ताइवान और चीन के रिश्तों में खटास

अनुपम तिवारी

लेखक वायु सेना के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं, जो रक्षा मामलों के विशेषज्ञ के तौर पर कई मीडिया चैनलों से जुड़े हुए हैं।

ताइवान और चीन के रिश्तों में खटास अब उस स्तर पर पहुच गयी है जहां से युद्ध ही एक मात्र विकल्प दिखता है। चीन की सेना द्वारा लगातार ताइवान की समुद्री और हवाई सीमाओं का उल्लंघन किया जा रहा है। इन अतिक्रमणों की संख्या बहुत अधिक है। समुद्र से चारों ओर से घिरी इस स्वायत्त भूमि पर रहने वाले निवासियों और उनकी सेना इन उल्लंघनों को नकारने में ही अपनी सारी ऊर्जा लगाए दे रही है।

दरअसल यह चीन की सेना (पीएलए) द्वारा अपनाया जा रहा नए किस्म का छद्म युद्ध है। जिसका उद्देश्य असल युद्ध से पहले ही विपक्ष यानी ताइवान को थका देना है। मिलिट्री की भाषा मे इसको ‘ग्रे जोन वारफेयर’ कहते हैं। जिसके अंतर्गत दुश्मन के साथ तनाव को उस स्तर तक ले जाया जाता है, जिसके बाद सिर्फ बंदूकों पर ट्रिगर दबाना ही बाकी रह जाता है।

ताइवान के आकाश में चीनी विमानों की घुसपैठ

रायटर्स की एक खबर के मुताबिक पिछले दो महीनों में 2972 बार चीनी लड़ाकू विमान ताइवान की सीमा में दाखिल हुए हैं। यह संख्या चौंकाती है। क्योंकि वायु सेना के नियमों (एसओपी) के मुताबिक देश की सीमा में घुस रहे एक विमान को घेरने के लिए कम से कम 2 लड़ाकू विमान हवा में भेजने पड़ते हैं और वह भी हवा से हवा में मार कर सकने वाली मिसाइलों से लैस करके। इस को ‘स्क्रैम्बल’ कहा जाता है।

ताइवान के रक्षा मंत्रालय के द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक इन उल्लंघनों का जवाब देने के लिए ताइवान एयर फोर्स को 4000 से ज्यादा उड़ाने करनी पड़ गईं। यह काफी खतरनाक मिशन होते हैं और इनमें एक भी चूक जान और माल की काफी क्षति पहुँचा सकती है। ताइवान के लिए इन स्क्रेम्बल उड़ानों पर खर्च 903 मिलियन डॉलर तक पहुँच चुका है। किंतु अतिक्रमणकारी को बिना स्क्रैम्बल कराए छोड़ा भी नही जा सकता क्योंकि यह कोई नही बता सकता कि कौन सा विमान कितना बड़ा खतरा ले कर आएगा। इसके अलावा इसी अवधि में ताइवानी समुद्री सीमा का पनडुब्बियों और अन्य तरीकों से 400 से ज्यादा बार अतिक्रमण हो चुका है, ऐसा ताइवान का दावा है।

शी जिन पिंग की आक्रामक सैन्य नीति

चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने पद ग्रहण करने के बाद से ही आक्रामक रणनीति को अपनी सैन्य नीति बना रखा है। पश्चिमी देशों के आकलन के अनुसार ताइवान से लगी सीमा पर करीब 23 मिलियन पीएलए सैनिकों का जमावड़ा होना यह साबित करता है कि वह बल पूर्वक ताइवान को हासिल करना चाहते हैं। यह चीन की दशकों पुरानी ताइवान नीति से अलग है जिसमे मसले को बात चीत से सुलझाने पर जोर दिया जाता था।

ताइवान की राष्ट्रपति साई इंग वेन ने भी अब खुल कर यह स्वीकारना शुरू कर दिया है कि उनके देश को चीन की ‘तानाशाही ताकत’ से लगभग रोज ही लड़ना पड़ रहा है। और देश के लिए यह काफी महंगा और थका देने वाला उपक्रम है। राष्ट्रपति ने संकेत दिए हैं कि आने वाले वर्ष मे ताइवान को अपने रक्षा खर्च में 10 फीसदी बढ़ोत्तरी करनी पड़ेगी जिसका मूल्य करीब 16 बिलियन अमरीकी डॉलर बैठता है।

अपनी रक्षा के लिए ताइवान ने भी कमर कसी

इन सब के बीच ताइवान के रक्षा मंत्रालय ने जरूर यह भरोसा दिलाया है कि देश के सेनाएं सजग हैं और मुस्तैदी से सुरक्षा कर रही हैं। एक आधिकारिक बयान में रक्षा मंत्री ने कहा कि भले ही चीन रक्षा संसाधनों के मामले में उनसे बहुत आगे है, ताइवान बड़ी मजबूती से उनका सामना करने को तैयार है। और उनके पास संयुक्त राज्य अमेरिका जैसा रक्षा साझीदार भी तो है। अमेरिका से हाल ही में ताइवान ने लड़ाकू विमानों, हथियारों, संचार उपकरणों समेत कई बड़े रक्षा सौदे किये हैं।

अमेरिका ताइवान की स्वायत्तता का प्रबल समर्थक रहा है। उसको पता है कि ताइवान अगर चीन के पूर्णतः कब्जे में आ गया तो एशिया प्रशांत क्षेत्र में उसकी बादशाहत को खतरा हो जाएगा। और चीन अपनी विस्तारवादी नीति में सफल हो जाएगा। इसी वजह से राष्ट्रपति ट्रम्प ने चीन को इस क्षेत्र में घेरने में कोई कसर नही छोड़ी थी। जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया के साथ ‘क्वैड समूह’ को खड़ा करना इसी वजह से ‘गेम चेंजर’ माना जा रहा था। अब अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बिडेन क्या रणनीति अपनाते हैं यह समय के गर्भ में है।

अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की आवश्यकता

यह बात स्पष्ट है कि अकेले ही ताइवान चीन के बढ़ते आक्रमण को रोक नही पायेगा, आवश्यकता है उसको नए स्रोतों के तलाश करने की। अपनी सेना के साथ साथ सिविल पुलिस में तुरंत सुधार की आवश्यकता है। आर्थिक मोर्चों पर लड़ाई लंबी चलने वाली है किंतु ताइवान इसके प्रति सजग दिखता है। सबसे जरूरी बात यह कि अमेरिका या किसी बाहरी शक्ति से मदद की आशा के साथ साथ स्वयं को मजबूत करना सबसे जरूरी है।

अमेरिका के साथ साथ भारत, जापान, कोरिया और रूस जैसी क्षेत्रीय शक्तियों को चीन की बढ़ती हुई महत्वाकांक्षा के विरुद्ध ताइवान के साथ दिखना पड़ेगा। भारत चीन के खिलाफ इस मोर्चेबंदी का नेतृत्व कर सकता है, क्योंकि पिछले कई महीनों से वह स्वयं चीन के विस्तारवाद की नीति का शिकार है और लद्दाख में सैनिक संघर्ष की स्थिति बरकरार है। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी बड़ी संस्थाओं को भी ताइवान मसले में हस्तक्षेप करना चाहिए।

चीन-ताइवान संघर्ष की ऐतिहासिकता

चीन और ताइवान के संघर्ष की जड़ें इतिहास में छुपी हैं। चीन ने हमेशा ये प्रचारित किया है कि ताइवान द्वीप में बसने वाले पहले लोग चीन से थे, हालांकि इसके पुख्ता सबूत नहीं हैं। यह जरूर है कि मध्य काल के अल्पावधि के डच शासन को छोड़ यह द्वीप सदैव मुख भूमि चीन के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष शासन में रहा है। 1895 के प्रथम चीन-जापान युद्ध मे चीन की हार के साथ ही ताइवान पर जापान का कब्जा हो गया जो द्वितीय विश्व युद्ध तक अनवरत जारी रहा।

दूसरे विश्व युद्ध मे जापान की हार के साथ ही ताइवान स्वतंत्र हो गया। आज का चीन उस समय आंतरिक राजनैतिक कलह में उलझा हुआ था। जहां कम्युनिस्टों ने ‘चियांग काई शेक’ की राष्ट्रवादी कमिंनटोंग पार्टी को सत्ता से जबरन बेदखल कर दिया। काइ शेक अपनी सरकार के चुने हुए लोगों के साथ भाग कर ताइवान में शरण लेते हैं और वह घोषणा करते हैं कि लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई रिपब्लिक ऑफ चाइना की सरकार वही हैं।

कालांतर में संयुक्त राष्ट्र संघ समेत कई अंतरराष्ट्रीय संघों और देशों ने चियांग काइ शेक की इसी सरकार को चीन की प्रतिनिधि माना और मान्यता दी। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 1949 के बाद जिस चीन को प्रतिनिधित्व दिया गया वह यही सरकार थी जो ताइवान में निर्वासित रूप में रह रही थी।

1979 तक कमोबेश यही स्थिति बरकरार रही किंतु इतने दिनों में कम्युनिस्ट चीन ने दुनिया को दिखा दिया कि वह पश्चिमी देशों के लिए बड़ा बाजार है और फायदे का सौदा है। इसी को भुनाने के लिए पश्चिमी देशों ने ताइवान से किनारा करना शुरू कर दिया। ताइवान को तब से सिर्फ अमेरिका की साझेदारी से संतोष करना पड़ा है जिसने एक कानून के तहत उसकी सुरक्षा का जिम्मा अपने सर पर ले लिया था।

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