हम भी क्या जागेंगे

एक कवि का सपना

चंद्र विजय चतुर्वेदी , प्रयागराज, वैज्ञानिक 

होगा सही में

क्या यह कभी भी

सूरज के उगने

के पहले ही

हम भी क्या जगेंगें

सूरज के संगसंग

बेला चमेली के

गंध से भरे

हवा में साँस लेंगे

टहलते टहलते

नदिया किनारे

घूमने चलेंगे

कभी करोंदे के

कभी हरसिंगार के

खुसबू को टटोलेगा

मन यह बेचारा

कभी महुयाई हवा को

तलासेगा चित का चितेरा

आम महुए के बगीचे से

गुजरते गुजरते

चिड़ियों के चहचहाते

राग रागिनी में घूमेंगे

ओसों की बूंदों से

लदी हरी घास पर

चलेंगे पांव नगें

मलयाचल की

चन्दन हवाएं

बदन छू

निकल दूर जाएँगी

लाला की बगिया में

रंग बिरंगी तितलियाँ निहारते

पालागी पंडित जी

सुनते सुनते

गायों के रंभाने पर

बाबुल का दातुन

करते करते

घर लौट आएंगे

नहाएंगे धोयेंगे

सूरज को

ताम्बे के लोटे से

अरघ चढ़ाएंगे

पेंटिंग : गुनगुन

Leave a Reply

Your email address will not be published.

10 − 5 =

Related Articles

Back to top button