वाद की भाषा नहीं हो सकती। बाजार नई भाषा गढ़ रहा है। मातृभाषा संकट में है। स्वभाषा के बिना संस्कृति निष्प्राण होती है, स्वसंस्कृति के अभाव में राष्ट्र अपना अंतस, प्राण, चेतन और ओज तेज खो देते हैं।
अंग्रेजी को अंतरराष्ट्रीय भाषा बताने वाले भारतीय दरअसल आत्महीन ग्रंथि के रोगी हैं। अमेरिकी भाषा विज्ञानी ब्लूम फील्ड ने अंग्रेजी की बाबत (लैंगुएज, पृष्ठ 52) लिखा “यार्कशायर (इंग्लैंड) के व्यक्ति की अंग्रेजी को अमेरिकी नहीं समझ पाते।’
दूसरे भाषाविद् डाॅ0 रामबिलास शर्मा ने ‘भाषा और समाज’ (पृष्ठ 401) में लिखा “अंग्रेजी के भारतीय प्रोफेसरों को हालीवुड की फिल्म दिखाइए, पूछिए, वे कितना समझे। अंग्रेजी बोलने के भिन्न भिन्न ढंग है। इसके विपरीत हिन्दी की सुबोधता को हर किसी ने माना है। हिन्दी अपनी बोलियों के क्षेत्र में तो समझी ही जाती है गुजरात, महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में भी उसे समझने वाले करोड़ों है।
यूरोप में जर्मन और फ्रांसीसी अंग्रेजी से ज्यादा सहायक है। जर्मनी और अस्ट्रिया की भाषा जर्मन है। स्विट्जरलैण्ड के 70 फीसदी लोगों की मातृभाषा भी जर्मन है। चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, युगोस्लाविया और पोलैण्ड के लोग जर्मन समझते है। ……………
हमारी धारणा है कि संसार की आबादी में अंग्र्रेजी समझने वाले 25 करोड़ होंगे तो हिन्दी वाले कम से कम 35 करोड़ (किताब सन् 1960 की है)”। अंग्रेजी जानकार कम है तो भी वह विश्वभाषा है। हिन्दी वाले ज्यादा हैं बावजूद इसके वह वास्तविक राष्ट्रभाषा भी नहीं है।
भाषा संस्कृति की संवाहक होती है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ पूंजी के साथ भाषा लाती है। भाषा के साथ संस्कृति आती है। संवाद की शैली बदलती है। जनसम्पर्क उद्योग बनता है। विश्व के बौद्धिक भाषा विज्ञानी नोमचोम्सकी ने कहा, “करोड़ों डालर से चलने वाले जनसंपर्क उद्योग के जरिए बताया जाता है कि दरअसल जिन चीजों की जरूरत उन्हें नहीं है, वे विश्वास करें कि उनकी जरूरत उन्हें ही है।”
भाषा के विकास की प्रक्रिया सामाजिक विकास से जुड़कर चलती है। सामाजिक विकास की प्रक्रिया में संस्कृति और आर्थिक उत्पादन के कारक प्रभाव डालते हैं। भारत की नई पीढ़ी अपने मूल स्रोत मातृभाषा, संस्कृति और दर्शन से कटी हुई है।
हिन्दी के पास प्राचीन संस्कृति और परम्परा का सुदीर्घ इतिहास है। यहां अनेक भाषाएं/बोलियां उगी। भाषा के विकास के साथ वस्तुओं के रूप को नाम देने की परम्परा चली। रूप और नाम मिलकर ही परिचय बनते हैं। तुलसीदास ने यही बात हिन्दी में गाई “रूप ज्ञान नहि नाम विहीना।” हिन्दी के पास संस्कृत और संस्कृति की अकूत विरासत है।
ऋग्वेद ने भाषा के न्यूनतम घटक को ‘अक्षर’ बताया। अक्षर नष्ट नहीं होता। वाणी/भाषा “सहस्त्रिणी अक्षरा” (ऋ0 1.164.41) है। वाणी में सात सुर हैं लेकिन अक्षर मूल हैं “अक्षरेण मिमते सप्तवाणी,” वे अक्षर से वाणी नापते हैं। हिन्दी ने संस्कृत सहित सभी भारतीय भाषाओं/बोलियों से शब्द लिये, सबको अर्थ दिये।
संविधान निर्माण के बाद 1951 में नियुक्त आफीसियल लेंगुवेज कमीशन ने अंग्रेजी के ठीक जानकारों की संख्या लगभग 0.25 प्रतिशत बतायी। 1 प्रतिशत से भी कम अंग्रेजीदां लोग प्रतिष्ठित बने। वे अंग्रेजी में सोंचते हैं, देश हिन्दी में रोता है। हिन्दी में हंसता है। हिन्दी फिल्में अरबों लूटती हैं, संवाद/गीत हिन्दी में होते है लेकिन नाम परिचय अंग्रेजी में। लोकप्रिय निर्माता/निर्देशक/नायक, नायिकाएं अपने साक्षात्कार अंग्रेजी में देते हैं। इनसे प्रभावित युवा “हाय गाइज … रियली स्पीकिंग,” बोलते हैं। मातृभाषा में ही प्रीति, प्यार राग, द्वेष, काव्य सर्जन चरम पाते है। हिन्दी दिवस आया, उत्सव हुए। भारत का भविष्य हिन्दी है। हिन्दी हमारी अभिव्यक्ति है, हमारे आनंद का चरम संगीत और काव्य भी। हिन्दी पखवाड़े में यह बातें ध्यान में लाना जरूरी है।
बेहतर भविष्य की ओर हिन्दी-हृदयनारायण दीक्षित (14 सितम्बर 2004)
भारत में सरस्वती के तट पर विश्व में पहली दफे ‘शब्द’ प्रकट हुआ। ऋग्वैदिक ऋषि माध्यम बने। ब्रह्म/सर्वसत्ता ने स्वयं को शब्द में अभिव्यक्त किया। ब्रह्म शब्द बना, शब्द ब्रह्म कहलाया। अभिव्यक्ति बोली बनी और भाषा का जन्म हो गया। नवजात शिशु का नाम पड़ा संस्कृत। संस्कृत यानी परिष्कृत, सुव्यवस्थित/बार-बार पुनरीक्षित। अक्षर अ-क्षर हैं। अविनाशी हैं। सो संस्कृत की अक्षर ऊर्जा से दुनिया में ढेर सारी बोलियों/भाषाओं का विकास हुआ। लोकआकांक्षाओं के अनुरूप संस्कृत ने अनेक रूप पाये। भारत में वह वैदिक से लोकसंस्कृत बनी। प्राकृत बनी। पाली बनी। अपभृंश बनी और हिन्दी भी। संस्कृत गोमुख की गंगा है हिन्दी हरिद्वार, प्रयाग, वाराणसी, कानपुर सहित गंगासागर तक की पुण्यसलिला।
भारत स्वाभाविक ही हिन्दी में अभिव्यक्त होता है। भारत के संविधान में हिन्दी राजभाषा है पर 54 वर्ष बाद (हिन्दी दिवस 14-09-2004) भी अंग्रेजी ही राजभाषा है। भारत की संविधानसभा में राष्ट्रभाषा के सवाल पर 12, 13 व 14 सितम्बर (1949) को लगातार तीन दिन तक बहस हुई। लंबी बहस के बाद (14 सितम्बर 1949) अंग्रेजी महरानी और हिन्दी पटरानी बनी। बहस के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री पं0 नेहरू ने कहा, “पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास में भारत ही नहीं सारे दक्षिण पूर्वी एशिया में और केन्द्रीय एशिया के कुछ भागों में भी विद्वानों की भाषा संस्कृत ही थी …………….. अंग्रेजी कितनी ही अच्छी और महत्वपूर्ण क्यों न हो किन्तु इसे हम सहन नहीं कर सकते, हमें अपनी ही भाषा (हिन्दी) को अपनाना चाहिए।” (संविधान सभा, 13 सितम्बर 1949)
लेकिन संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा घोषित करने के बावजूद अंग्रेजी को बनाए रखने का प्रस्ताव किया और इसे हटाने के लिए 15 वर्ष की समय सीमा तय हो गयी। डा0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा “मैं संस्कृत चुनता। वह मातृभाषा है। हम हिन्दी क्यों स्वीकार कर रहे हैं? इस (हिन्दी) भाषा के बोलने वालों की संख्या सर्वाधिक है ….. अंग्रेजी हटाने के लिए 15 वर्ष हैं। वह किस प्रकार हटाई जाय?” (वही)
असल में संविधान की मसौदा समिति राष्ट्रभाषा के सवाल पर एक राय नहीं हो सकी। सभा में 300 से ज्यादा संशोधन प्रस्ताव आये। जी0एस0 आयंगर ने मसौदा रखा। हिन्दी की पैरोकारी की लेकिन कहा “आज वह काफी सम्मुनत भाषा नहीं है। अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्याय नहीं मिल पाते।” सेठ गोबिंददास ने हिन्दी को संस्कृति से जोड़ा “यह एक प्राचीन राष्ट्र है। हजारों वर्ष से यहाँ एक संस्कृति है। इस परम्परा को एक बनाए रखने तथा इस बात का खण्ड़न करने के लिए हमारी दो संस्कृतियाँ हैं, इस देश में एक भाषा और एक लिपि रखना है।”
नजीरूद्दीन अहमद ने अंग्रजी अनिवार्य रखने का आग्रह किया। लेकिन टोंका टोकी के बीच उन्होंने संस्कृत की भी वकालत की “आप संसार की सर्वोत्तम कोटि की भाषा संस्कृत क्यों नहीं स्वीकार करते।” उन्होंने मैक्समूलर, विलियम जोन्स, डब्लू हंटर सहित दर्जनों विद्वानों के संस्कृत समर्थक विचार उद्धृत किये पर अंग्रेजी का समर्थन किया। कृष्णामूर्ति राव ने अंग्रेजी की यथास्थिति बनाए रखने और राष्ट्रभाषा का सवाल भावी संसद पर छोड़ने की वकालत की। हिफजुररहमान ने हिन्दुस्तानी भाषा और देवनागरी-उर्दू लिपि पर जोर दिया।
स्वाधीनता संग्राम की भाषा हिन्दी थी। अक्टूबर, 1917 में गांधी ने राष्ट्रभाषा की परिभाषा की “उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक काम शक्य हो उसे भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों।“……. अंग्रेजी में इनमें से एक भी लक्षण भी नहीं है। हिन्दी में ये सारे लक्षण मौजूद हैं।“ (सम्पूर्ण गांधी वाड्.मय, 14/ 28-29).
लेकिन संविधान सभा में जब आर0वी0 धुलेकर ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहा तो गुरू रेड्डी ने आपत्ति की। धुलेकर ने कहा “आपको आपत्ति है, मैं भारतीय राष्ट्र, हिन्दी राष्ट्र, हिन्दू राष्ट्र, हिन्दुस्तानी राष्ट्र का हूँ। इसलिए हिन्दी राष्ट्रभाषा है और संस्कृत अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। ………….अंग्रेजी के नाम पर 15 वर्ष का पट्टा लिखने से राष्ट्रहित नहीं होगा। अंग्रेजी वीरों की भाषा नहीं है। वैज्ञानिकों की भी नहीं है। अंग्रेजी के अंक भी उसके नहीं हैं।”
धुलेकर काफी तीखा बोले। पं0 नेहरू ने आपत्ति की। वे फिर बोले। नेहरू ने फिर आपत्ति की। लक्ष्मीकांत मैत्र ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने का आग्रह किया। अलगूराम शास्त्री ने अंग्रेजी को विदेशी भाषा कहकर हिन्दी का समर्थन किया, हिन्दी को अविकसित बताने पर वे बहुत खफा हुए। पुरूषोत्तम दास टंडन ने अंग्रेज ध्वनिविज्ञानी इसाक पिटमैन के हवाले से कहा “ विश्व में हिन्दी ही सर्वसम्पन्न वर्णमाला है। मौ0 अबुलकलाम आजाद, रविशंकर शुक्ल, डा0 रघुवीर, गोविन्द मालवीय, के0एम0 मुन्शी, मो0 इस्माइल आदि ढेर सारे लोग बोले।
15 वर्ष तक अंग्रेजी जारी रखने के ‘परन्तुक’ के साथ हिन्दी राजभाषा बनी। सर्वोच्चन्यायालय और उच्चन्यायालय की भाषा अंग्रेजी ही रही। केन्द्र पर हिन्दी का प्रचार प्रसार बढ़ाने की जिम्मेदारी भी डाली गयी (अनु.351) तबसे ढेर सारे 15 बरस आये पर अंगे्रजी बढ़ती रही। क्योंकि अंग्रेजी ही राजकाज की भाषा है। सारे राजनीतिक दल और मजदूर संगठन अपना अखिल भारतीय पत्राचार अंग्रेजी में करते हैं। बड़ी पूंजी की राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अंग्रेजी में काम करती हैं। राजनेता के भाषण की भाषा हिन्दी है पर निजी सरोकार की जुबान अंग्रेजी है। भारत में अंगे्रजी बोलना बड़ा आदमी होना है। सौ फीसद हिन्दी भाषी राज्यों, उ0प्र0, बिहार, म0प्र0, राजस्थान, झारखण्ड, हरियाणा, उत्तरांचल, दिल्ली और छत्तीसगढ़ आदि में भी पहली कक्षा से अंग्रेजी पढ़ाने और पढ़ने की आंधी है।
असली प्रशासकों की असली भाषा अंग्रेजी
भारत के असली प्रशासकों की असली भाषा भी अंग्रेजी है। आई0ए0एस0 की मुख्य परीक्षा में राजभाषा के बजाय अंग्रेजी का पर्चा आज भी अनिवार्य है। देश की बाकी भाषाओं में से कोई एक वैकल्पिक हैं। संसद ने सर्वसम्मत प्रस्ताव (1967) द्वारा “हिन्दी अथवा अंग्रेजी में से किसी एक“ को अनिवार्य किया। 11 जनवरी, 1991 को संसद ने यही प्रस्ताव फिर दोहराया। राष्ट्रपति ने अंग्रेजी के तुरन्त खात्मे के निर्देश (28 जनवरी, 1992) दिये। पर संसद और राष्ट्रपति के “तुरन्त“ किसी परन्तु में फंसे हुए हैं। अखिल भारतीय भाषा संरक्षण संगठन ने आन्दोलन चलाया। 350 सांसदों ने प्रधानमंत्री राजीव जी को (01-12-1988) ज्ञापन दिया। अटल जी ने सत्याग्रह स्थल पर (07-01-1989) समर्थन दिया। 26 मई, 1989 को सरकारी आश्वासन मिला। एक समिति बनी कि अंग्रेजी कैसे हटे? फिर आन्दोलन हुआ। पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह (21-11-1990) धरने पर बैठे। पुष्पेन्द्र चैहान दर्शकदीर्घा से नारे लगाते (10-01-1991) लोकसभा में कूदे। पसलियां टूट गयी। लोकसभा ने पूर्व प्रस्ताव फिर (11-01-1990) दोहराया। ज्ञानी जैल सिंह, वी0पी0 सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, देवीलाल आदि धरने (12 मई, 1994) पर बैठे। एक साल बाद (12-05-1995) लालकृष्ण आडवाणी, वीरेन्द्र वर्मा ने धरना दिया।
सारे नेताओं ने सत्ता से बाहर रहकर अंग्रेजी हटाओ धरना दिया, पर सत्ता में आकर चुप्पी साधी। अंगे्रजी का बाल भी बांका नहीं हुआ। हिन्दी दलित, शोषित, उत्पीड़ित रही।
सारे नेताओं ने सत्ता से बाहर रहकर अंग्रेजी हटाओ धरना दिया, पर सत्ता में आकर चुप्पी साधी। अंगे्रजी का बाल भी बांका नहीं हुआ। हिन्दी दलित, शोषित, उत्पीड़ित रही।
हिन्दी की पौ बारह
सरकारें बेशक पिद्दी साबित हुई पर भारत अब अंतरराष्ट्रीय बाजार का खास हिस्सा है। सो हिन्दी की पौ बारह है। हिन्दी आम उपभोक्ता की भाषा है। डा0 रामविलास शर्मा जैसे माक्र्सवादी विद्वान खड़ी बोली की ताकत का श्रेय बाजार को ही देते थे। हिन्दी में विज्ञापन देना बाजार की मजबूरी है। समाचारों में हिन्दी के साथ अंग्रेजी मिलाकर बोलने की “कैटवाक शैली“ बढ़ी है पर इलेक्ट्रानिक मीडिया में हिन्दी समाचारों के आगे पीछे का विज्ञापन समय मंहगा है। हिन्दी फिल्में अंग्रेजी दाँ परिवारों में छा गयी हैं। भोजपुरी, अवधी और बृज में फिल्में, सीरियल बन रहे हैं। दक्षिण भारतीय फिल्मकार हिन्दी को लपक रहे हैं।
यों अंतराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन की भाषा अंग्रेजी है। लेकिन इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता। सरकारों की चिन्ता अब नहीं करनी चाहिए। सरकारें आखिरकार अंतराष्ट्रीय बाजार की मैनेजरी ही कर रही हैं। बुश, अब्राहम लिंकन या आइजनहावर की भूमिका में नहीं हैं। लिंकन जातीय हिंसा की चुनौती के बरक्स राष्ट्र निर्माण में थे। हावर के सामने विश्व युद्ध की चुनौती थी। क्लिंटन के सामने अपना व्यापार बढ़ाने की चुनौती है। डा0 मनमोहन सिंह भी पं0 नेहरू की भूमिका में नहीं हैं। पं0 नेहरू के सामने हिन्दू-मुस्लिम एकीकरण, आर्थिक उत्पादन और वितरण की नीतियों के जरिए राष्ट्र निर्माण के लक्ष्य थे। डा0 सिंह के सामने अंतराष्ट्रीय बाजार से संतुलन बनाने की वरीयताएं हैं। जाहिर है कि भाषा का भविष्य अब बाजार ही तय कर रहा है। हिन्दी सारे देश की मजबूरी होगी। गांधी ने लखनऊ मे कहा भी था “टूटी फूटी हिन्दी में बोलता हूँ क्योंकि अंग्रेजी बोलने में मानों मुझे पाप लगता है।“