हाईकोर्ट में वकीलों की हड़ताल की नौबत क्यों?
इलाहाबाद हाईकोर्ट के वकीलों ने केस फाइल करने और कोर्ट में मामलों की लिस्टिंग में होने वाली परेशानियों को लेकर मंगलवार को हड़ताल की। सीनियर एडवोकेट आई बी सिंह बता रहे हैं कि इन दिनों मामलों की सुनवाई में किस – किस तरह की कठिनाइयाँ आती हैं, जिसके चलटें हड़ताल हुई।
बात उन्नीस सौ अस्सी इक्यासी की है. मेरे एक मित्र, जो बैंक में कार्यरत थे, उनके सगे चाचा रेलवे सुरक्षा बल में निरीक्षक के पद पर कार्यरत थे, वो अपनी दो नाबालिग लड़कियों को छोड़ कर स्वर्गवासी हो गए.
छोटी लड़की की आयु लगभग बारह वर्ष की थी और बड़ी की आयु चौदह वर्ष से कुछ ऊपर थी. उनकी पत्नी की मृत्यु पूर्व में ही हो चुकी थी. बड़ी लड़की के पाँव में बहुत हल्का सा पोलियो का प्रभाव था जो बहुत ध्यान देने पर पता चलता था. परन्तु वह बहुत गुणवान और सुन्दर लड़की थी. ले देकर उन लड़कियों के पालन पोषण, शादी विवाह की जिम्मेदारी मेरे मित्र के ही कन्धों पर आ गयी. मेरे मित्र के एक अन्य रिश्तेदार पूरी परिस्थितियों से वाकिफ थे. उन्होंने अपने पुत्र, जो किसी केंद्रीय सरकार की नौकरी में अधीनस्थ अधिकारी पर चुना गया था, उसके विवाह का प्रस्ताव बड़ी लड़की से करने को रखा. मेरे मित्र ने तुरंत ही उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया परन्तु विवाह का खर्च उस समय के हिसाब से लगभग चालीस हज़ार रुपये आ रहे थे जो मेरे मित्र के पास नहीं थे.
रजिस्ट्री दफ़्तर के खेल
मेरे मित्र के चाचा के मृत्यु पश्चात पेंशन, फण्ड आदि, जब तक जब तक मेरे मित्र गार्जियन न नियुक्त होते तब तक उन्हें नहीं मिला सकता था, क्योंकि लड़कियां तो दोनों ही नाबालिग थी. मैंने तुरंत उन लड़कियों का गार्जियन, अपने मित्र को नियुक्त करने के लिए न्यायालय में प्रार्थना पात्र प्रस्तुत किया जो एक बहुत ही तकनीकी कानून को पालन करने वाले जज के समक्ष लगा. सभी नियम का पालन करते हुए सभी कार्यवाही पूरी हो गयी परन्तु कुछ न कुछ कमियां हर बार रह जाती और मामला अगले महीने तक के लिए टल जाता. कभी पेपर में जो गज़ट हुआ था, उसकी प्रतिलिपि कोर्ट फाइल तक, अधिकारिक तौर पर समाचार पत्र के कार्यालय से नहीं पहुंची, कभी घर पर और आस पास नोटिस चस्पा की नक़ल नहीं उपलब्ध होती, कभी डुग्गी मुनादी की रपोर्ट नहीं प्राप्त होती. गरज यह कि लगभग एक साल बीत गए, लड़के वाले शादी के लिए जल्दी कर रहे थे और बच्चियों के पिता का फण्ड निकल नहीं पा रहा था.
एक बार जब सभी औपचारिकताये पूरी हो चुकी थी तो ऑफिस ने अपनी रिपोर्ट कि औपचारिकताये पूरी हो चुकी हैं, कोर्ट फाइल में नहीं लगाईं थी. कोर्ट ने दस दिन के बाद की तिथि लगाईं तो मैंने अगले तिथि को उस लड़की को, उसके होने वाले ससुर और अपने मित्र, सभी को कोर्ट में ले जाकर खड़ा कर दिया और पूरी बात जज साहब को बताई. जज साहब थोडा पसीजे और उन्होंने मेरे मित्र को गार्जियन नियुक्त करने का आदेश पारित कर डिग्री भी बनवा दिया.
मैंने उनके दोनों हाथ जोड़ कर विनोद में कहा कि सर बहुत अच्छा हुआ कि आप रेलवे में गार्ड नहीं हुए. उन्होंने हँसते हुए पूछा कि यदि वो रेलवे के गार्ड होते तो क्या होता ? मैंने कहा कि तब कोई ट्रेन कभी चलती ही नहीं क्योंकि तत्कालीन रेलवे गार्ड मनुअल में यह लिखा है कि जब तक सभी पैसेंजर सुरक्षित अपनी सीट पर न बैठ जाएँ, गार्ड साहब ड्राईवर को ट्रेन चलाने के लिए हरी झंडी नहीं दिखायेंगे और आप तो भारतीय पैसेन्जर को जानते ही हैं.
दूसरी घटना का उल्लेख भी जरूरी है. उन्नीस सौ बान्नबे में एक हाई कोर्ट के जज साहब के यहाँ मैं एक पेटीशन पर बहस कर रहा था और इलाहबाद के अतिरिक्त महाधिवक्ता महोदय उसका विरोध करते हुए जज साहब को बता रहे थे कि देखिये जनाब इसके पहले भी इसी प्रकार की एक पेटीशन एक अन्य वकील साहब ने दाखिल की थी और इस पेटीशन के कई पैरा ठीक पूर्व में प्रस्तुत पेटीशन की नक़ल है, एक भी शब्द का फेर नहीं है. जज साहब बहुत अच्छी प्रैक्टिस के बाद जज बने थे और वह आगे चल कर सुप्रीम कोर्ट के जज बन कर रिटायर हुए. उन्होंने सरकारी वकील साहब से कहा कि लगता है कि आप ने रेगुलर प्रैक्टिस नहीं की है, सिमिलर पेटीशन में सिमिलर ही पैरा चुरा कर लिखा जाता है.
यह घटनाये आज के अवध बार एसोसिएशन के आज के हड़ताल के विषय को लेकर मैं लिख रहा हूँ. मेरा कोई भी आशय न्यायलय का अपमान करने का नहीं है परन्तु अधिवक्ताओं और वादकारियों के दिक्कतों को बताने के नियत से ही मैं इन घटनाओं का उल्लेख कर रहा हूँ.
प्रतिदिन पेटीशन प्रस्तुत करने के लिए नित नए नियम, इतनी तकनीकी भंवर जाल बना कर उलझा देने से इस संस्था का ही नुकसान है. यदि कोई जेल में बंद है और वह अपनी जमानत का प्रार्थना पत्र देता है तो शपथ करने वाले का पहचान पत्र तो लगाना ठीक है, परन्तु उसकी अपनी शिक्षा कि वह कहाँ तक पढ़ा है ? क्या धंधा या नौकरी करते हैं ? उसका धर्म क्या है ? उसकी जाति आदि क्या है ? इस सब से क्या लेना देना है. एक साहब तो जब फाइल खोलते थे तो वह उसको पीछे की ओर से पलटने की शुरुआत करते थे. वकील लोग मजाक में कहते थे कि कोई कमी ढूंढी जा रही है. ऐसा लगता है जैसे रजिस्ट्री द्वारा एक दायरे के ऊपर दूसरा दायरा खींच खींच कर ऐसा करने की कोशिश की जा रही है कि जल्दी पीड़ित व्यक्ति न्यायालय की ओर मुंह उठा कर देखने की भी कोशिश न करे.
एक समय था कि आज के दिन यदि किसी को सजा हुयी है तो अगले दिन उसके अपील के एडमिशन पर बहस हो जाती थी. आज के दिन यदि दो महीने में भी बहस के लिए तैयार होकर जज साहब के सामने पहुँच जाए तो बड़ी बात है.
प्रधानमंत्री जी ने अभी जज और मुख्यमंत्रियों के सम्मलेन में कहा कि न्याय सरल होना चाहिए और न्याय की भाषा भी सरल होना चाहिए. इन तकनीकियों में उलझाने से न्याय पर से लोगों का विश्वास उठ भी सकता है.
जज से अधिक महत्त्व आज कल रजिस्ट्री की हो गयी है. पुराने हाई कोर्ट के भवन में एक बार एक सीनियर जज साहब के यहाँ मीटिंग में तत्कालीन रजिस्ट्रार अवांछनीय समय पर बीच में ही बोल पड़े तो मैंने उन्हें हलके डांट कर कहा कि मिस्टर रजिस्ट्रार आप बीच में मत बोलिए, यू आर जस्ट ए डिग्निफाइड क्लर्क. मीटिंग ख़त्म होने के बाद सीनियर जज साहब ने अकेले में मेरी प्रशंसा की.
आज जज का सारा काम इन्ही रजिस्ट्री को दे दिया गया है. नतीजा नए हाई कोर्ट में जब कोई सेक्शन ऑफिसर भी कोट टाई पहन कर निकलता है तो बहुत से नए लड़कियां और लड़के उन्हें भी झुक कर सम्मान देते है.
आज के इस कथन का मेरा कोई भी आशय किसी के अपमान करने या नीचा दिखाने का बिलकुल भी नहीं है. मेरे लिखने का उद्देश मात्र यही है कि अधिवक्ता, जज और रजिस्ट्री के अधिकारीयों और कर्मचारियों के जो सम्बन्ध, आदर, आस्था और सम्मान एक दूसरे में पहले जैसा था वह पुनर्स्थापित हो जाय. दूसरा यह कि अति जटिल, निरर्थक ताकिनिकियों को नज़र अंदाज़ कर सिर्फ इस उद्देश से कार्य किया जाय कि वादकारियों को पर्याप्त और सारभूत न्याय मिल सके. रजिस्ट्री को चाहिए कि वो अधिवक्ता या उसके क्लर्क को बुला कर, सामने ही गंभीर आपत्ति का समाप्त करा ले और यदि अधिवक्ता या उसका क्लर्क डिफेक्ट न रिमूव करे तो अपने आपत्ति सहित पत्रावली जज साहब के सामने प्रस्तुत करने के लिए भेज दे. रजिस्ट्री को कोई अधिकार नहीं है कि वह पत्रावली अपने पास रोक ले.
सीनियर एडवोकेट श्री इंद्र भूषण सिंह की फ़ेस बुक वाल से साभार