विश्व झरोखा : कोई उम्मीद बर नहीं आती – लंदन से शिव कांत
शिव कांत ,
बीबीसी हिंदी रेडियो के पूर्व सम्पादक , लंदन से
संयुक्त राष्ट्र के चार्टर ने पिछले सप्ताह अपने 75 साल पूरे कर लिए हैं. दुनिया इन 75 वर्षों में पूरी तरह बदल चुकी है. हवाई यातायात, पर्यटन, विश्व व्यापार और सूचना क्रांति ने दूरियाँ कम की हैं. जीवन स्तरों में सुधार हुआ है. लोकतंत्र और बाज़ारवाद का प्रसार हुआ है. वैश्वीकरण की लहर में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबदबा बढ़ रहा है. संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं की बदौलत पिछले 75 वर्षों में कोई विश्वयुद्ध नहीं हुआ है. लेकिन बढ़ते शहरीकरण, वैश्वीकरण और सामाजिक विषमताओं के चलते और कई विश्वव्यापी संकट खड़े हो गए हैं जिन के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र और उसकी संस्थाएँ अक्षम नज़र आने लगी हैं. जैसे जलवायु संकट, साइबर सुरक्षा, आतंकवाद और कोविड-19 की महामारी जिससे इस समय सारी दुनिया जूझ रही है. लेकिन उससे भी गंभीर संकट है, संयुक्त राष्ट्र की स्थापना करने वाले अमरीका के बढ़ते रोष और चीन की महत्वाकांक्षा का.
संयुक्त राष्ट्र की विभिन्न संस्थाओं के ख़िलाफ़ अमरीका का रोष लगातार बढ़ रहा है. अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय को उसने कभी नहीं माना और हाल में उसके अधिकारियों और जजों पर प्रतिबंध लगा दिए हैं ताकि अफ़ग़ानिस्तान में अमरीकी सैनिकों के मानवाधिकार हनन की छानबीन न की जा सके. पिछले साल अमरीका ने विश्व व्यापार संगठन में व्यापारिक विवादों का निपटारा करने वाली याचिका अदालत के जजों की नियुक्ति को रोक कर विश्व व्यापार संगठन को बेमानी बना दिया. इस साल उसने कोविड-19 की महामारी पर विश्व स्वास्थ्य संगठन के कामकाज को लेकर उससे हाथ खींच लिया है. वह संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन संधि को भी मानने को तैयार नहीं है और संयुक्त राष्ट्र के पूरे कामकाज और अनुदान प्रक्रिया पर सवाल उठाता है.
दूसरी तरफ़ चीन संयुक्त राष्ट्र संधियों का उल्लंघन करने और उनकी कमज़ोरियों का फ़ायदा उठाने में लगा रहता है. जैसे विश्व व्यापार संगठन के नियमों का उल्लंघन करते हुए अपने निर्यातों को बढ़ावा देने के लिए अपनी कंपनियों को गुप्त रूप से सब्सिडी देना. अपने शिनजियाँग और तिब्बत जैसे तथाकथित स्वायत्त प्रांतों में मानवाधिकारों को ताक पर रखकर विरोधियों को बंदी शिविरों में डालना. हाँग-काँग की स्वायत्तता की संधि का उल्लंघन करते हुए वहाँ पर अपने सुरक्षा नियमों को लगाने की कोशिश करना. अंतर्राष्ट्रीय ट्राइब्यूनल के फ़ैसले के बावजूद दक्षिण चीन सागर को अपना बता कर वहाँ वियतनाम और फ़िलिपीन्स जैसे दूसरे देशों के जहाज़ों पर हमले करना. कोविड-19 महामारी को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन को अँधेरे में रखना और भारत से लगने वाली वास्तविक नियंत्रण रेखा पर घुस पैंठ करना और रोके जाने पर गोली-बारूद न चलाने के शांति समझौते का उल्लंघन करते हुए जुगाड़ू हथियारों से हमला करके बीस सैनिकों को मार डालना.
भारतीय सीमा पर किए हमले के बाद से अमरीका और यूरोप भर के समाचार माध्यमों में छप रहे चीन विरोधी लेखों की कड़ी में पिछले सप्ताह जर्मनी के पूर्व विदेशमंत्री जोश्का फ़िशर, हाँग-काँग के पूर्व गवर्नर क्रिस पैटन और स्तंभकार हैनरी ऑल्सन और फ़रीद ज़कारिया के लेख छपे हैं जिनमें चीन की इन हरकतों की कड़ी निंदा करते हुए चीन पर अंकुश लगाने के उपाय सुझाए गए हैं. जोश्का फ़िशर का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र का अमरीकी सिरदर्द तो शायद नवंबर के राष्ट्रपतीय चुनाव में ट्रंप के साथ ही दूर हो जाएगा. असली सिरदर्द चीन साबित होने वाला है. क्रिस पैटन ने चीन की शी जिनपिंग सरकार की आक्रामक नीतियों की तुलना सन 1911 की विलहेल्म जर्मन सरकार से की है. उन दिनों जर्मनी ने मोरोक्को निशाना बना कर ब्रिटन और फ़्रांस को भिड़ाने की चाल चली थी जो जर्मनी के ख़िलाफ़ पहले विश्वयुद्ध का कारण बनी. उसी तरह चीन इस समय ताईवान, वियतनाम और भारत से झगड़ा मोल लेकर अमरीका को ललकारने की कोशिश कर रहा है.
न्यूयॉर्क टाइम्स के ब्यूरो चीफ़ स्टीवन ली मायर्स ने अपने लेख में लिखा है कि चीन छेड़ भले ही ताईवान, हाँग-काँग, जापान, वियतनाम और भारत को रहा हो लेकिन उसका असली निशाना अमरीका है. चीनी शी जिनपिंग सरकार को लगता है कि दक्षिण चीन सागर, ताईवान जलडमरूमध्य और लदाख़ से अमरीका का कोई लेना देना नहीं है. चीन अपने प्रभाव क्षेत्र को व्यापार और रणनीति के सहारे फैलाना चाहता है. उसका बैल्ट एंड रोड़ या BRI अभियान उसकी व्यापार नीति का सिरमौर है और उसकी हिफ़ाज़त के लिए दक्षिण चीन सागर और अक्सई चिन में किसी भी तरह की संभावित चुनौती को नाकाम करना उसकी रणनीति की ज़रूरत है. इससे पहले कि अमरीका, भारत-जापान और ऑस्ट्रेलिया को लामबंद करके चीन का घेराव करे, चीन अपनी सुरक्षा की ऐसी व्यूह रचना कर लेना चाहता है जिसके चलते यह लामबंदी बेकार हो जाए.
लेकिन वॉशिंगटन पोस्ट के लेख में फ़रीद ज़कारिया का मानना है कि शी जिनपिंग की यह आक्रामक रणनीति चीन की एक बहुत बड़ी भूल है. चीन के विकास की कहानी डंग शियाओपिंग के, ताकत का प्रदर्शन न करते हुए चुपचाप आगे बढ़ने के सिद्धान्त से शुरू हुई थी. बाद में पूर्व राष्ट्रपति हू जिन्ताओ ने उसे शांत महाशक्ति के विकास के रूप में परिभाषित किया. लेकिन जिस तरह चीन पूरी दुनिया को कोविड-19 की महामारी में उलझा कर आक्रामक तेवर के साथ अपने प्रभाव क्षेत्र को फैलाने की कोशिश कर रहा है, उससे उसकी छवि शीत युद्ध के दिनों के सोवियत संघ जैसी हो जाएगी जो समाजवाद के नाम पर तानाशाही फैलाने की वजह से दुश्मनों से घिर गया था. लेकिन दोनों में एक बड़ा अंतर है. सोवियत संघ ने आर्थिक शक्ति बढ़ाए बिना सैनिक और वैचारिक शक्ति के बल-बूते पर प्रभाव क्षेत्र फैलाने की कोशिश की थी. चीन पहले आर्थिक शक्ति जुटा कर इस काम में लग रहा है. इसलिए उसे सोवियत संघ की तरह आसानी से घेर पाना मुश्किल होगा.
वॉशिंगटन पोस्ट में ही छपे लेख में हेनरी ऑल्सन ने लिखा है कि चीन पर अंकुश लगाने के लिए अमरीका को अपने पूँजीवादी कट्टरवाद पर लगाम कसनी होगी. चीन ने अमरीका के बाज़ारवाद का फ़ायदा उठाते हुए कम दामों पर माल बेचकर दुनिया के बाज़ारों पर राज किया है. वह अमरीकी कंपनियों की तकनीक चोरी कराता है. लोगों से जानवरों की तरह काम करा कर और ज़रूरत पड़े तो सब्सिडी देकर कीमतें कम रखता है और व्यापार से कमाए धन का प्रयोग अपना उत्पादन बढ़ाने की तकनीकों में करता है ताकि उसका माल सस्ता रहे और बाज़ार में कोई उसका मुकाबला न कर पाए. इस तरह उसने अमरीका और यूरोप का सारा निर्माण उद्योग अपने यहाँ लगवा लिया है. भारत के साथ भी यही हुआ है. चीन ने पाँच साल पहले Made in China 2025 नाम की एक नीति बनाई थी. इस नीति का उद्देश्य चीनी गणतंत्र की स्थापना के शताब्दी वर्ष 2049 तक अंतरिक्ष, कृत्रिम बुद्धि, रोबोटिक्स, मशीनी ज्ञान, उन्नत कार, जैवतकनीकि, टैक और रक्षा अनुसंधान जैसे 10 अत्याधुनिक तकनीक के क्षेत्रों में वर्चस्व कायम करना है.
हेनरी ऑल्सन का कहना है कि चीन पर अंकुश लगाने के लिए अमरीका, यूरोप और उनके मित्र देशों को इन सभी क्षेत्रों में संरक्षणवादी नीतियाँ अपनानी पड़ेंगी. मुश्किल यह है कि अमरीका और यूरोप के कट्टर पूँजीवादी ही सबसे पहले इन नीतियों का विरोध करेंगे और कीमतें बढ़ने या व्यापार घटने की दलीलें देकर चीन के माल पर कोई शुल्क नहीं लगने देंगे. इसलिए चीन पर अंकुश लगाने वाले देशों को सबसे पहले अपने यहाँ के कट्टर पूँजीवादियों पर अंकुश लगाना होगा. उन्नत तकनीक के सामान को अपने यहाँ बनाने के लिए ऊँचे दाम देने के लिए तैयार होना होगा. थोड़ा पैसा उपभोक्ता वर्ग की जेबों से कामगर लोगों की जेबों में जाएगा, पर पैसा देश में ही रहेगा. मिसाल के तौर पर 5G तकनीक के मामले में अमरीका के साथ-साथ यूरोप और भारत को भी चीनी कंपनी हुआवे की तकनीक का बहिष्कार करना होगा.
चीन दुर्लभ रसायनों के अपने भंडार का प्रयोग एक हथियार के तौर पर करता है. अमरीका, यूरोप और भारत को इससे सबक लेकर चीन पर निर्भरता के विकल्प खोजने होंगे. मिसाल के तौर पर भारत का दवा उद्योग चीनी दवा-रसायनों पर निर्भर है. भारत को दवा-रसायनों और मशीनों के उन कल-पुर्ज़ों के उद्योग अपने यहाँ लगाने होंगे जो चीन से आते हैं. अमरीका में ट्रंप प्रशासन पिछले कुछ सालों से इसी प्रक्रिया में लगा है ताकि चीन के साथ चल रहा उसका व्यापार घाटा और अमरीकी उद्योगों की चीन पर निर्भरता कम हो. लेकिन डोनल्ड ट्रंप की नीतियों में तालमेल की कमी है.
पिछले सप्ताह उन्होंने H1B वीज़ा पर इस साल के अंत तक रोक लगा दी. उनका तर्क था कि वीज़ा रोकने से ये रोज़गार कोविड-19 से बेरोज़गार हुए अमरीकियों को मिल सकेंगे. लेकिन यह उनकी भूल है. H1B वीज़ा पर भारत और चीन से ऐसे प्रशिक्षित युवा आते हैं जो अमरीका में नहीं हैं. अमरीका की टैक कंपनियों ने नाराज़ होकर कहा कि अब उन्हें प्रशिक्षित लोगों के लिए कैनडा जाना पड़ेगा और ये नौकरियाँ कैनडा चली जाएँगी. भारत और चीन से H1B वीज़ा पर आने वाले लोग अपने ही देशों में रहकर नए धंधे खोलेंगे. टैक कंपनियों के मालिकों का कहना था कि इस तरह के फ़ैसलों से उल्टा भारत और चीन ग्रेट बनेंगे या फिर कैनडा ग्रेट बनेगा, अमरीका नहीं.
वैसे भारत के टैक स्नातकों को H1B वीज़ा पर लगी इस अस्थाई रोक से बहुत ज़्यादा दिन परेशान नहीं होना पड़ेगा. न्यूयॉर्क टाइम्स के नए लोकमत सर्वेक्षण के मुताबिक डोनल्ड ट्रंप चुनावी लोकप्रियता में अपने प्रतिद्वंद्वी डैमोक्रेटिक पार्टी उम्मीदवार जो बाइडन से 14 अंकों से पिछड़ चुके हैं. फ़्लोरिडा, पैंसिलवेनिया और मिशिगन जैसे निर्णायक छह स्विंग राज्यों में भी वे जो बायडन से काफ़ी पीछे चल रह हैं. इसलिए उनके चुनाव जीतने के आसार फीके पड़ रहे हैं. वैसे चार महीनों के भीतर चुनावी तस्वीर बदल भी सकती है. लेकिन चुनाव सर्वेक्षण विशेषज्ञों का कहना है कि इस बार निर्णायक राज्यों में गोरे कामगर समुदाय के वे लोग भी ट्रंप से नाराज़ हैं जिनके बल-बूते पर ट्रंप ने पिछला चुनाव जीता था. गोरे कामगर समुदाय में समर्थन का घटना ट्रंप के लिए सबसे बुरी ख़बर है. इसकी एक बड़ी वजह कोविड-19 महामारी पर काबू पाने में ट्रंप की नाकामी है.
महामारी पर काबू पाने के लिए दुनिया में सबसे ज़्याद टैस्ट करने और टीका बनाने के लिए पूरी ताकत झोंक देने के ट्रंप साहब के दावों के बावजूद कोविड-19 महामारी की सबसे बुरी मार अमरीका पर पड़ी है. दुनिया भर के एक करोड़ दो लाख से ज़्यादा लोगों को यह महामारी लग चुकी है जिनमें से साढ़े 26 लाख अमरीका में हैं. दुनिया भर में पाँच लाख चार हज़ार लोगों की महामारी से मौत हुई है जिनमें से 1,28,500 अमरीकी हैं. यानी बीमार होने वाले और मरने वालों में से हर चौथा इंसान अमरीका का है. अमरीका के लगभग आधे राज्यों में महामारी की लहर चल रही है. इसके बावजूद बाज़ार और यातायात खोल दिए गए हैं और लोग मास्क लगाने और शारीरिक दूरी रखने के सुझावों का पालन नहीं कर रहे हैं. इसी माहौल में राष्ट्रपति ट्रंप चुनावी रैलियाँ करते घूम रहे हैं जिनमें लोग उनकी देखा-देखी मास्क नहीं लगाते हैं.
यूरोपीय संघ के देश पहली जुलाई से हवाई यातायात खोल रहे हैं. लेकिन 27 देशों के राजदूतों ने अमरीका और रूस के हवाई यातायात को बंद करने का फ़ैसला किया है क्योंकि इन दोनों देशों में महामारी अब भी तेज़ी से फैल रही है. अमरीका के लिए विडंबना की बात यह होगी कि चीन से आने वाले यात्रियों को यूरोप आने की अनुमति होगी लेकिन अमरीका से आने वाले यात्रियों को नहीं. अमरीकी राष्ट्रीय दिवस के सप्ताह में यूरोप द्वारा लगाया जाने वाला यह यात्रा प्रतिबंध अमरीकियों को तमाचे जैसा लगेगा. लेकिन इस विडंबना के लिए ट्रंप अपने सिवा और किसी को दोष नहीं दे सकते. न्यूयॉर्क, न्यू जर्सी और कैनेटिकट राज्यों ने दक्षिणी राज्यों से आने वाले लोगों पर 14 दिनों तक क्वारंटीन में रहने की शर्त लगा रखी है. फ़्लोरिडा और टैक्सस जैसे दक्षिणी राज्यों में इतने ख़राब हालात हैं कि पाबंदियाँ फिर से लगानी पड़ रही हैं.
इसी सप्ताह अमरीका की मासिक रोज़गार रिपोर्ट भी आने वाली है जिससे अंदाज़ा लग सकेगा कि कारोबार खुलने से कितने लोगों को उनके रोज़गार वापस मिल सके हैं. पिछले तीन महीनों में लगभग सवा चार करोड़ से ज़्यादा लोग बेरोज़गारी भत्तों के लिए आवेदन कर चुके हैं. ट्रंप सरकार ने राहत के तौर पर लोगों को जो बारह सौ डॉलर के चैक दिए थे वे कभी के ख़र्च हो चुके हैं. रोज़गार विशेषज्ञों का मानना है कि कोविड-19 महामारी में बेरोज़गार हुए हर चार में से एक व्यक्ति के लिए रोज़गार का संकट खड़ा हो सकता है. क्योंकि तीन महीनों से कारोबार ठप है. कंपनियाँ, शहरी प्रशासन और कुछ राज्य प्रशासन भी दिवालिया होने वाले हैं.
यहाँ लंदन में चार-पाँच ज़िलों की नागरिक सरकारें दिवालिया होने को हैं. केंद्र सरकारें किस-किस को बचा पाएँगी. वैसे ही अमरीका का इस वर्ष का बजट घाटा 3,80,000 करोड़ डॉलर यानी 18.7% हो चुका है. अमरीका का कुल कर्ज़ा बढ़कर 26,31,000 करोड़ डॉलर पार कर गया है जो अमरीक के सकल घरेलू उत्पाद या GDP से भी 30 प्रतिशत ज़्यादा है. येल विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर और मॉर्गन स्टेनली के पूर्व चेयरमैन स्टीवन रोच का मानना है कि घरेलू बचत भी इतिहास के न्यूनतम बिंदु पर पहुँच गई है.
इसका असर देर-सवेर डॉलर पर भी पड़ेगा और उसकी क़ीमत में तीस प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है. यदि ऐसा हुआ तो तेल के दाम बढ़ेंगे और मँहगाई भी. विश्व बैंक का कहना है कि विश्व की अर्थव्यवस्था में इस वर्ष पिछले साल के मुकाबले 4.9 प्रतिशत की कमी आएगी. विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओँ भी सात प्रतिशत के आसपास की गिरावट आएगी. कुल मिलाकर आर्थिक स्थिति की तस्वीर महामारी से भी भयावह होती जा रही है. भारत और ब्रज़ील जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों की हालत और अमरीका और चीन में महामारी की दूसरी लहर के बढते डर ने उस अर्थव्यवस्थाओं के उछाल की आशाएँ धूमिल कर दी हैं जिसकी बहुत से लोगों को आशा थी. मिर्ज़ा ग़ालिब साहब का मशहूर शेर है:
कोई उम्मीद बर नहीं आती,
कोई सूरत नज़र नहीं आती…