महिलाएँ समाज में मूल्य शिक्षा प्रसार को नेतृत्व प्रदान करें
मूल्य शिक्षा क्या है और समाज में उसके प्रसार में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका पर *पद्मश्री प्रोफ़ेसर डा रवींद्र कुमार का विचारोत्तेजक लेख.
“मूल्य शिक्षा” में केवल दो शब्द हैं: “मूल्य” एवं “शिक्षा”, लेकिन, इन दो ही शब्दों से बनी “मूल्य शिक्षा” की अवधारणा और उद्देश्य अति व्यापक है। पहला शब्द “मूल्य” एक वचनीय परिप्रेक्ष्य में मानव को व्यवहारों में रचनात्मकता की अनुभूति कराने वाला मूल तत्त्व है।
मूल्य व्यक्ति को सदाचार में प्रविष्ट होने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है। जब कोई मूल्य अनेक जन के जीवन व्यवहारों का सामान्य रूप से मार्गदर्शक बन जाता है; सदाचार उनके जीवन से सम्बद्ध हो जाता है, तो उस स्थिति में वृहद् कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
व्यक्तियों के जीवन को ऊँचाई देने के साथ, वृहद् कल्याण ही अन्ततः सभी मूल्यों का प्रयोजन होता है। वृहद् उन्नति, विशाल स्तरीय जनोत्थान, मूल्यों की आधारभूत भावना होती है। दूसरा शब्द “शिक्षा”: वह प्रक्रिया जो जीवनभर जारी रहती है; मनुष्य के सर्वांगीण –चहुँमुखी विकास को समर्पित है, तथा मानव को मुक्ति के द्वार तक ले जाती है।
इसीलिए तो भारत में कहा गया है, “सा विद्या या विमुक्तये –विद्या वही है, जो मुक्ति प्रदान करे।“
व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के साथ ही, वृहद् मानव कल्याण के मूल उद्देश्य को केन्द्र में रखते हुए “मूल्य” और “शिक्षा” एक-दूसरे से अभिन्नतः जुड़े हुए हैं। मूल्य शिक्षा, इसीलिए, वह है, जो किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना –समान रूप से महिला-पुरुष के चहुँमुखी विकास का मार्ग प्रशस्त करे।
मूल्य शिक्षा मनुष्य को नैतिक, विकासोन्मुखी, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़कर रखती है। मनुष्य को वांछित कर्त्तव्यपरायणता की अनुभूति कराती है; उसमें, व्यक्तिगत से सार्वभौमिक स्तर तक व्यवस्था के सुचारु संचालनार्थ अपरिहार्य उत्तरदायित्वों के निर्वहन के लिए अलख जलाती है। इस हेतु उसे प्रेरित करती है।
इस प्रकार, मेरा अपना स्पष्ट मत है कि मूल्य शिक्षा, अपने सच्चे अर्थ में, वास्तविक शिक्षा का ही प्रतिरूप है। दूसरे शब्दों में, यह शिक्षा की मूल भावना का प्रकटीकरण है; जीवन सार्थकता का माध्यम अथवा मार्ग है। प्रचीनकालिक और सत्यमयी भारतीय उद्घोषणा “सा विद्या या विमुक्तये“ की सम्पुष्टि है.
हजारों वर्षों से अति समृद्ध संस्कृति के पोषक तथा अति प्राचीन काल से ही आध्यात्मिक-शैक्षणिक विश्वगुरु के रूप में अपनी पहचान रखने वाले –संसारभर को ज्ञान-विज्ञान में नेतृत्व प्रदान करने वाले देश हिन्दुस्तान में मूल्य शिक्षा का महत्त्व, प्रतिष्ठा और गौरव भी शताब्दियों पुराना है।
मूल्य शिक्षा की अवधारणा विश्वभर के लिए नई हो सकती है I पश्चिमी जगत के देशों में इससे सम्बन्धित कई आधुनिक अवधारणाएँ सामने आई हैं, जैसे कि मानव-मूल्य प्रतिष्ठान की वर्ष 1995 ईसवीं की “व्यापकमूल्यशिक्षायोजना” I लेकिन, कायिक –शरीर श्रम के साथ ही व्यायाम एवं योगाभ्यास, सदाचरण और आत्मनिर्भरता के दृष्टिकोण से ऋषियों-ऋषिकाओं व महर्षियों की छत्रछाया में ज्ञान प्रदान किया जाना प्राचीनकाल से ही व्यक्ति के चहुँमुखी विकास को समर्पित भारत की सुदृढ़ शिक्षा व्यवस्था –प्रक्रिया से अभिन्नतः जुड़े पक्ष हैं।
मूल्य शिक्षा का पक्ष स्वाभाविक रूप से प्रचीनकालिक महर्षियों-ऋषियों-ऋषिकाओं और महापुरुषों-युगपुरुषों के जीवनकाल से जुड़ा है। महिलाओं के दृष्टिकोण से हम अति विशेष रूप से वैदिक मंत्रों से जुड़ीं –मंत्र दृष्टा रोमशा, लोपामुद्रा, विश्ववारा, शाश्वती व अपाला जैसी विभिन्न ऋषिकाओं व उपनिषदकालीन मैत्रेयी तथा गार्गी जैसी परम विदुषियों के नाम विशेष रूप से और गर्व के साथ हम आज भी ले सकते हैं।
संक्षेप में कहने का तात्पर्य यह है कि मूल्य शिक्षा अतिप्राचीनकाल से ही भारत की शिक्षा-प्रक्रिया की पूरक –प्रतिरूप है I इसमें महिला वर्ग का योगदान प्रारम्भ से ही महत्त्वपूर्ण तथा उल्लेखनीय है। इन ऋषिकाओं से जुड़े शास्त्रार्थ प्रकरणों से मूल्य शिक्षा का श्रेष्ठतः प्रकटीकरण होता है। मैं यहाँ ऐसे किसी विस्तार में नहीं जा रहा हूँ, लेकिन निश्चित रूप यह कह सकता हूँ कि उनके शास्त्रार्थों आदि से प्रकट मूल्य शिक्षा के पक्ष आजतक भी विचारणीय हैं; वे जानने-समझने योग्य हैं।
मूल्य शिक्षा का प्रचीनकालिक भारतीय सन्दर्भ हो अथवा कोई पश्चिमी जगत से जुड़ा आधुनिक सिद्धान्त, लेकिन जो पहलू अनिवार्यतः इसके साथ सम्बद्ध हैं, या इसके मूल में हैं, वे सभी कालों में सामान्यतः एक समान रहे हैं। वर्तमान में भी वे ही प्रमुख हैं तथा मूल्य शिक्षा की मूल भावना, उद्देश्य एवं ध्येय को प्रकट करते हैं। नैतिक-चारित्रिक विकास, व्यवहार-कुशलता और दक्षता के साथ आत्म-निर्भरता, मूल्य शिक्षा से जुड़े पहलू हैं।
ये व्यक्ति के चहुँमुखी विकास के मार्ग को प्रशस्त करते हैं, जो, मैं पुनः कहूंगा, वास्तव में, शिक्षा की मूल भावना और उद्देश्य है। मूल्य शिक्षा को केन्द्र में रखकर जब हम नैतिक-चारित्रिक विकास की बात करते हैं, तो हमें, तब भी, निश्चिततः यह समझ लेना चाहिए कि इसका प्रयोजन व्यक्ति में उत्तरदायित्व भावना की अनुभूति एवं कर्त्तव्य-निर्वहन के लिए सदैव जागृति उत्पन्न करना है। सामान्यतः भी नैतिकता की कसौटी अन्ततः समुचित रूप से कर्त्तव्य-पालन –उत्तरदायित्व-निर्वहन ही है। इस सम्बन्ध में मैं अपने निर्धारित मत को प्रतिबद्धता के साथ दोहराते हुए कहता हूँ,
“व्यक्ति में नैतिकता की परख उसके द्वारा उत्तरदायित्वों के निर्वहन से ही हो सकती है।जो व्यक्ति भली–भाँति अपने उत्तरदायित्वों को समझता है और उनका निर्वहन करता है, वही, वास्तवमें, नैतिकता का पालन करता है।केवल ऐसा व्यक्ति ही नैतिक होने का दावा कर सकता है।“
नैतिकता-सदाचार, व्यवहार-कुशलता और आत्मनिर्भरता सुनिश्चित करने वाली –मानव के चहुँमुखी विकास, अर्थात् जीवन सार्थकता को समर्पित मूल्य शिक्षा की प्रथम पाठशाला परिवार है। प्रथम अध्यापिका, निस्सन्देह, माँ ही होती है। मूल्य शिक्षा के इस मूल स्रोत और केन्द्र से स्वतः ही स्पष्ट है कि इसके प्रारम्भ और प्रसार में महिला वर्ग की भूमिका सर्वप्रमुख है। इतना ही नहीं, इस सम्बन्ध में महिलाओं की भूमिका, वर्तमान में भी परिवार की धुरी होने के कारण, निर्णायक है, और सदा प्रासंगिक भी है।
मूल्य शिक्षा-सम्बन्धी जो समकालीन-आधुनिक अवधारणाएँ हैं, वे इसके प्रसार में, सामाजिक ढाँचे में मूलभूत परिवर्तन के बाद भी –संस्थाओं के प्रभावी होने के बावजूद, परिवारों की भूमिका को अतिमहत्त्वपूर्ण स्वीकार करती हैं। जब परिवारों की भूमिका की बात हो, तो उसकी धुरी –महिला के निर्णायक योगदान की स्थिति स्वतः ही समझ में आ जाती है। इस सम्बन्ध में एलिस और मोरगन की पारिवारिक मूल्य योजना जैसे विचार भी हमारे सामने हैं।
मूल्य शिक्षा की प्रारम्भिक स्रोत
महिलाएँ, यह वास्तविकता है, मूल्य शिक्षा की प्रारम्भिक स्रोत हैं। पारिवारिक-सामाजिक स्तरों पर इसके प्रसार में स्त्रियों की भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण है। साथ ही, शैक्षणिक संस्थाओं के माध्यम से, भारत ही नहीं, अपितु विश्व के सभी देशों में इस दिशा में महिलाओं का योगदान सराहनीय और उल्लेखनीय है। मैं स्वयं विश्वभर में मूल्य शिक्षा के क्षेत्र में महिला वर्ग की भूमिका और योगदान का अपने अनुभवों से साक्षी हूँ।
स्वयं शिक्षा क्षेत्र में अपने निरन्तर बढ़ते कदमों और सशक्तिकरण के स्तर में होती वृद्धि के चलते महिला वर्ग, निस्सन्देह, मूल्य शिक्षा के प्रसार में अभूतपूर्व योगदान कर सकता है। महिला वर्ग संसार की कुल जनसँख्या का लगभग आधा है। वर्तमान में विश्व में लगभग तीन अरब बयासी करोड़ महिलाएँ हैं। इसमें भी लगभग एक अरब किशोरियाँ और युवतियाँ हैं। यदि पचास वर्ष से कम आयु की महिलाओं की बात की जाए, तो यह संख्या लगभग दो अरब होगी। इसलिए, महिलाएँ इस हेतु पूर्णतः सक्षम हैं I
बात केवल इसे उनके एक परम कर्त्तव्य के रूप में लेने की है। इस दिशा में महिलाओं से श्रेष्ठ कोई अन्य नहीं कर सकता। इसलिए, अपनी माताओं-बहनों से मेरा यह सादर अनुरोध रहेगा कि वे आगे आएँ I मूल्य शिक्षा प्रसार कार्य को नेतृत्व प्रदान करें। इस बहुत बड़े कार्य के माध्यम से मानवता को उसके वांछित स्तर तक पहुँचाने में अपनी भूमिका का निर्वहन करें।
डॉ0 रवीन्द्रकुमार*
*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I