भूमि पूजन के बीच वाह! अयोध्या की अनुभूति भी
—यशोदा श्रीवास्तव
अयोध्या विवाद के हल होने से लेकर आज जब प्रधानमंत्री मंदिर निर्माण हेतु भूमि पूजन के लिए आ रहे हैं तो इस भक्ति मय माहौल के लिए देश के मुस्लिम समाज को धन्यवाद देना चाहिए और उनका आभार इसलिए प्रकट किया जाना चाहिए कि वे भी इस राममय वातावरण के लिए राम भक्तों की तरह ही भागीदार हैं।राममंदिर भूमिपूजन के मौके पर मंदिर मामले के आखिरी पक्षकार रहे इकबाल अंसारी को निमंत्रित करने के पीछे शायद राममंदिर ट्रस्ट की भी यही मंशा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब राम मंदिर के लिए भूमि पूजन कर रहे हैं तो निसंदेह उन्हें वाह अयोध्या जैसी अनुभूति हो रही होगी। लेकिन इस मौके पर कारण चाहे जो हो,अयोध्या आंदोलन के जनक रहे यूपी के पूर्व सीएम कल्याण सिंह,मुरली मनोहर जोशी तथा लालकृष्ण आडवाणी जैसे लोगों का अनुपस्थिति रहना अयोध्या वासियों को शायद खल रहा होगा। बताने की जरूरत नहीं कि अयोध्या जनसंघ के काल से ही उसके एजेंडे में रहा। यही अयोध्या है जिसके बूते 1980 में गठित भाजपा की महज चार दशक बीतते बीतते देश के कई प्रदेशों के साथ केंद्र पर भारी बहुमत से कब्जा है। वह अयोध्या ही है जिसके बूते 1992 से यूपी में कल्याण सिंह समेत उसके अन्य नेतृत्व वाली कई सरकारों के आने जाने के बीच केंद्र में तीन बार अटल विहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार सत्तासीन हुई। 2004 से लेकर 2014 तक लंबे विश्राम के बाद यदि 2014 में मोदी के नेतृत्व में फिर भाजपा सत्ता में आई तो इसके पीछे भी अयाध्या है। 2014 के लोकसभा चुनाव तथा उसके बाद के विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए स्वर्णिम काल जैसा था क्योंकि इन चुनावों में भाजपा कांग्रेस मुक्त के अपने एजेंडे के काफी करीब पंहुचती हुई दिखी ही 2019 में यदि मोदी फिर भारी बहुमत हासिल कर सत्ता में वापसी करते हैं तो भी इसके पीछे भी अयोध्या है।
1957 के विधानसभा चुनाव में भले ही कांग्रेस उम्मीदवार बाबा राघव दास अयोध्या मुद्दे को उभारकर चुनाव जीते हों लेकिन कांग्रेस इस बहाने अपनी हिंदूवादी छवि निखारने से बचती रही।वहीं भाजपा इस मुद्दे को लपक ली और हिंदूवादी पार्टी बन गई।बिहिप से लेकर बीजेपी तक में चाहे जितना बड़ा हिंदूवादी चेहरा हो तो उसके पीछे वह स्वयं नहीं, अयोध्या है।
कांग्रेस शासन में 1986 में अयोध्या में रामजन्म भूमि का ताला खुलने के बाद विहिप की लगातार यह कोशिश रही है कि किसी तरह इसे मुद्दा बनाया जाय। विहिप के ज्यादातर सदस्य आरएसएस, हिंदू जागरण मंच,हिंदू महासभा, शिवसेना,बजरंगदल अथवा अन्य हिंदू संगठन बिहिप से जुड़े हुए लोग हैं अतः विहिप को इन हिंदू संगठनों को राममंदिर के नाम पर एक झंडे के नीचे लाने में खास मेहनत नहीं करनी पड़ी। राम मंदिर बनाने के नाम पर देश के नामी गिरामी संत भी विहिप के साथ आ गए। विहिप के इस आंदेालन से भाजपा को लाभ नजर आया और वह पहले परोक्ष फिर सीधे तौर पर इस आंदोलन के साथ जुड़ गई। अयोध्या विवाद के बहाने यूपी की गद्दी पर काबिज होने का सपना देख रहे मुलायम सिंह की भी नजर थी। उन्होंने भाजपा विहिप तथा राम मंदिर से जुड़े हिंदू संगठनों को सीधे तौर पर चेतावनी दे डाली कि विवादित स्थल पर मंदिर निर्माण किसी कीमत पर नहीं होने देंगे। मुलायम के इस चेतावनी से बहुसंख्यक हिंदू वर्ग नाराज हो गया और आगे चलकर यह भाजपा की बड़ी ताकत बना।
अयोध्या की सांस्कृतिक,सामजिक और सद्भाव की सतरंगी तस्वीर को सांप्रदायिकता के रंग में रंगने की शुरूआत 23 और 24 जून 1990 को हरिद्वार में आयोजित संत सम्मेलन में हुई जब विहिप ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए बहुचचर्चित कार सेवा का ऐलान किया। यह वही समय है जब भाजपा ने सारे संकोच छोड़कर विहिप के मंदिर निमार्ण के मुद्दे पर उसके हर निर्णय में भागीदार होने का ऐलान किया था। उस वक्त केंद्र में कमंडल के रास्ते आए वीपी सिंह पीएम थे तो यूपी में इसी रास्ते आए मुलायम सिंह सीएम थे। अफसोस विहिप के मंदिर निर्माण के ऐलान को दोनों ही सरकारों ने बहुत हल्के में लिया तथा इस मुद्दे को मिल बैठकर हल करने की कोई कोशिश ही नहीं की। वीपी सिंह की असमंजस यह थी कि वे अपनी कुर्सी ही बचाने की जुगत करते रहे जबकि मुलायम ने यूपी में हिंदूवादी संगठनों के खिलाफ सीधे मोरचा खोल दिया था जिसके पीछे उनका अपना राजनीतिक निहितार्थ रहा। उधर आडवानी की रथयात्रा भी सज गईं। मंदिर समर्थक साधू संतो तथा भाजपा के खिलाफ जनमत तैयार करने के लिए मुलायम ने बसपा तथा वामपंथी दलों के साथ सांप्रदायिकता विरोधी रैली शुरू कर दी जो आग में घी का ही काम किया। अयोध्या में कार सेवा रोकने के लिए यूपी सरकार ने क्या क्य नहीं किया यह बताने की जरूरत नहीं है। इसके बाद मंदिर समर्थकों और तत्कालीन यूपी की मुलायम सरकार में टकराहट का अंजाम यह हुआ कि कारसेवकों पर गोलियां बरसाई गई। पूरे देश के हिंदू जनमानस में यूपी सरकार के खिलाफ गुस्सा भड़क उठा।1991 में चुनाव हुआ और भाजपा सत्ता में आई तथा कल्याण सिंह सीएम बने। 6 दिसंबर 1992 को बावरी मस्जिद विध्वंस की घटना हुई और इसके बाद लगातार हुए लोकसभा के तीन चुनाव में भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरकर सत्ता हासिल की। कहना न होगा चाहे वाजपेयी हों या नरेंद्र मोदी इन्हें सत्ता के शिखर तक पंहुचाने में अयोध्या की बड़ी भूमिका रही है। 6 महीने पहले मुख्य न्यायाधीश तरूण गोगई ने अयोध्या में राममंदिर के पक्ष में फैसला सुनाया इस तरह राम मंदिर निर्माण का मर्ग प्रशस्त हुआ।
अदालतों में चली लंबी जंग पर एक नजर
अयोध्या स्थित रामजन्मभूमि बावरी मस्जिद का विवाद कभी फैजावाद के जिला अदालत के भीतर एक नितांत स्थानीय मुद्दा हुआ करता था। लेकिन 1980 के दशक में अचानक देश के राष्टीय स्तर के सियासी फलक पर आ गया। हालात ऐसे बन गए कि
यह मुद्दा देश के दूसरे हिस्से तक पंहुचकर सियासी तूफान खड़ा कर दिया।तारीखों के हिसाब से देखें तो 1986 के बाद उतपन्न अयोध्या विवाद की धार साल दर साल तारीख दर तारीख तेज हेती गई।
1986-एक जिला अदालत ने हिंदुओं के पूजा के लिए विवादित भवन क ताले खोलने की इजाजत देकर अल्पसंयकों को नाराज करने का अवसर दिया। अल्पसंख्यकों ने इसका विरोध किया। 1989-विश्व हिंदू परिषद ने बाबरी मस्जिद के बगल की जमीन पर कब्जा कर राम मंदिर का शिलान्यास करना शुरू दिया जिसकी अगुवाई गोरक्ष नाथ पीठ के महंत अवेद्यनाथ ने की।
1990- भाजपा नेता लालकृष्ण आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा शुरू की। यूपी की मुलायम सरकार ने इसका भारी विरोध किया। हिंदू और साधू संत एक जुट हुए और अगले ही साल भाजपा यूपी में सत्ता में आई। 1992-6 दिसंबर को कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद ढहा दी। केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। पूयी के अल्पसंख्यकों का कांग्रेस से विश्वास उठ गया। देश भर में सांप्रदायिक दंगे हुए। बाबरी मस्जिद विध्वंस के दिन अयोध्या में करीब डेढ़ लाख कार सेवक जुटे थे, भड़के दंगे में करीब दो हजार कारसेवकों के मारे जाने की खबर फैली। 2002-2003 में अदालत ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को विवादित स्थल पर खुदाई का निर्देश दिया। खुदाई में मस्जिद के नीचे मंदिर के साक्ष्य मिले। अल्पसंख्यक गुटों ने इसे चुनौती दी। 2009 में लिब्राहम आयोग ने बाबरी विध्वंस की घटना की जांच की अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसमें विध्वंस के लिए भाजपा के शीर्ष नेताओं को दोषी करार दिया। 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायलय ने कहा कि विवादित जमीन को वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला के पक्षकारों में बांट दिया जाय। मई 2017 में लखनऊ सीबीआई की विशेष अदालत ने भाजपा और विहिप के र्शीष नेता जैसे लालकृष्ण आडवानी,मुरली मनोहर जोशी,उमा भारती,विनय कटियार,विष्णुहरि डालमिया,साध्वी रितंभरा समेत संघ परिवार के 14 नेता तथा सैक्ड़ों कारसेवकों पर आपराधिक षडयंत्र,सांप्रदायिक उन्माद,दंगा तथा दुर्भावना फैलाने का आरोप तय कर दिया।मुकदमा विचाराधीन है।
कोर्ट के बाहर भी हुए विवाद के हल करने के प्रयास
इस विवाद के हल के लिए पहला प्रयास 1990 में पीएम चंद्र शेखर और यूपी के सीएम मुलायम सिंह यादव ने किया। इसके लिए तबके वरिष्ठ भाजपा नेता भैरो सिंह शेखावत से बात की गई मगर परिणाम कुछ नहीं निकला। उसके बाद 1992 में कांग्रेस नेता सुवोध कांत सहाय की मध्यस्तथा में तत्कालीन पीएम नरसिंहा राव ने विश्व हिंदू परिषद और हिंदू महासभा से बात चीत की लकिन बात आगे नहीं बढ़ी। 2015 में मुसलमानों की तरफ से इस मामले के सबसे पुराने पक्षकार मो हाशिम अंसारी ने निर्मोही अखाड़ा प्रमुख से मुलाकात की ताकि सुप्रिम कोर्ट में कोर्ट से बाहर समझौते का प्रारूप पेश किया जा सके। हिंदू महासभा के अध्यक्ष स्वामी चक्रपाणि से भी बात हुई लेकिन यह पहली बैठक में ही फुस्स हो गई। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी भी हासिम अंसारी से मिले। इस मुलाकात की बातचीत आगे बढ़ती कि अंसारी की मौत हो गई। इसके बाद 2017 में सुप्रिम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली पीठ ने विवाद को निपटाने के लिए समझौते की सिफारिश और मध्यस्थता की पेशकश कर समझौते के फार्मूले को बल प्रदान किया। नवंबर 2017 में धूमकेतु की तरह श्रीश्री रवि शंकर भी मामले को सुलझाने के लिए आगे आए लेकिन यूपी के सीएम योगी समेत कई हिंदू नेताओं ने ही उनकी मध्यस्थता को ही महत्वहीन करार दे दिया था.