सड़कों पर नमाज़ क्यों होती है?

-इस्लाम हुसैन
पिछले कई सालों से यह सवाल बार बार उठता है और उठाया जाता है कि मुसलमान सड़क पर नमाज़ क्यों पढ़ते हैं, कुछ ग्रुप इसे नफ़रत, जलन, हसद की वजह से उठाते हैं . कुछ आवाजाही में रूकावट और ला एण्ड आर्डर के मसले के रूप में देखते हैं। कुछ प्रगतिशील साथी भी जानकारी के अभाव में ख़ामोश रहते हैं तो कुछ विपरीत हो जाते हैं।
लेकिन किसी ने इस मसले की तह तक (मूल/रूट काज) नहीं जाना।
आइए देखते हैं कि बार बार होने वाली इस परिघटना की क्या वजह हैं।
इस्लाम एक सामूहिकता की भावना पर चलने वाला धर्म है। इसकी शुरुआत ही सब लोगों को इकट्ठा करके चलने से हुई। जिसमें जाति, रंग, ऊंच-नीच का और वर्गों (गुलाम मालिक, व्यापारी मजदूर) की कोई अवधारणा नहीं है।
इस्लाम में इबादात, त्योहार, खान-पान सब सामूहिकता पर निर्भर हैं।
इबादात या नमाज़ भी सामूहिक होती है,
नमाज़ का मूल अरबी शब्द सलात् है जिसका मतलब जुड़ाव, जुड़ना या इकट्ठा होना होता है। यानि की नमाज़ का बेस ही इकट्ठा होना है।
हालांकि नमाज़ व्यक्तिगत है लेकिन फ़र्ज़ नमाज़ को सामूहिक रूप से पढ़ना ज़रूरी होता है ताकि सामूहिक चेतना के साथ इबादत पूरी हो सके।
यहां किसी धर्म स्थल के गर्भगृह में देवता के दर्शन करने या सीमित आरती जैसा कांसेप्ट नहीं है।
इसको इस तरह समझते हैं, नमाज़ के कई रूप/प्रकार हैं,
दैनिक फ़र्ज़ नमाज़ जो एक मुसलमान पर पांच वक्त अपने तय वक्त में पूरी करना ज़रूरी है, इन पांच वक्तों में,
पहली नमाज़ है फज्र, सुबह सूरज निकलने से करीब आधा घंटा पहले (सामूहिक/जमात से) और व्यक्तिगत सूरज निकलने से करीब 10 मिनट पहले (सूरज उदह होने के 6-7 मिनट के पहले)
दूसरी नमाज़ ज़ोहर जब सूरज चढ़ने के बाद ढलना शुरू होता है,
तीसरी नमाज़ अस्र होती है, इसका वक्त शाम जिसे अस्र कहा जाता है जिसमें सूरज की रोशनी मद्धिम पड़ जाती है परछाइयां बेहद लम्बी तीन गुना से ज़्यादा हो जाती है, होता है।
चौथी नमाज़ मग़रिब की होती है, यह सूरज ग़ुरूब (अस्त) होने के फौरन बाद होती है।
पांचवीं नमाज़ ईशा यानि रात की नमाज़ होती है जो सूरज डूबने के बाद आमतौर पर अंधेरा होने के डेढ़-दो घंटे के बाद होती है इसमें वक्त की सहूलियत होती है, किसी जगह जल्दी तो कहीं कुछ देर में होती है, ईशा की नमाज़ मूल रूप से मग़रिब की नमाज़ के बाद खाना से फ़ारिग होकर (निपट कर /खाकर) पढ़ने का तरीक़ा है।
(एक दैनिक ऐच्छिक तहज्जुद नमाज़ मध्य रात्रि में होती है बहुत से आलिम ज़ाहिद सूफी इसे नियमित पढ़ते हैं)
अब दैनिक सामूहिक नमाज़ों के साथ हफ्तावार जुमा/ शुक्रवार को साप्ताहिक सामूहिक नमाज़ का दिन है। इसके अलावा ईदैन की नमाजें (इदुल फित्र/रमज़ान के रोजों के बाद वाली वाली ईद या सेंवई वाली मीठी और ईद ए अजहा/बकरा ईद) भी सामूहिक होती हैं। इसी में बड़ी नमाज़ ईद से ठीक पहले पड़ने वाली अलविदा की नमाज़ है जो रमज़ान के आखिरी जुमा/शुक्रवार को पड़ती है।
खुशी और शुक्र के त्योहार मनाने की सामूहिक नमाज़ों के अलावा एक और नमाज़ सामूहिक होती है वो है नमाज़े जनाज़ा, यानि मय्यत/ मृतक की नमाज़, यह भले ही जनाजे में शामिल होने वाले मुसलमान/व्यक्ति पर फ़र्ज़ नहीं है, उनके लिए सवाब के है। जिसमें कुछ को छोड़कर ज्यादातर मुसलमान हिस्सा लेते हैं यह नमाज़ मुहल्ले, कब्रिस्तान खुली जगह कहीं भी हो सकती है लेकिन आमतौर पर मृतक के मुहल्ले की मस्जिद के बाहर होती है। कई बार किसी पापुलर या हादसे में मृतक मुसलमान के ज़नाज़े में बहुत भीड़ हो जाती है।
इनमें जो ऐच्छिक या सुन्नत नमाज़ें हैं उनको घर में पढ़ने और फ़र्ज़ नमाज़ मस्जिद में पढ़ने का हुक्म है, लेकिन भारत के सुप्रीम कोर्ट ने नमाज़ पढ़ने की आवश्यकता में मस्जिद नहीं होती है जैसा दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय दिया हुआ है, मुसलमानों ने इसको चैलेंज करने की ज़रूरत नहीं समझी क्योंकि जजों की समझ और नज़रिया बेशक मश़्कूक़ (संदिग्ध है ऐसा अनेक फैसलों में देखा जा चुका है)
हर मुसलमान के लिए अपने दैनिक पांच वक्तों की फ़र्ज़ नमाज़ें अपने मुहल्ले,या लोकेलिटी/गांव की मस्जिद में पढ़ने का नियम है, जबकि जुमा की नमाज़ शहर या बड़े गांव की जुमा/जाम/जामिया मस्जिद में पढ़ने का नियम है। ईदैन नमाज़ ईदगाह में करने और पढ़ने का नियम है।
लेकिन मौजूदा दौर में सभी मस्जिदों में जुमा की नमाज़ हो रही है, क़ायदे से ईद की नमाज़ ईदगाह में होनी चाहिए, लेकिन ईदगाहे अब बनती नहीं, सदियों पुरानी ईदगाहों में 5-10 फीसदी नमाजियों के लिए जगह नहीं है। इसलिए शहर की हर मस्जिद में भारी भीड़ होती है
क्या मुसलमान रोज़ मस्जिद के बाहर सड़कों पर नमाज़ पढ़ते हैं, जी नहीं, क्योंकि नमाज़ में दिखावा और गैर ज़रूरी तरह से नमाज़ पढ़ने की सख़्त मनाही है।
अब यह सवाल है मुसलमान मस्जिद के बाहर या मस्जिद से लगी सड़कों पर नमाज़ कब पढ़ते हैं ?
सामूहिक नमाज़ पढ़ना हर मुसलमान के ज़रूरी है लेकिन मुसलमान बहुत से ज़रूरी और गैर ज़रूरी और बजुहात और बहानों से मस्जिद में नमाज़ पढ़ने नहीं जाते हैं। बहुत बीमारी बुढ़ापा सफ़र नौकरी का वक्त वगैरह वजूहात होते हैं।
अब आते हैं सड़क पर नमाज़ पढ़ने की बात पर।
सड़कों पर नमाज़ पढ़ने की समस्या मध्यम और बड़े शहरों की है, और जिन शहरों इलाकों में मुस्लिम आबादी पहले से हैं वहां-वहां है
छोटे शहरों कस्बों और गांवों में यह समस्या या तो नहीं है या मैनेजेबिल है।
क्या शहर की दैनिक पांच नमाज़ों में कोई नमाज़ी कहीं सड़क पर नमाज़ पढ़ता है, शायद नहीं अगर सभी मुसलमान रोज़ की पांचों नमाज़ें मस्जिदों में पढ़ना शुरू कर दें तो वाकई कई बड़े शहरों में यह मसला हो जाएगा। नमाज़ पढ़ने से कट्टरता का कोई रिश्ता नहीं भी है तो यह मुसलमानों की धार्मिकता की स्थिति है।
सड़क पर नमाज़ पढ़ने की हालत जुमा, अलविदा जुमा की नमाज़ और ईदैन (दोनों ईदों) में होता है, और जनाज़े की नमाज़ में होता है।
इस मसले की एक बड़ी वजह मस्जिदों का कम होना है। इस बात पर लोग नाक भौं सिकोड़ेंगे, लेकिन इस समस्या को समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि सड़कों पर नमाज़ पढ़ने की समस्या मस्जिदों की तादाद और गांवों से शहरों की ओर हो रहे पलायन से जुड़ी है।
भारत में करीब 3-4 लाख मस्जिदें होना बताई जाती हैं। इसमें बड़ी संख्या 60-70% मस्जिदें मे गांव देहातों में हैं। जबकि एक अंदाजे के मुताबिक 30-35 करोड़ मुसलमानों में से 50-60 फीसदी तक जुमे और ईदैन की नमाज़ पढ़ने वाले होते हैं। इसके हिसाब से एक मस्जिद के हिस्से में 500 से ज़्यादा नमाज़ी आते हैं, लेकिन ज़्यादातर मस्जिदें इतनी कैपेसिटी की भी नहीं है गांवों कस्बों और छोटे शहरों में हैं छोटी मस्जिदें हैं जहां यह समस्या नहीं है। बड़ी समस्या बड़े शहरों में हैं।
हालांकि मुसलमानों की बड़ी आबादी पहले से ही शहरों में रहती थी इधर आजादी के बाद और तीस चालीस सालों में गांवों से बड़ी मात्रा में आबादी का पलायन हुआ है। मुसलमानों का कृषि भूमि में हिस्सेदारी 1.5% भी नहीं बताई जाती, मुस्लिम पुरुषों में भले ही शिक्षा की कमी हो लेकिन कारीगरी और हुनर में आगे हैं उनकी कारीगरी और हुनर के लायक रोजगार गांवों की अपेक्षा शहरों में बहुत तेजी से बढ़ा जिसका फल यह हुआ कि मुसलमानों का गांवों से शहरों की ओर पलायन अपेक्षाकृत अन्य धर्मों के ज़्यादा हुआ। पहले जहां 75-80 फीसदी आबादी गांव में थी अब यह आबादी 50 फीसदी तक आ गई है।
इसका असर यह हुआ कि बहुत से गांवों कस्बों की मस्जिदें जुमें को भी पूरी नहीं भरतीं वहीं जुमें की नमाज़ में शहरी मस्जिदों में पैर रखने के लिए जगह नहीं मिलती।
यह तब हुआ है कि जामा मस्जिद में ही जुमे की नमाज़ होने का हुक्म टूट चुका है।
ऐसा नहीं कि शहरों में नई मस्जिदें नहीं बनीं, बनी हैं लेकिन उनकी सीमा है। अधिकतर मस्जिदें 500 नमाजियों की कैपेसिटी से कम की बनी हैं कुछ आड़ी तिरछी जगह निकालकर या दुमंजिली तिमंजिली बनाकर कैपेसिटी बढ़ाई है लेकिन बढ़ती शहरी आबादी की वजह से बड़ी तादाद में मुसलमान मस्जिदों के बाहर नमाज़ पढ़ने को मजबूर हो जाते हैं। किसी गैर मुस्लिम सोसायटी की बात छोड़िए मिली जुली आबादी वाली सरकारी/ हाउसिंग सोसायटियों और शहर के प्लान में किसी मस्जिद और ईदगाह का कोई प्लान नहीं होता। मंदिर का प्लान आपको हर जगह मिल जाएगा फिर भावनाओं का ख़याल किया जाता है। मस्जिद का प्लान होना चाहिए कहने पर आसमान तक शोर उठेगा।
मैंने अपने शहर की मस्जिदों में जुमें की नमाज़ के नमाजियों का जायज़ा लिया तो पाया कि मस्जिदों की आख़िरी सफ़ों से लेकर बाहरी, सड़क की सफ़ों में नमाज़ पढ़ने वाले छोटे प्रवासी, कारीगर मिस्त्री, छोटे फल सब्जी ठेला गुमटी के कारोबारी, छोटे दूकानदार (बड़ी दूकानों के नौकर या सेकेंड लाइन ) सरकारी या गैरसरकारी नौकरीपेशा (जिनको जुमें की नमाज़ की छुट्टी नहीं मिलती या थोड़ी देर की मिलती है जिससे वो दोपहर के खाने को एडजस्ट करके नमाज़ पढ़ते हैं) हैं।
मस्जिद में जुमे की नमाज़ की अज़ान करीब आधा घंटा पहले देने का नियम है, हुकुम तो यह भी कि अज़ान सुनते ही कारोबार छोड़कर/बंद करके मस्जिद जाना चाहिए लेकिन प्रैक्टिकली ऐसा नहीं होता ऐसे लोग आखिरी वक्त में सिर्फ फ़र्ज़ नमाज़ पढ़ने जब आते हैं तो मस्जिदें भर जाती है और उन्हे बाहर सफ बिछाकर नमाज़ पढ़नी पड़ती है जिसमें मुश्किल से 10 मिनट लगता है जबकि मस्जिद के अन्दर नमाज़ पढ़ने वाले आधा से एक घंटा मस्जिद में बिताते हैं। अगर सड़क पर 10 मिनट में नमाज़ में हिस्सेदारी या पढ़ने वालों की बात छोड़ दी जाए तो सामान्यत: जुमा की नमाज़ होने में कमसे कम आधा घंटा और उसकी व्यवस्था बनाए रखने का वक्त जोड़ लिया जाए तो एक घंटा लगता है।
अब अगर सड़कों पर सामूहिक नमाज़ पढ़ना बैन कर दिया जाता है जो करीब करीब कर दिया है, तो यह मुसलमानों मस्जिद मैनेजमेंट कमेटी और प्रशासन सभी के लिए और परेशानी का कारण बनने जा रहा है।
जैसा कि मैंने पहले कहा कि इस्लाम में नमाज़ें (जुमा अलविदा और ईदैन की नमाज़ों सहित) सामूहिकता की भावना से होती है इसीलिए सामूहिक होती हैं।
सरकार और नफरती संगठन इस्लाम/मुसलमानों की इसी सामूहिकता को ख़त्म करना चाहते हैं, इसलिए वो चाहते हैं कि नमाज़ें मस्जिदों के अन्दर ही पारी से हो, एक पारी, दो पारी, और तीन पारी में हों……जैसे भण्डारा या लंगर में होता है।
इधर सामूहिकता की मूल भावना को बनाए रखने के लिए इस्लाम में इसकी गुंजाइश कम रखी गई है, बहुत इमरजेंसी में अगर कुछ लोगों की नमाज़ छूट गई हो तो वो मस्जिद के दूसरे हिस्से में अलग इमाम कि क़यादत में नमाज़ पढ़ सकते हैं। इसमें कुछ नमाज़ी, मस्जिद में अलग जगह/मुसल्ला और अलग इमाम की शर्त है, यह छोटा नहीं बड़ा मसला है, यहां तो अभी दो तीन चार पारियो में नमाज़ करानी पड़ेगी, जिसके लिए मस्जिद मैनेजमेंट कमेटी मुसल्ला (नमाज़ पढ़ाने वाले इमाम के नमाज़ पढ़ने/पढ़ाने की जगह फर्शी) थोड़ा उससे हटकर तय किया जा सकती है। इमाम भी दूसरा हो सकता है। जो नमाज़ी दस मिनट में नमाज़ अदा करके घरों और कारोबारों को लौटना चाहते थे वो आधा पौन घंटा लगा सकते हैं, लेकिन पुलिस प्रशासन की ड्यूटी का समय बढ़ने और सिरदर्द का क्या इलाज होगा यह सरकार को सोचना होगा। जिसकी पूरी प्रोसेस में तीन चार घंटा से ज्यादा लगेगा।
दुर्गा पूजा और जागरण में हफ्तों सड़क पर पंडाल लगाने, कांवड़ यात्रा में सड़क की एक साइड कांवड़ियों के लिए सुरक्षित कर ट्रक परिवहन रोक कर आर्थिक गतिविधियां चौपट करने वाली सरकारों को दस मिनट की नमाज़ से चोट पहुंचती है, अब तो मस्जिद से जुड़े व्यक्तिगत घरों की छतों पर मदरसों या घरों में नमाज़ पढ़ने से परेशानी होने लगी है।
आज दुनिया बदल रही पूरी दुनिया में धार्मिक अल्पसंख्यकों की भावनाओं का सम्मान किया जा रहा, मुस्लिम देशों में मन्दिर में पूजा की सुविधाएं हैं, योरोप अमेरिका और रूस की सड़कों पर ईद की नमाज़ पढ़ी जा रही है, जिस टाइम्स स्क्वायर में मोदीजी ने करोड़ों खर्च करके तमाशा किया था वहां तक खुले में नमाज़ होती है।
लेकिन वसुधैव कुटुम्बकम का नारा लगाने वाले न जाने किस दुनिया में रह रहे हैं, लगता है नारा लगाते लगाते अंधे कुएं में गिर गए हैं।