सार्वजनिक पटरियों पर दौड़ेंगी निजी ट्रेन, क्या यह रेलवे का निजीकरण है ?

—हरजिंदर , वरिष्ठ  पत्रकार दिल्ली

Harjinder , Senior journalist

क्या भारतीय रेलवे का निजीकरण होने जा रहा है? 151 नई ट्रेनों का परिचालन निजी क्षेत्र को सौंपे जाने की खबर बहुत सी जगहों पर यही निष्कर्ष निकाला जा रहा है। वैसे यह कोई योजना नहीं है। नीति आयोग ने डेढ़ सौ ट्रेनों का परिचालन निजी क्षेत्र से करवाए जाने की सिफारिश छह महीने पहले ही कर दी थी। सरकार ने इस सिफारिश में सिर्फ एक ही नई चीज जोड़ी कि उसने इस डेढ़ सौ की संख्या में एक अंक और जोड़ कर इसे शुभांक का रूप दे दिया। ऐसे करतब नरेंद्र मोदी सरकार की खासियत भी रहे हैं।

क्या इसे रेलवे का निजीकरण कहा जा सकता है? चार महीने पहले जब नीति आयोग ने इसकी सिफारिष की थी तो रेलमंत्री पीयूष गोयल ने कहा था कि रेलवे का निजीकरण नहीं होने जा रहा, बस उसकी कुछ सेवाओं को निजी क्षेत्र का आउटसोर्स किया जाएगा। निजीकरण नहीं होने जा रहा इस बात को खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उसी के आस पास दोहरा चुके हैं। इससे दो चीजें एकदम स्पष्ट दिख रही हैं, एक तो बड़ी संख्या में गाड़ियों का परिचालन निजी क्षेत्र को सौंपा जाना और दूसरा निजीकरण शब्द से परहेज। अभी तक जितनी खबर सामने आई है उससे तो सीधे तौर पर यही कहा जा सकता है कि भारतीय रेलवे अपनी कुछ नई ट्रेनों को चलाने का ठेका निजी क्षेत्र को देने जा रहा है।

न तो उस तरह के निजीकरण है जिसमें किसी कंपनी को अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करके सामांतर कारोबार चलाने की इजाजत दी जा रही है और न ही इसमें कीमत हासिल करके रेलवे की संपत्ति का कोई हस्तांतरण निजी कंपनी के नाम पर होने जा रहा है।

भारतीय रेलवे उसी प्रक्रिया की ओर बढ़ रहा है जो तेजस एक्सप्रेस के मामले में अपनाई गई थी। तेजस का परिचालन इंडियन रेलवे कैटरिंग एंड टिकटिंग कार्पोरेशन यानी आईआरसीटीसी कर रही है, जो भारतीय रेलवे की ही एक सहायक कंपनी है। इस कंपनी को भारतीय रेलवे नेटवर्क की सबसे पेशेवर आधुनिक इकाइयों में गिना जाता है। हालांकि इसके कामकाज का रिकाॅर्ड मिलाजुला रहा है। आॅनलाइन टिकटिंग के मामले में यह खासी कामयाब रही है जबकि कैटरिंग को लेकर यह लगातार आलोचना का शिकार भी बनती रही है। तेजस एक्सप्रेस को निजी परिचालन का अच्छा उदाहरण इसलिए भी नहीं माना जा सकता कि इसके लिए जो प्रक्रिया अपनाई गई वह शायद इस दिशा के लिए वाजिब रास्ता नहीं हो सकता। न तो निविदाएं ही आमंत्रित की गईं, न कोई बिडिंग हुई बस भारतीय रेलवे ने अपनी एक नई प्रीमियम ट्रेन का परिचालन सीधे तौर पर अपनी ही एक सहायक कंपनी को सौंप दिया। इसके बाद दो और ट्रेन का परिचालन भी आईआरसीटीसी के हवाले किया गया।

हमारे पास निजी क्षेत्र में ट्रेन संचालन के तेजस से ज्यादा बेहतर तीन अन्य उदाहरण हैं। ये तीनों ही उदाहरण मेट्रो ट्रेन के हैं। दिल्ली एयरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन, मुबई मेट्रो लाइन-1 और हैदारबाद मेट्रो का परिचालन पूरी तरह से निजी क्षेत्र के हवाले किया गया था। ये तीनों ही सेवाएं इस समय कानूनी पचड़े में फंसी हुई हैं।

तेजस के मामले में रेलवे ने जो किया वह एक नई ट्रेन को बाहरी हाथों में सौंपने का एक आधा-अधूरा सा प्रयोग था। यह प्रयोग कितना सफल या असफल रहा यह अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन अब जब इसे एक बड़ा विस्तार देने देने के लिए कमर कसी जा चुकी है तो यह साफ है कि रेलवे को अपना पुराना रवैया और रंग-ढंग बदलना होगा।

रेलवे जो यह नई कोशिश करने जा रहा है वह भले ही पूर्ण निजीकरण न हो लेकिन उससे उम्मीदें वही बांधी जा रही हैं जो निजीकरण से बांधी जा रही हैं। यह कहा जा रहा है कि इससे राजधानी और शताब्दी जैसी प्रीमियम ट्रेन ही नहीं हवाई यात्रा करने वालों को भी नए विकल्प मिलेंगे। साथ ही इससे जो स्पर्धा पैदा होगी उसके चलते भारतीय रेलवे पर भी अपनी प्रीमियम सेवाओं को सुधारने का दबाव बनेगा। ऐसे मौकों पर सेवाओं को विश्वस्तरीय बनाने के दावे भी किए जाते रहे हैं। ये दावे भी आते रहे हैं कि ऐसी नई ट्रेन पटरियों पर 180 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ सकेंगी। हालांकि इसका एक दूसरा पक्ष भी हो सकता है, रेलवे का पूरा इन्फ्रास्ट्रक्चर पहले ही काफी दबाव में है, 151 नई ट्रेन शुरू होने का अर्थ है कि इस पर दबाव बढ़ेगा। हो सकता है कि निजी परिचालन वाली नई ट्रेन की गुणवत्ता बेहतर हो और इन ट्रेनों के बिना बाधा बढ़ते रहने के नए जुगाड़ भी तलाश लिए जाएं, लेकिन इस दबाव से रेलवे की कुलजमा गुणवत्ता पर खराब असर भी दिख सकता है।

हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि स्पर्धा के तौर तरीके तय करने के लिए कोई स्वतंत्र रेगुलेटरी अथाॅरिटी बनाई जाएगी या नहीं। इसके न बनने का अर्थ होगा कि किसी भी विवाद की स्थिति में अंतिम फैसला खुद भारतीय रेलवे ही करेगा। यानी जो निजी क्षेत्र का स्पर्धी है और जो उनके लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर का प्रदाता भी है वही खुद ही पूरे खेल का रेफरी भी होगा।

भारत में रेलवे किसी व्यवसायिक संगठन की तरह नहीं एक सार्वजनिक सेवा की तरह चलता रहा है। सबसिडी के जरिये सस्ती यात्रा की व्यवस्था हमेशा से भारतीय रेलवे की एक बड़ी पहचान रही है। इसका नुकसान यह हुआ है कि रेलवे की गुणवत्ता पर कभी बहुत ज्यादा ध्यान देने की जरूरत भी नहीं समझी गई। लेकिन इसका बड़ा फायदा यह हुआ कि इसके बड़े पैमाने पर श्रमिकों के आवागमन को सहज और सुलभ बनाया। इस मामले में रेलवे की भूमिका को हम कोविड काल के उस शुरूआती दौर से समझ सकते हैं जब बड़े पैमाने पर मजदूरों ने अपने घरों की ओर वापसी शुरू की थी। बाद में इस मानवीय त्रासदी का हल काफी कुछ रेलवे के प्रयासों से ही निकल सका। ऐसे में अगर निजी क्षेत्र की बढ़ती भूमिका को लेकर आशंकाएं उभरती हैं तो कोई हैरत नहीं है।

इस तरह के फैसले से सरकार उन आलोचकों का मुंह जरूर बंद कर सकती है जो यह मानते हैं कि रेलवे जैसी सेवा में एक तो सार्वजनिक धन का अपव्यय हो रहा है और दूसरे उपभोक्ताओं को अच्छी सेवा भी नहीं मिल रही। दूसरी तरफ विपक्ष को इससे यह कहने का मौका मिल गया है कि सरकार देश पर रेलवे का निजीकरण थोपने जा रही है। जबकि हकीकत में शायद ये दोनों ही चीजें नहीं होने जा रहीं। फिलहाल तो नहीं।

नोट : लेखक को हिंदी पत्रकारिता का 40 साल का अनुभव। अखबार, पत्रिका, टीवी और वेबसाइट समेत सभी तरह के मीडिया में काम किया।

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