इस दिशाहीनता का मूल कारण क्या है ?

दुर्भाग्यपूर्ण है इस संकट के समय हमारे समाज के अभिजात्य वर्ग ने अधिकतर संवेदना विहीन मानसिकता का परिचय दिया

—प्रदीप माथुर

किसी देश और उसके देशवासियो के चरित्र की सही परीक्षा संकट की घडी में ही होती है। अच्छे समय में तो सब कुछ ही अच्छा लगता है। आज जब विश्व के तमाम अन्य राष्ट्रों के साथ हमारा देश भी गंभीर संकट के समय से गुजर रहा है तो यह प्रश्न स्वाभाविक ही है कि क्या हम इस संकट का सामना चारित्रिक दृढ़ता, धैर्य, ईमानदारी, निस्वार्थ भाव, त्याग और सेवा की भावना से कर रहे है अथवा नही? यह भी जानना आवश्यक है कि क्या हम इस घोर संकट के समय व्यक्तिगत स्वार्थ, तुच्छ मनोवृति तथा छलकपट की भावना से ऊपर उठ कर अपने समाज और देश की रक्षा में समर्पित है या केवल अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा और लाभ के बारे में ही चिंतन कर रहे है।
वर्ष 1965 में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के समय देश खराब मौसम के कारण सूखे की चपेट में आ गया और फसलों को बहुत नुकसान हुआ। चावल की कमी होने के कारण शास्त्रीजी ने उत्तर भारत के राज्यों की जनता से अपील की कि वह केवल गेहू खाये और चावल उन राज्यों की जनता के लिए छोड़ दे जिनका मुख्य आहार चावल है। शास्त्रीजी की अपील पर उत्तर भारत के लाखो करोड़ो लोगो ने उस समय तक चावल नहीं खाया जब तक स्थिति सामान्य नहीं हो गयी।
प्रश्न यह है कि क्या भारतीय जनमानस में आज भी वैसी ही भावना है या हम सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की अपील पर थाली बजा कर और मोमबत्ती जला कर देश और समाज के लिए अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते है।
कटु सत्य यह है की आज हर तरफ हर तरह से लूट और स्वार्थ का माहौल बना हुआ है। हम अनुभव से जानते हैं कि यह लूट तब तक खत्म नहीं होगी जब तक कि केंद्र और राज्यों की सरकारें कठोर प्रशासनिक कदम नहीं उठाएंगी। केवल भारी जुर्माना, व्यावसायिक परिसरों की जब्ती और दोषी दुकानदारों और आपूर्तिकर्ताओं को गिरफ्तारी का भय ही इस गंभीर संकट की घड़ी में लोगों के लिए आवश्यक वस्तुओं का सही मूल्य और सही की आपूर्ति सुनिश्चित करेगा।
कभी कभी लगता है कि कही सरकार मुनाफाखोरी रोकने के मामले में धीमी गति से तो आगे नहीं बढ़ रही ? शायद जो लोग सत्ता में हैं उन्हें लगता है कि लालची व्यापारियों को अनुशासित करने के लिए उनके हाथों में आवश्यक वस्तु अधिनियम है। लेकिन वे गलत हैं। यह कानूनी प्रावधान लंबे समय से है लेकिन कमी के समय में शायद ही कभी काला बाजार पर अंकुश लगा हो।
प्रश्न यह है कि क्या हम अपने व्यापारिक समुदाय से इस वर्तमान संकट में अपने, स्वार्थ से ऊपर उठने की आशा कर सकते है ? क्या उनसे सार्वजनिक सेवा की भावना से अपना व्यवसाय करने की उम्मीद कर सकते हैं? दुनिया के कई अन्य समाजों में ऐसा होता है?
यह दुर्भाग्यपूर्ण है इस संकट के समय हमारे समाज के अभिजात्य वर्ग ने अधिकतर संवेदना विहीन मानसिकता का परिचय दिया है। सत्ता के मैदान के खिलाडी अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने की चिंता में व्यस्त रहे है और आर्थिक जगत के महारथी अपना धन बचाने या बढ़ाने की चिंता में। उच्चशिक्षित और अच्छे पदों पर कार्य करने वाले उच्च माध्यम वर्ग के लोग समाज के निम्नवर्ग के प्रति सवेदनाशून्य दिखे। समाज के वंचित वर्ग को लेकर उनकी सबसे बड़ी चिंता यह ही थी की अगर वह अपने गावों को वापिस लोट गए तो कोरोना का संकट समाप्त होने के बाद उनके घरो में काम कौन करेगा। इसी शंका से ग्रस्त होने के कारण महाराष्ट्र और कर्णाटक के बड़े ठेकेदारों ने बिहार, झारखण्ड और अन्य राज्यों से आये श्रमिकों की घर वापसी में बाधा डालने का भरसक प्रयास किया।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि कोरोना संकट से लड़ने के लिए देश के बड़े उद्योगपतियों ओर सरमायादारों ने सरकारी और गैरसरकारी सहायता कोष में कितना धन दिया। पर इस बात के समाचार जरूर आये है कि दिल्ली के कुछ धनपशुओ ने अनिष्ट की आशंका के निवारण के लिए बिना किसी कारण महंगे वेंटिलेटर्स अपने घरो में लगवा लिए जबकि उनकी आवश्यकता हस्पतालो में कही अधिक थी जहा कोरोना के रोगी जीवन मरण का संघर्ष कर रहे है।
दिहाड़ी मजदुर और बंद कारखाने के श्रमिकों के अपने राज्यों से पलायन को लेकर जहा एक और स्पष्ट सरकारी नीति और प्रशासनिक व्यवस्था का अभाव दिखाई दिया वही पर राजनैतिक रस्साकशी भी दिखाई दी। प्रश्न शायद श्रेय लेकर अपना राजनैतिक कद बढ़ाने का था। हद तो तब हो गयी जब टुच्चेमुच्चे नेताओ ने गरीब और भूखे लोगो को भोजन में एक केला देते हुए भी अपनी फोटो खिचवाई और उसको सोशल मीडिया पर वायरल करवाया।
कुछ अच्छे और सम्मानित व्यपारियो को छोड़ दिया जाये तो अधिकांश दुकानदारों ने इस आपातकालीन बाजार व्यवस्था में मुनाफाखोरी का नंगा नाच किया है। पीछे से बनकर माल नहीं आ रहा है कह कर कालाबाजारी की गयी है। सैनेटीज़र और मास्क जैसे आवश्यक वायरस अवरोधकों पर इन मुनाफाखोरों की विशेष कृपा रही है। आवश्यक दवाए भी हर जगह महंगी रही। हाँ यह सही है कि पता लगने पर कही कही उनके विरुद्ध कड़ी कार्यवाही भी हुई पर फिर भी वह इस संकट को आर्थिक रूप से भुनाने में नहीं चुके। प्राइवेट ट्रांसपोर्टर्स ने आधिकारिक या अनधिकृत रूप से गाँव वापसी करते श्रमिकों से दुगना चौगुना किराया लूटा।
सरकार द्वारा श्रमिक ट्रेनों के चलने के बारे में अनिश्चितता की जो स्थिति बनी उसका भी इन अनाधिकृत ट्रांसपोटर्स ने पूरा लाभ उठाया और घर लौटते श्रमिकों से बहुत ज्यादा किराया वसूल किया।
श्रमिकों के प्रश्न पर नीतिगत अनिश्चितता, प्रशासनिक अक्षमता, उदासीनता और संवेदनहीनता का मिला जुला व्यव्हार देखने को मिला। बुद्धिजीवियो और यहाँ तक कि पत्रकारों ने भी लिखा की श्रमिकों को नहीं जाने देना चाहिए था। इससे ऐसा लगा कि बड़े शहरो में काम करने वाले यह श्रमिक अपने परिवार और सगे सम्बन्धियों कि मानवीय भावनाओ से शून्य बंधुआ मजदूर है जिनका अस्तित्व मशीन के एक पुर्जे के बराबर है।
यह सही है कि तमाम लोगो ने इस समय श्रमिक और अन्य जरूरतमंद लोगो के लिए धन और समय देकर निस्वार्थ सेवा भी की है। समाज के लिए उनका सरोकार और प्रतिबद्धता वास्तव में प्रशंसनीय है। पर दुःख इस बात का है कि ऐसे लोगो का योगदान व्यक्तिगत या समूहगत प्रयास से ही रहा। यह हमारे वृहत समाज को संकट कि इस घडी में भी श्रमजीवी वर्ग कि सहायता के लिए आंदोलित नहीं कर पाया।
यह चिंतन और शोध का विषय है कि हमारे सनातन भावना प्रधान समाज की मानवीय संवेदना इतनी शुष्क क्यों हो गयी है और इस भटकाव व दिशाहीनता का क्या कारण है। हमारी पुरातन साहित्य और जीवनशैली उन तमाम प्रसंगो से परिपूर्ण है जहाँ भगवन बुद्ध से लेकर महात्मा गाँधी ने अपने व्यक्तिगत हितो का बलिदान किया क्योकि समाज का सरोकार उनके लिए महत्वपूर्ण था। क्या इस भटकाव और दिशाहीनता का कारण सादा जीवन उच्च विचार के दर्शन पर आधारित हमारी जीवन शैली पर निरंकुश पूंजीवाद के द्धारा थोपा गया वह उपभोक्तावाद तो नहीं है जिसने हमारे समाज को अपने बाहुपाश में जकड लिया है। इस उपभोक्तावादी मनोवृति के कारण आज हमारे लिए हर व्यक्ति लाभ की वस्तु बनता जा रहा है और हर अवसर धनोपार्जन का माध्यम चाहे वह भीषण मानवीय त्रासदी ही क्यों न हो।
पर कोरोना संकट काल की तालाबंदी ने हमें यह भी बताया है कि हम कितने काम संसाधनों और बिना दिखावे और फिजूलखर्ची के भी परिवार के साथ प्रसन्न रह सकते है। यदि देखा जाए तो तालाबंदी ने उपभोक्तावादी मनोवृति के समक्ष एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है।
आज शायद पहले से कही अधिक हमें एक वैचारिक क्रांति कि आवश्यकता है जो हमें फिर एक संवेदनशील प्राणी बना सके। अगर कोरोना काल का यह संकट ऐसा करता है तो वास्तव में यह वरदान सिद्ध होगा।

स्वतंत्र लेखन में रत वरिष्ठ पत्रकार/संपादक प्रोफेसर प्रदीप माथुर भारतीय जनसंचार संसथान (आई. आई. एम. सी.) नई दिल्ली के पूर्व विभागाध्यक्ष व पाठ्यक्रम निदेशक है। वह वैचारिक मासिक पत्रिका के संपादक व् नैनीताल स्थित स्कूल ऑफ इंटरनेशनल मीडिया स्टडीज (सिम्स) के अध्यक्ष है।

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