सभ्यता का शैतान मुस्कुराने लगा है

 

प्रेम प्रकाश

चांद और मंगल पर कब्जे की तैयारियों में मशगूल दुनिया को अचानक एक वायरस ने घुटनों पर ला खड़ा किया है। कहीं धर्म के नाम पर नरसंहार, कहीं जातियों और नस्लों के नाम पर अत्याचार, कहीं अनियंत्रित बलात्कार और व्यभिचार देखकर लगता है कि धरती से लेकर अंतरिक्ष तक कुलांचे मारती मानवता रुग्ण हो चुकी है। ऐसे में प्रकृति ने एक इशारा मात्र किया है। गांधी ने बहुत पहले ही सभ्यता का यह भवितव्य देख लिया था। यह शैतानी सभ्यता है और एक दिन यह खुद को नष्ट कर देगी, उनके यह शब्द बार-बार पढ़े जाने चाहिए।                            – सं.

Prem Prakash

गांधी की टक्कर जब, जहां और जिससे भी हुई, सबसे पहले वे अपने आप से  टकराते थे। यह उनकी विलक्षण खूबी थी। इसके बाद और प्रतिद्वंदी पर टूट पड़ने से पहले बाकायदा वे प्रतिपक्षी को इसकी सूचना देते थे। यह उनके निज का कौशल था। यही वह दोधारी तलवार थी, जिससे प्रतिद्वंद्वी सेना उनसे खौफ खाती थी और सामने टिक ही नहीं पाती थी। युद्ध छेड़ने से पहले आत्मानुशीलन की यह विनम्रता गांधी के आक्रमण की धार को पैना कर देती थी। उनकी लड़ाई का यह वह मोर्चा था, जब विपक्षी पैदल और गांधी रथी हो जाते थे, यानी नवैयत बदल जाती थी।अगर शान्ति चाहिए तो पहले अशान्ति मचानी पड़ेगी’–इतना तक तो सब समझ लेते थे लेकिनवह शान्ति भी अपनी होनी चाहिए…’-यहीं पहुंचकर बातें दुरूह लगने लगती थीं।हमारे मन का जब खूब मंथन हो जायेगा और हम दुखों की आग में तपने लगेंगे तभी सच्ची शान्ति का अनुभव कर सकेंगे।इसके बाद तो बात एकदम समझ के बाहर हो जाती। कैसा है यह आदमी! शत्रु सामने खड़ा है और देश उससे लड़ मरने को आमादा है, ऐसे वक्त में अपना मन मथने की बात…? ओह, नासमझ गांधीजो समझ में सके, वह नासमझ ही तो हुआ। आप जो भी समझ रहे हों, समझें, पर यह भी जरूर समझें कि उस आदमी के हाथ में दोधारी तलवार है। आत्मशोधनहृदय परिवर्तनऔर अथक समर्पण। शत्रु की पराजय जिसका उद्देश्य ही नहीं था, वही सत्याग्रह का अन्वेषक हो सकता था। प्राणिमात्र की अच्छाई में जिसका अखण्ड विश्वास था, उसके लिए मानवता एक सागर की तरह थी, जिसकी कुछ बूंदें खराब भी हों, तो पूरा सागर गंदा नहीं होता।

महात्मा गांधी के मन में इस दुनिया के बरक्स एक बेहतर दुनिया की कल्पना थी। उपभोक्ता विश्व उपभोग की सारी सीमाएं जान लेने के बाद आज गांधी के विचारपुंज में रास्ता तलाश रहा है। यह सत्य केवल आज का नहीं, इसके पहले का भी है। गांधी को तब भी, जब वे जीवित थे, देश की सीमाओं से बाहर अधिक महसूस किया गया। क्या कहेंगांधी की वैचारिक शक्ति को समझने और उसे स्वीकार करने की हमारी योग्यता ही नहीं है? या और कोई दुरभिसंधि है? कुछ तो यह योजनाबद्ध भी लगता है। गांधी ने १९०९ में हिन्द स्वराज नाम की एक छोटीसी किताब लिखी। बड़ी बेचैनी से लिखी इस किताब पर आज देशों की सीमाएं तोड़कर भाष्य लिखे जा रहे हैं। गांधी विचार का बीजग्रंथ बनने की इसकी पूरी यात्रा की अपनी ही कशमकश है। किताब के आते ही उसे एक मूर्ख आदमी की रचना कह कर भारत में खारिज कर दिया गया। जवाहर लाल नेहरू ने उसे पढ़ने लायक भी नहीं माना। गोखले ने तो यह भी कह दिया कि अभी गांधी अपने देश को नहीं जानते। कुछ वक्त भारत में बिता लेने के बाद वे स्वयं इस किताब को नष्ट कर देंगे। लेकिन यह आदमी तीस वर्ष बाद भी उस किताब का एक भी शब्द बदलने को तैयार नहीं हुआ। उसकी जिद्द देखिये किइस किताब में लिखे विचारों में परिवर्तन करने का कोई कारण मुझे नहीं मिला। इसमें जो कुछ भी लिखा, उसकी सत्यता की पुष्टि मेरे अनुभवों से हुई। इसमें विश्वास रखने वाला अगर मैं अकेला भी रह जाऊं तो मुझे अफसोस नहीं होगा।लेकिन गांधी को ये नसीहतें तब दी जा रही थीं। जब गांधी शोषण के चरित्र को सत्याग्रह की चुनौती देकर दक्षिण अप्रâीका का इतिहास लिख चुके थे। गांधी ने कहा था कियह किताब किसी बच्चे के हाथ में भी दी जा सकती है क्योंकि यह द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है और पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। यहआत्मशब्द गांधी की वैचारिक जीवनी की कसौटी है। संघर्ष के साथसाथ शिक्षण और रचना उनके औंजार थे और आजादी मात्र एक पड़ाव। जाना तो उन्हें कहीं दूर था, जहां देश के गांवों में देश की शक्ति को विकेन्द्रित कर देना था। भले यह रास्ता भारत ने छोड़ दिया, पर इसके सूत्र विश्व बिरादरी में ढूंढे जा रहे हैं। उनके जीवन कार्यों का सूक्ष्म अवलोकन करने के अलावा मानवता के लिए उनका कोई शाब्दिक संदेश नहीं मिलता।

आज मानवता यह महसूस कर रही है कि मानव समाज को जैसा होना चाहिए, वैसा वह नहीं है। उसमें आमूलचूल परिवर्तन होना चाहिए। मनुष्य के लिए बेहतर समाज कैसा हो, उसकी एक रूपरेखा गांधी ने हिन्द स्वराज में खींची है। इस किताब में आधुनिक सभ्यता की आलोचना है।  इसी विन्दु पर आधुनिक समाज इस किताब, इसमें व्यक्त विचार और जिद्दी सपनों वाले इस आदमी से कन्नी काटता है। कुछ आधारभूत मूल्य और कुछ ओज भरे सिद्धांत हैं, जिनसे यह किताब ग्रंथ बनती है और जिनको बहुत दुरूह मान कहकर हम उससे दूर भागते हैं। एक समानान्तर प्रवाह पर गौर करें तो एक वैश्विक बिरादरी आकार ले रही है, जो कहती है कि वैकल्पिक दुनिया संभव है। यह बिरादरी किस प्रकार और अधिक व्यापक हो, भीतर की यह प्रेरणा हमें गांधी का अवगाहन करने के लिए बाध्य करती है। आखिर आप उस पर्वत से कैसे टकरा सकते हैं, जिससे टकराकर अपना ही सिर फूटना निश्चित है? उस पर्वत की दृढ़निष्ठा देखने की चीज है—‘सत्य को मैं जैसा देखता हूं, वही मेरे लिए उसका प्रमाण है। सारी दुनिया उसके विपरीत दिशा में जा रही है। मुझे उसका डर नहीं है क्योंकि जब अंत नजदीक जाता है तो पतिंगा दिये के चारों ओर अधिक चक्कर लगाने लगता है। अगर पतिंगे जैसी स्थिति से भारत को भी बचाया जा सके, तो भी भारत और उसकी मार्पâ सारी दुनिया को इस नियति से बचा लेने की मेरी कोशिश अंतिम सांस तक चलती रहेगी, यही मेरा धर्म है।

गांधी के इस धर्म की दुरूहता को आसान करने के लिए एक विशिष्ट अभिगम और संपूर्ण वैज्ञानिक दृष्टिकोण आवश्यक है। २०वीं सदी के आरंभिक वर्षों में लिखे गये उन बेचैन शब्दों को २१वीं सदी में समझने के लिए जिस बारीकी की जरूरत पड़ती है, उसके अभाव में कोई आश्चर्य नहीं कि हम शब्दों की सीमाओं में ही उलझे रह जायं और परिभाषाएं तथा व्याख्याएं अधोगामी हो जायं। आज की दुनिया के समाज, बाजार बनते जाने को अभिशापित हैं। सबकुछ हमें बाजार में उपलब्ध कराये जाने के दावे हवा को प्रदूषित किये हुए हैं। अलग बात है कि बाजार अब केवल व्यापार नहीं करता। पहले वह हमारी जरूरतें गढ़ता है फिर उनकी पूर्ति करने का पूंजीवादी खेल खेलता है। बड़ी बारीकी से देखकर गांधी ने कहा था कि यह शैतानी सभ्यता है और एक दिन यह खुद को नष्ट कर देगी। हिंद स्वराज के ये दो वाक्य आज की दुनिया के सामने साफ चेतावनी बनकर उभरते हैं। जी हां, यह सभ्यता खुद को नष्ट करने के मार्ग पर कई पड़ाव तय कर आयी है।

बारूद और वायरस के ढेर पर बैठी इस सभ्यता काशैतानमुसकुराने लगा है। वह देख रहा है कि मनुष्य प्रकृति से खेलतेखेलते विनाश के कगार पर पहुंचा। कैसी कारसाजी है? पहाड़ों को काट डाला, नदियों को सोख डाला, धरती को छेद डाला, घर को दुकान और नगर को बाजार बना डाला। बच गये गांव तो उन्हें निर्जन कर डाला। लॉकडाउन के इन दिनों में शहरों के सन्नाटे पर नजर डालिये। अगर कहीं दोचार पेड़ बचे रहे गये दिखें, तो उनके आसपास क्षणभर ठहरकर सुनिये। कुछ बची रह गयी चिड़ियों की चहचहाहट सुनायी पड़ेगी। मनुष्य की व्यस्तता और मनुष्यता के विकास की गुंजार के स्वर जरा चुप हैं, तो सुनिये, प्रकृति का अपना राग सुनायी पड़ेगा। देखेअनदेखे जीवों की गतिविधियां, पत्तों की सरसराहट और दूरदूर तक व्याप्त शांति का सन्नाटा सुनकर लगेगा कि अरे, हम ही नहीं हैं, ये भी हैं। हवा में ताजगी मिलेगी। रेलों, बसों और दुपहियाचारपहिया वाहनों के चक्के थम गये हैं तो डीजलपेट्रोल और उनके धुंए की गंध गायब हैं। वातावरण में वायरस के खौफ के साथसाथ गहरी ली जा सकने वाली सांसों का सुख भी है। अपनी बेतरह और बेहिसाब भागमभाग और अनिर्दिष्ट उद्देश्यों तक अपनी पहुंच बनाने की जद्दोजहद ने मनुष्य को मशीन में तब्दील कर दिया है। ऐसा नहीं है कि सड़कों के शांत होने के बाद ये जो चिड़ियों की आवाजें सुनायी पड़ रही हैं, वे आवाजें थी ही नहीं; वे थीं लेकिन विकास के गगनभेदी नाद तले प्रच्छन्न, अनसुनी और आभासितसी थीं। गांधी चाहते थे कि सुनियोजित विकास के कदम देश के गांवों का रुख करें।

अनियंत्रित बसावट और गांव के शोषण पर आधारित शहरों के जीवन विकास की तरफ देखकर गांधी ने विश्व को चेताया था कि अपने देशों की देह पर ये थोड़े चमकते और ज्यादा बजबजाते हुए शहर मत खड़े करो। एक दिन ये शहर देश की देह पर फोड़े की तरह दुखेंगे। दुनिया तो गांधी को अब पढ़ रही है, समझने की कोशिश कर रही है लेकिन भारत ने तो गांधी को पैदा किया है। इस मिट्टी में गांधी का खून और पसीना, चिन्तन और विचार, योजनाएं और काम सब शामिल हैं। इस मिट्टी को तो विश्व बिरादरी का पथरोशन करना था, लेकिन हमने उसी शैतानी सभ्यता का अंधानुगामी बनना स्वीकार किया। केवल स्वीकार किया, बल्कि उसी पागल दौड़ में शामिल हो गये, जिसके खिलाफ कहे गये गांधी के शब्द कालांतर में ब्रह्मवाक्य साबित हुए—‘अपनी आवश्यकताएं बढ़ाते रहने की पागल दौड़ में जो लोग आज लगे हैं, वे निरर्थक मान रहे हैं कि इस तरह वे अपने सत्व और सच्चे ज्ञान में वृद्धि कर रहे हैं। उन सबके सामने यह सवाल पूछने का समय एक दिन जरूर आयेगा कि ये हम क्या कर बैठे? एक के बाद अनेक संस्कृतियां आयीं और गयीं, लेकिन प्रगति की बड़ीबड़ी बड़ाइयों के बावजूद भी मुझे बारबार पूछने का मन होता है कि यह सब किसलिए?’ गांधी के दिये इस आलोक की लौ हमने अपने ही हाथों से बुझा दी और अंध विकास की पागल दौड़ में खुद को विश्वविनाशक बाजार के हवाले कर दिया। आज स्वर्ग के सारे सुख धरती पर ही उपलब्ध करा देने के दंभ में बाजार की छाती फूली जा रही है और शैतान हंस रहा है। इस अट्टहास को कोई सुनना नहीं चाहता, जो त्रासद विनाश की पूर्व सूचना भर है।

इस सभ्यता की ऊंचाई अब आकाश छूने लगी है और हमारी आंखें कंगूरों पर ही लगी हैं। शैतान की लपलपाती हुई जीभ इधर पांवों में अपना जहर बांटने के काम में चुपचाप लगी हुई है। कभीकभी एक शोर उठता हैसुनामी और भूकंप और कोरोना की आवाजें अभी कम पड़ रही है, गांधी का बनाया ब्लू प्रिंट फैलता ही जाता है। देख पाने वालों की आंखों में जो दोष गया है, पीढ़ियां उसकी पहचान करने से कतरा रही हैं। बिल्ली झपट्टा मारने ही वाली है और कबूतर ने आंखें बंद कर रखी हैं। आंखें बंद करके देखे जाने वाले सपने जीवंत नहीं, आभासी होते हैं। यह चित्र मानवता के भवितव्य की ओर संकेत करता है। सत्य से आंखें चुराना भी शैतानी सभ्यता के नियम हैं।

इधर शैतानी और बाजारू सभ्यता का दुर्निवार सत्य पांव जमा कर खड़ा है। बचने की राह तलाशे या नहीं, यह सभ्यता सोचे, क्योंकि विकास तो उसका ही होना है। सत्यशोधक की भूमिका के साथ न्याय करके, अपने प्रति अन्याय पीकर गांधी जा चुके हैं। पर कहते हैं कि विचार नहीं मरते। एक विचार पुंज है, जिसमें जीवन की सभी संभावनाएं निहित हैं। देश की व्यवस्था पर यह लांछन है कि वह अपने लिए जब मॉडल ढूंढती है तो उसे कभी माक्र्स दिखते हैं, कभी लेनिन, कभी हो ची मिन्ह, तो कभी कोई, तो कभी कोई। उसे केवल गांधी का मॉडल नहीं जमता। सत्य नहीं जमता, अहिंसा नहीं जमती इसलिए यह सब कहने वाला भी नहीं जमता। यह सब होते हुए भी, वह गांधी ही है, ‘जो मरने के बाद भी अपनी कब्र से बोलूंगाकहते हुए इस सभ्यता को रसातल में जाने से रोकने की अपनी हर कल्पना लिखकर जाता है। अपने देशवासियों को खाने, पहनने, रहनेयहां तक की पाखाना जाने का ढंग भी लिख कर बताता है। सरकारें तो कुछ नहीं मानतींr पर समाज भी क्यों नहीं मानता, यह बड़ा सवाल है।

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