सस्ती एवं निरापद उपचार चिकित्सा पद्धति की प्रतीक्षा

प्रकृति की शरण में ही स्वास्थ्य की कुंजी

प्रो. आर के शर्मा ,

एक्युप्रेशर शोध प्रशिक्षण एवं उपचार संस्थान प्रयागराज

आखिर हम क्यों मजबूर हैं स्वास्थ्य के नाम पर ठगने को ? महंगी निदान प्रक्रिया एवं दवाओं के प्रयोग के बावजूद गंभीर रोगों की ओर अग्रसर होते जा रहे हैं। चिकित्सक के पास सामान्य बीमारियों के लिये जाते हैं तथा अपना सब कुछ खोकर गंभीर रागों से होते हुए अंग प्रत्यारोपण जैसी स्थिति में पहुॅच जाते हैं।ऐसे में सरकार को जन सामान्य के लिये कम खर्चीली निरापद वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों की उपेक्षा करना कितना उचित है? क्या सरकार को ऐसी चिकित्सा पद्धतियों का प्रचार प्रसार एवं विकास हेतु उचित बजट का प्रावधान नहीं करना चाहिये। 

समय के साथ साथ मनुष्य की प्राथमिकतायें बदलती रहती हैं। आज बीमारियां एक बड़ी चुनौती के रूप में सबके सामने खड़ी हैं। इस प्रकार स्वास्थ्य मनुष्य  की पहली प्राथमिकता है। प्रति दिन समाचार पत्रों एवं चैनलों के माध्यम से पता चलता है कि सरकारें स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध कराने में असफल हैं ऐसे में प्रश्न  उठता है कि हम किस प्रकार स्वयं को स्वस्थ रख पायें।

सबसे पहले हमें स्वास्थ्य के असंतुलन के कारकों को पहचानना होगा। स्वास्थ्य असंतुलन का पहला और प्रमुख कारण है- प्रकृति से दिन प्रति दिन मनुष्य की दूरी। जैसे जैसे मनुष्य प्रकृति से दूर जा रहा है वैसे वैसे बीमारियों के नजदीक जा रहा है। इस बात को हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि हमारा शरीर भारतीय दर्शन  र्के अनुसार पंच तत्वों, आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी से मिल कर बना है और पांचों तत्व प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं।जब हम प्रकृति के नजदीक होते हैं तो इन पाचों तत्वों का समायोजन हमारे शरीर में होता रहता है और हमें स्वस्थ दीर्घायु प्राप्त होती है लेकिन जब हम प्रकृति से दूर होते हैं तो इन पंचतत्वों के असंतुलन से अस्वस्थता प्राप्त होती है। 

इस प्रकार प्रकृति की शरण में ही स्वास्थ्य की कुॅजी है और मनुष्य  को निष्चित रूप से प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों को स्वास्थ्य हेतु प्राथमिकता के रूप में अपनाना होगा। आज बहुत सारी चिकित्सा पद्धतियां प्रचलन में हैं जैसे जलतत्व, मिट्टी तत्व, वायु तत्व, अग्नि तत्व, आकाष तत्व, आहार चिकित्सा, एक्यूप्रेशर चिकित्सा, मर्मदाब चिकित्सा, योग चिकित्सा, यज्ञ चिकित्सा, गौमूत्र चिकित्सा, होमियोपैथी आदि।

उपरोक्त चिकित्सा पद्धतियों को मुख्य चिकित्सा पद्धति एैलोपैथ के विकल्प के रूप में प्रयोग किये जाने से इन्हे वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों का स्थान मिला है। किन्तु मेरा मानना है कि इन चिकित्सा पद्धतियों को अस्वस्थ होने पर सबसे पहले प्रयोग करना चाहिये। विडम्बना यह है कि हम इनका प्रयोग किये बिना सबसे पहले एैलोपैथ कीशरण में जाते हैं और बाद में बीमारी की अंतिम अवस्था में इन पद्धतियों की ओर रुख करते हैं। यदि इन पद्धतियों को बीमारी की प्रारम्भिक अवस्था में ही प्रयोग करें तो शीघ्र स्वस्थ हो सकते हैं तथा अपना आर्थिक बजट भी संतुलित रख सकते हैं। सरकारें यदि इन पद्धतियों को प्रमुखता दें तो स्वास्थ्य बजट को भी काफी कम किया जा सकता है। कई गैरसरकारी सस्थायें इस पर कार्य कर रही हैं सरकार को भी इनके प्रति जागरुकता लाने की आवश्यकता है। अब प्रश्न  यह है कि इतनी सारी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों में से किसे अपनायें? मेरे दृष्टि कोण से योग एवं एक्यूप्रेशर के साथ आहार चिकित्सा को प्राथमिकता देनी चाहिये क्योंकि इन तीनों के लिये किसी अतिरिक्त संसाधन की कोई आवश्यकता नहीं है तथा यह सरल, कम खर्चीली एवं दुष्प्रभाव प्रभाव रहित हैं। यह पद्धतियां पंचतत्वों के सिद्धांत पर कार्य करती हैं। एक्यूप्रेशर / मर्मदाब चिकित्सा में शरीर तथा हथेली के कुछ बिन्दुओं पर हलके दबाव मात्र से शरीर के पंचतत्वों का सामंजस्य स्थापित करके स्वस्थ हुआ जा सकता है।एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति पर एक्यूप्रेशर शोध , प्रशिक्षण एवं उपचार संस्थान, इलाहाबाद दीर्घ समय से कार्य कर रहा है तथा गंभीरतम असाध्य बीमारियों के उपचार में भी सफलता प्राप्त कर रहा है। डब्लू.एच.ओ. ने असाध्य बीमारियो की सूची जारी की है जिनमें अस्थमा, अर्थराइटिस, रुमेटाइड अर्थराइटिस, डायबिटीज, मिर्गी, एड्स, मैकुलर डीजनरेषन, मल्टिपल स्केलरोसिस, मस्कुलर डिस्ट्राॅफी, मायस्थेनिया ग्रेविस, पार्किन्सन, सोरिएसिस, आस्टियोपोरोसिस, उच्च रक्तचाप आदि हैं। ऐसी बीमारियों में जीवनपर्यंत दवाओं का सेवन करना पड़ता है। ऐसे में दवाओं का दुश्प्रभाव भी दिखाई पड़ता है। जागरुकता के अभाव में हम सही पद्धतियों का चुनाव नहीं कर पाते हैं। इन बीमारियों में डायबिटीज एवं उच्च रक्तचाप के रोगियों की संख्या सर्वाधिक है।

यदि हम इन्टरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन के आँकड़ों पर ध्यान दें तो वर्ष  2017 में केवल भारत में 72 मिलियन डायबिटीज के रोगी थे। इंडिया डायबिटीज का अध्ययन बताता है कि भारत में कुल आबादी का 7.3 प्रतिशत अथवा 69.2 मिलियन

आबादी डायबिटिक है, 10.3 प्रतिषत संख्या डायबिटिक होने के कगार पर है एवं 43.7 प्रतिषत संख्या डायबिटिक है जिनकी डायग्नोसिस  नहीं हो पाती है। डब्लू.एच.ओ. के अनुसार 14.11.2017 के आॅकड़े बताते हैं कि भारत 31.7 मिनियन डायबिटिक रोगियों के साथ विश्व में शिखर पर है तथा यह संख्या 2030 तक 79.4 मिलियन यानि ठीक दोगुनी हो जायगी। अब इन आॅकड़ों की बात करें तो क्या यह विश्वसनीय है। कुछ विषेशज्ञ बताते है कि चिकित्सा क्षेत्र में दो तरह के मानक हैं एक स्वास्थ्य चिकित्सा की तरफ से एवं दूसरा स्वास्थ्य क्षेत्र की कम्पनियों की तरफ से। स्वास्थ्य कम्पनियों के मानक दवाओं की बिक्री को ध्यान में रखकर निर्धारित किये जाते हैं तथा स्वास्थ्य चिकित्सा के मानक स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर जारी किये जाते हैं जैसे अमेरिकन डायबिटीज एसोसियेशन के अनुसार फास्टिंग ब्लड ग्लूकोज स्तर 90 से 130 एम.जी/डी.एल. है तथा खाने के दो घंटे बाद का ब्लड ग्लूकोज स्तर 180 एम.जी/डी.एल. से कम है। लेकिन चिकित्सा जगत में यह देखा जा रहा है कि फास्टिंग ब्लड ग्लूकोज स्तर 80 से 110 एम.जी/डी.एल. तथा खाने के दो घंटे बाद 140 एम.जी./डी.एल. तक माना जा रहा है। इस प्रकार जो व्यक्ति अमेरिकन डायबिटीज एसोसियेशन के अनुसार डायबिटिक नहीं है वह भी इस श्रेणी में आ जा रहा है एवं दवाआओं का सेवन प्रारम्भ कर देता है। इसकी भी सही जानकारी लोगों तक पहुंचे इसका प्रबंध सरकार को करना चाहिये। डायबिटीज एक ऐसी समस्या है जो गंभीर बीमारीयों की जनक है जैसे -, हृदय रोग, मस्तिष्क  आघात एवं किडनी  प्रत्यारोपण तक पहुॅचा देती है। रोगी धीरे- धीरे मृत्यु की तरफ बढ़ता जाता है।

हम इस विवाद में न पड़ कर केवल इतना कहेंगे कि यदि सरकार सचमुच में ऐसी समस्याओं से निजात चाहती है तथा स्वस्थ समाज की स्थापना करना चाहती है तो इन प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों एक्यूप्रेशर , योग एवं आहार आदि के माध्यम से इन बीमारियों पर नियंत्रण पा सकती है। यह चिकित्सा पद्धतियां स्वास्थ्य के सभी आयामों सामाजिक, शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वास्थ्य की पुर्नस्थापना करने में सक्षम हैं।  एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति में बिना दवा खाये डायबिटीज, उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों का प्रत्येक रोगी अपना उपचार सीख कर स्वयं ही कर सकता है तथा स्वयं का चिकित्सक बन सकता है।साथ ही यह चिकित्सा पद्धति स्वरोजगार परक भी सिद्ध हो सकती है केवल सरकार के ध्यानाकर्षण  की आवश्यकता है।

 

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