विकास दुबे का जीवन और मौत राज्य की सता में गिरावट और पुलिस के राजनीतिकरण का परिचायक

जूलियो रीबेरो 

विकास दुबे को शैतान बनना ही  था। वर्ष 1953 में जब मैंने पुलिस फोर्स ज्वाइन की थी तो ये सोंचना भी सम्भव नहीं था कि इस तरह का दुर्दांत अपराधी भारत में पनप सकता है। उस समय भी अपराधी होते थे लेकिन वो गैंग चलाने तक सीमित रहते थे। वो पुलिस से डरते थे और अधिकारियों का सम्मान करते थे। कोई भी अपराधी पुलिस पर हमला करने की नहीं सोच सकता था, खासकर सीनियर अधिकारी द्वारा नेतृत्व की जा रही पुलिस टीम पर तो बिल्कुल भी हमला नहीं कर सकता था।

इन परिस्थितियों में ऐसा कैसे हुआ कि उत्तर प्रदेश के महज एक या दो जिलों में सिमटे विकास दुबे ने पुलिस बल पर इस तरह हमला कर दिया। इसका उत्तर खोजना कठिन नहीं है। न्यायिक प्रक्रिया की सुस्ती और सरकारी संस्थाओं के राजनीतिकरण को सिस्टम से बाहर रहने वाले लोग भी समझ गए हैं और इसका फायदा उठाते हैं।

कानून तोड़ने वाले हर व्यक्ति के लिए पुलिस ही सबसे पहली अड़चन होती है। विवेचक, क्रिमिनल लॉयर, जज उसके बाद क्रमिक रूप से आते हैं। अगर उसने पहली इकाई यानि पुलिस को पैसे या राजनीतिक प्रभाव से अपने पक्ष में कर लिया तो संबंधित एसएचओ के पास उसके खिलाफ मुकदमा न लिखने के हजारों बहाने होते हैं। और अपराधी खुलेआम कानून का उल्लंघन करते रहते हैं।

यदि किसी मामले में मुकदमा पंजीकृत भी हो जाता है तो उसकी विवेचना शुरवात से ही शिथिल कर दी जाती है। गवाहों के बयान नहीं होते और डिफेन्स को केस की धज्जियां उड़ाने का मौका दिया जाता है। एसएचओ और विवेचना अधिकारी अपराधी को बचाने की हर सम्भव कोशिश करते हैं, जिससे उनके राजनीतिक गुरु खुश रहें। अगर किसी अधिकारी को उसके संरक्षणदाता द्वारा पोस्टिंग दिलाई जाती है तो वो उसके प्रति ईमानदार रहता है। ये अक्सर होता है।

राजनेता पहले पुलिस के काम या विवेचना में हस्तक्षेप नहीं करते थे। आजादी के चार दशक बाद ये सब शुरू हुआ। अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि खासकर महाराष्ट्र में राजनेताओं ने हस्तक्षेप करना शुरू क़िया। उत्तर भारत के राज्यो को लेकर ठीक से टिप्पणी नहीं कर सकता हूँ। हालांकि राजनेताओं द्वारा भ्रष्ट अधिकारियों को संरक्षण देना पहले भी जारी रहा होगा लेकिन मुंबई के बारे में दावे से कह सकता हूँ कि यह सब 80 के दशक में ही शुरू हुआ।

अपराधी चुनाव के दौरान राजनेताओं को सिर्फ पैसे से ही मजबूत नहीं करते हैं बल्कि बाहुबल से भी मदद करते हैं। इनकी मदद लेना राजनीतिक दल अपनी शान समझते हैं। चूंकि अपराधी ट्रांसफर और पोस्टिंग में हस्तक्षेप करते हैं इसलिए वह पुलिस अफसरों की और पुलिस अफसर उनकी सहायता करते हैं। जब एक बार किसी राजनीतिक हस्तक्षेप से किसी अधिकारी को पोस्टिंग मिलती है तो वो उनके सभी काम करता है। अक्सर पुलिस के मुखिया की नियुक्ति में राजनैतिक हस्तक्षेप होता है।

ये सभी राज्यों और पूरे देश में हो रहा है। मेरे गृह जनपद में राजनेता अभी भी अधिकारियों की इज़्ज़त करते हैं और उनके आत्म सम्मान का ध्यान रखते हैं। यदि पुलिस का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ मे रहे जिन्हें अपने आत्म सम्मान की चिंता हो तो अपराधी को पनपने का मौका ही न मिले। लेकिन राजनेता काफी शक्तिशाली होते हैं। वह ट्रांसफर, पोस्टिंग यानि अंतवोगत्वा फोर्स की परफॉर्मेंस का निर्णय लेते हैं।

पुलिस के राजनीतिकरण के चलते गुड़-गवर्नेंस के कई मानदण्डों की अनदेखी होती है। इससे अपराध पनपता है। विकास दुबे, पुलिसकर्मियों को अपनी राजनीतिक और पुलिसिया पहुंच के चलते सम्मान नहीं देता था।यदि उस पर पहले अपराध के समय ही ठीक से कार्रवाई की जाती तो वह इतना बड़ा अपराधी नहीं बनता।

राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने अस्सी के दशक में सीनियर अधिकारियों की पोस्टिंग को लेकर एक प्रक्रिया सुझाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अपनी सहमति दी है। लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इस तरह की पुलिसिंग को लागू करने की इच्छाशक्ति नहीं रखता है। जब तक यह जारी रहेगा, विकास दुबे जैसे अपराधी सामने आते रहेंगे।

विकास दुबे के अंत की कई लोगों ने कल्पना की थी। वह पुलिस अभिरक्षा से फरार होने की कोशिश में मारा गया। किसी को भी पुलिस का ये स्पष्टीकरण गले नहीं उतर रहा है और कोई भी यूपी पुलिस या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की प्रशंसा नहीं कर रहा है। योगी आदित्यनाथ ने खुलेआम एनकाउंटर के जरिये अपराध पर सफल नियंत्रण की बात कही थी। वह यह भूल गए कि इस तरह के तरीके अपनाकर वह पुलिस को कानून तोड़ने का मौका दे रहे हैं।

लेखक एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी हैं. वह मुंबई के पुलिस कमिश्नर और गुजरात तथा पंजाब के पुलिस महानिदेशक के अलावा रोमानिया  में भारत के राजदूत रह चुके हैं. 

(साभार: इंडियन एक्सप्रेस)

(इसका हिंदी अनुवाद पत्रकार सुधांशु सक्सेना द्वारा किया गया है)

 

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