बुंदेलखंड़ : लॉकडाउन की निशानी रिक्शा को सहेज कर रखना चाहता है ‘रामचरन’

महोबा (उप्र)। वैश्विक महामारी कोरोनावायरस को रोकने के लिए लागू राष्ट्र व्यापी ‘लॉकडाउन’ लाखों प्रवासी मजदूरों के लिए आफत बन गया। लाखों की तादाद में विभिन्न महानगरों से प्रवासी मजदूर हजार किलोमीटर पैदल या साइकिल से सफर कर अपने घर जाने को मजबूर हुए, इन्हीं प्रवासी मजदूरों में बुंदेलखंड़ के महोबा जिले के बरा गांव का रामचरन भी शामिल है, जो अपने नौ सदस्यीय रिश्तेदारों को रिक्शा में लादकर दिल्ली से बरा गांव तक लाया। अब वह इस ‘रिक्शा’ को लॉकडाउन की निशानी के तौर पर जीवन भर सहेज कर रखना चाहता है।

महोबा जिले के कबरई विकास खण्ड के बरा गांव का रामचरन (40) पेशे से मजदूर है। उसकी कहानी सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। रामचरन के अनुसार, जनवरी के प्रथम सप्ताह में कैंसर की बीमारी से पत्नी चंदा की मौत के बाद उसके इलाज में खर्च हुए कर्ज के करीब एक लाख रुपये चुकता करने की गरज से अपने छह साल के बच्चे को लेकर साढू (रिश्तेदार) व भतीजे के परिवार के साथ बेलदारी की मजदूरी करने दिल्ली चला गया था। लेकिन, उसे क्या मालूम था कि लॉकडाउन से सब कुछ चौपट हो जाएगा और उसे घर वापसी के लिए इतनी बड़ी जद्दोजहद करनी पड़ेगी। दिल्ली जाने से पूर्व वह अपनी पांच साल की बच्ची आरती और 12 साल के बेटे दयाशंकर को 65 वर्षीय मां रज्जी के पास घर में छोड़ गया था।”

सिर्फ दो बीघे जमीन का खेतिहर रामचरन बताता है कि “पत्नी चंदा काफी समय से कैंसर की बीमारी से ग्रसित थी और इसी साल जनवरी के प्रथम सप्ताह (मकरसंक्रांति के पूर्व) इलाज के अभाव में उसकी मौत हो गयी है।” उसने बताया कि “गांव में साहूकारों से पांच रुपए प्रति सैकड़े ब्याज की दर से एक लाख रुपये कर्ज लेकर उसका (पत्नी) इलाज भी करवाया, लेकिन बाद में पैसे के अभाव में इलाज बंद हो गया और उसकी मौत हो गयी। यही कर्ज भरने के लिए मकरसंक्रांति के बाद वह अपने छह साल के बेटे रमाशंकर को लेकर मजदूरी करने दिल्ली चला गया और वहां मकान निर्माण में बेलदारी की मजदूरी करने लगा था।” रामचरन ने बताया कि “कोरोना महामारी के फैलाव को रोकने के लिए अचानक 25 मार्च से लागू लॉकडाउन से उसकी मजदूरी बंद हो गयी और एक हफ्ते तक तो किसी तरह गुजर गए, लेकिन इसके बाद बच्चे तक को तीन दिन रोटी नहीं नसीब हुई।”

बकौल रामचरन, “लॉकडाउन घोषित होने पर सभी प्रकार के वाहन बंद हो गए थे और साथी मजदूर पैदल अपने घरों को वापस होने लगे थे। ऐसी स्थिति में वह अपने भवन निर्माण के ठेकेदार से मदद मांगी, लेकिन उसने उसे गांव लौटने के लिए बालू-सीमेंट ढोने वाला एक ठेलियादार रिक्शा मुफ्त में दे दिया था।” वह बताता है कि “इसी रिक्शा में वह और उसका साढू मुन्नीलाल (35), उसकी पत्नी नीलम व बेटा मंगल (5), और भतीजा जगत (20) उसकी पत्नी व दो बच्चे कुछ गृहस्थी का सामान लादकर सात मई को दिल्ली से चले और 14 मई को घर पहुंचे थे।”

एक सवाल के जवाब में रामचरन ने बताया कि “करीब छह सौ किलोमीटर के सफर में कई जगह पुलिस ने उनपर डंडे भी बरसाए, लेकिन कोसीकला की पुलिस ने इंसानियत दिखाई थी। वहां की पुलिस ने सभी नौ लोगों को खाना खिलाने बाद रिक्शा सहित एक ट्रक में बैठाकर आगरा तक भेजा भी था। फिर आगरा से गांव तक सभी नौ लोग रिक्शा से ही घर आये।” वह बताता है कि “बारी-बारी से तीनों पुरुष रिक्शा खींचते थे, कई बार दोनों महिलाओं ने भी रिक्शा खींचा था।”

रामचरन कहता है कि “यह रिक्शा लॉकडाउन की ‘निशानी’ है। यदि यह रिक्शा न होता तो वह रिश्तेदारों के साथ दिल्ली में ही फंसा रहता और अपने घर न आ पाता। इसीलिए इसे जीवन भर सहेज कर रखूंगा और इसे सपने भी किसी को हाथ नहीं लगाने दूंगा।”
जब रामचरन से यहां गांव में काम मिलने के बारे में पूछा गया तो उसने बताया कि “14 मई के बाद से अब तक ग्राम प्रधान ने मनरेगा में काम नहीं दिया। हां, एक दिन गांव के गुंदी कुशवाहा के ईंट भट्ठे में काम मिला है, जिसके बदले तीन सौ रुपये मजदूरी दी गयी है। दिल्ली से लौटने के बाद वह बेरोजगार होकर घर में बैठा है। एक राशन कार्ड बना है, जिसमें हर माह पांच किलोग्राम गेहूं या चावल कोटेदार से मिलता है, जिससे पांच सदस्यों वाले परिवार का एक माह पेट नहीं भरा जा सकता।”

बरा गांव के ग्राम प्रधान भगवानदास श्रीवास ने कहा कि “रामचरन के पास मनरेगा में काम करने के लिए जॉब कार्ड नहीं बना है, इसलिए उसे काम नहीं मिल पा रहा है। गांव में कुल 448 जॉब कार्ड बने हैं। यहां गांव में छोटे-बड़े 168 प्रवासी मजदूर लौट कर आये हैं, इनमें 50-60 मजदूर मनरेगा योजना में मिट्टी खोदाई का काम कर रहे हैं।”
-आर जयन, मो0-9628634628, 9452868452, WhatsApp-945463612
फोटो-दिल्ली से गांव आने के लिए रिक्शा खींचता प्रवासी मजदूर रामचरन

=महोबा से आर.जयन की रिपोर्ट

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