कृषि क़ानून पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश किसान आन्दोलन समाप्त करने की ‘बड़ी क़वायद’
सर्वोच्च ने विवादास्पद तीनों कृषि कानूनों पर फ़िलहाल विराम लगा दिया . इनके अमल पर ‘अस्थायी रोक’ डेढ़ महीने से अधिक समय से जमे किसान आन्दोलन को समाप्त करने की ‘बड़ी क़वायद’ दिखती है. कृषि क़ानून पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने ‘अन्तरिम फ़ैसले’ के साथ चार सदस्यीय समिति बनायी है। खेती-बारी के माहिरानों की यह समिति कानूनों के विरोधी एवं समर्थक किसानों से बातचीत कर अपना निष्कर्ष न्यायालय-पीठ को देगी. उसके आधार पर निर्णय होगा कि संसद के द्वारा बनाये गये कृषि कानून किसको कितना फ़ायदेमन्द या, नुकसानदेह होंगे।
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पहले भी ऐसे अवसर आये हैं जब अदालत को केन्द्र और राज्यों के कानूनों पर रोक लगानी पड़ी; कई कानूनों को बाद में रद तक किया गया लेकिन मङ्गलवार के इस ‘अनूठे निर्णय’ से अनेक विशेषज्ञ तक हक्का-बक्का हैं कि फ़िलहाल के लिए आया ‘सुप्रीम फ़ैसला’ किसके हक़ में है!
किसानों के व्यापक और दूरगामी हितों के नाम पर केन्द्र सरकार ने ‘कोरोना काल’ की जद्दोज़हद के बीच तीनों नये कानून गत वर्ष 17 सितम्बर को लोकसभा तथा 20 सितम्बर को राज्यसभा में पारित कराये थे। इनमें पहला- “कृषि उत्पादक व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्द्धन व सरलीकरण) अधिनियम”, दूसरा “मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण व संरक्षण) अधिनियम” और तीसरा “आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम” है। इन कानूनों को 27 सितम्बर को राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिली थी।
कानूनों पर अमल की प्रक्रिया शुरू होने को थी कि पंजाब सहित अनेक राज्यों के किसानों का असन्तोष उबाल पर आ गया.नये कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश सहित देश के अनेक राज्यों के किसान 24 नवम्बर से दिल्ली शहर की प्रवेश सीमा पर डटे हुए हैं.
आंदोलन की गूंज विदेश तक
आज़ादी के बाद यह भारत का पहला किसान आन्दोलन है जिसकी गूँज विदेश तक में सुनायी पड़ी। प्रभावी मामलों में सिखों से आबाद कनाडा के प्रधानमंत्री ने तो आन्दोलित किसानों के पक्ष में विवादास्पद बयान तक ज़ारी किया। इसकी भारत ने बाद में मज़म्मत की और उसे अपने आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप के रूप में देखा।
केन्द्र सरकार और इसके पैरोकारों ने शुरू से ही तीनों कृषि अधिनियमों को किसानों के व्यापक हित में बताया। इन्हें लेकर सरकार का मुख्य दावा यह है कि उसके कानूनों के क्रियान्वयन से उन दलालों का पूरी तरह से ख़ात्मा हो सकेगा जो समूची कृषि-व्यवस्था में घुसपैठ करके न केवल किसानों का लाभ बड़े हद तक हड़प ले रहे हैं बल्कि खेती-किसानी एवं उत्पादकता को नुकसान भी पहुँचा रहे हैं।
घाटे की खेती से उचटता मन
वास्तव में खेती-किसानी में लगातार बढ़ते घाटे से ख़ासी तादाद में किसानों का कृषि-कार्य से मन उचट रहा है। इस कारण खेती का रक़बा तो घट ही रहा है, उत्पादकता पर भी असर पड़ रहा है। उन्हें खेती में ठेकेदारी प्रथा के बढ़ावे से ग्रामीण संस्कृति में बज़रिये विदेशी एजेंसियों के अपसंस्कृति के छा जाने का ख़तरा भी है।
इधर, जानकारों का मानना है कि कोई छह महीने पहले बनाये गये तीनों कृषि कानून केन्द्र सरकार की बड़ी महत्त्वाकांक्षा का हिस्सा हैं। दावा है कि इससे सरकार अपेक्षाकृत कमज़ोर तबकों के बीच अपनी पहुँच स्थायी तौर पर मज़बूत बनाना चाहती है। वह चाहती है कि कृषि में दलालों की भूमिका को सदा के लिए समाप्त कर दिया जाए।
उधर, 24 नवम्बर से एकजुटता की तरफ़ बढ़े किसान आन्दोलन पर न केवल सरकार बल्कि न्यायपालिका तक चिन्तित हुई। 11 जनवरी को सर्वोच्च अदालत ने केन्द्र सरकार से यह तक कहा कि वह विवादास्पद कानूनों को ‘होल्ड’ पर रखे, अन्यथा उस(कोर्ट)को ख़ुद इसे रोकना होगा। समझा जाता है कि केन्द्र के रुख में परिवर्तन होता न देख अदालत ने 12 जनवरी को कृषि कानूनों पर न केवल क्रियान्वयन रोक दिया बल्कि समूचे मामले के अध्ययन के लिए एक समिति बना दी।
समिति के सदस्य सरकार समर्थक
कृषि क़ानून पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति के सदस्य हैं पूर्व सांसद भूपिन्दर सिंह मान (अध्यक्ष बीकेयू), डॉ० प्रमोद कुमार जोशी (अन्तरराष्ट्री खाद्य नीति अनुसन्धान संस्थान), अशोक गुलाटी (कृषि अर्थशास्त्री) और अनिल धनवट (शिवकेरी संगठन, महाराष्ट्र)। ये चारों कृषि मामलों के गहरे जानकार हैं। इनमें ख़ासकर ‘सरदार’ मान को सरकार का तरफ़दार माना जाता है। वे पहले ही तीनों कानूनों का समर्थन कर चुके हैं। इस सम्बन्ध में लिखे गये एक पत्र में उन्होंने लिखा था, “आज भारत की कृषि व्यवस्था को मुक्त करने के लिए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में जो तीन कानून पारित किये गये हैं हम उन कानूनों के पक्ष में सरकार का समर्थन करने के लिए आगे आये हैं। हम जानते हैं कि उत्तरी भारत के कुछ हिस्सों में एवं विशेषकर दिल्ली में जारी किसान आन्दोलन में शामिल कुछ तत्व इन कृषि कानूनों के बारे में किसानों में गलतफहमियां पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं।”
समझा जाता है कि इस कमिटी को अपनी बात तथा तर्क समझाने में सरकार को सहूलियत रहेगी। इसके पीछे तर्क यह कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनायी गयी समिति के सभी सदस्य पढ़े-लिखे तथा अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं.
बहुतायत लोग कृषि क़ानून पर सुप्रीम कोर्ट के ‘अन्तरिम’ निर्णय को सरकार की मदद के रूप में देख रहे हैं। उनका विश्वास है कि अब आन्दोलित किसानों का डेरा-डण्डा 24-48 घण्टों में उखड़ जाएगा। यों, किसान आन्दोलन तत्काल ख़त्म होने के आसार मंगलवार देर शाम तक नहीं दिखे। तथापि आन्दोलन के रहनुमा और पक्षधर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को सरकार की ‘बड़ी हार’ के रूप में देख रहे हैं। उनका कहना है कि आगे चलकर केन्द्र सरकार के बनाये नये कृषि कानून निरस्त होंगे! आन्दोलनकारियों के वक़ील ने तो न्यायालय का आदेश आने के फ़ौरन बाद ही इसका दावा तक कर डाला।
डॉ० मत्स्येन्द्र प्रभाकर