चंपारण किसान आंदोलन के लिए गाँधी को ही क्यों बुलाया!

गाँधी के चम्पारण आने पर सरकार घबरा गई थी

चंपारण किसान आंदोलन भारत में गांधी जी पहला जन संघर्ष था, जिसकी कामयाबी से कांग्रेस का झंडा गया और स्वतंत्रता आंदोलन में तेज़ी आयी. मगर सवाल है कि चंपारण से राजकुमार शुक्ला गांधी जी को बुलाने के लिए क्यों इतना आतुर थे. एक पड़ताल कर रहे हैं – डा चंद्रविजय चतुर्वेदी.

 सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन को अंग्रेजों ने दबा दिया था ,परन्तु अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष की ज्वाला सर्वाधिक रूप से किसानों के दिल में ही धधकती रही। देश के किसान ही अंग्रेजी हुक़ूमत की नीतियों से सर्वाधिक शोषित ,प्रताड़ित होते रहे। ब्रिटिश हुक़ूमत के लिए ,देशी रियासतों ,जमींदारों के लिए सबसे बड़ा करदाता किसान ही होता रहा जिसके बल पर सब ऐश करते थे । 

अंग्रेजी राज में समय समय पर किसान आंदोलन हुए और उन्होंने आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई और अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिलाकर रख दी। आजादी के पहले के किसान आंदोलनों पर गाँधी का स्पष्ट प्रभाव रहा है जिससे वे पूर्ण अहिंसक रहे। चम्पारण सत्याग्रह गाँधी के लिए पहला किसान आंदोलन और सत्याग्रह था जिसने एक इतिहास रच दिया। इस सत्याग्रह का महत्वपूर्ण पहलू है की नेतृत्व के लिए किसानो ने गाँधी को ही क्यों आमंत्रित किया जबकि उस युग में गाँधी से बड़े नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक,ऐनी बेसेंट और पंडित मदनमोहन मालवीय राष्ट्रिय स्तर पर थे तथा बिहार में ब्रजकिशोर बाबू और मजहरुल हक़ जैसे नेता उपलब्ध थे। चम्पारण के किसानो ने अपने एक प्रतिनिधि राजकुमार शुक्ल के द्वारा जो पत्र 27 फरवरी 1917 को गाँधी के पास भेजा वह एक ऐतिहासिक धरोहर है --

नेतृत्व के लिए गाँधी जी को पत्र …

मान्यवर महात्मा,

किस्सा सुनते हो रोज औरों के आज मेरी भी दास्तान सुनो,

आपने उस अनहोनी को प्रत्यक्ष कर दिखाया जिसे टालस्टाय जैसे महात्मा केवल विचार करते थे। इसी आशा और विश्वास केवशीभूत होकर आपके निकट अपनी रामकहानी सुनाने के लिए तैयार हैं। हमारी दुखभरी कथा उस दक्षिण अफ्रीका के अत्याचार ,जो आप और आपके अनुयाई और सत्याग्रही बहनो और भाइयों के साथ हुआ से कहीं अधिक है। हम अपना वह दुःख जो हमारी उन्नीस लाख आत्माओं के ह्रदय पर बीत रहा है ,सुनाकर आपके कोमल ह्रदय को दुखित करना उचित नहीं समझते। बस केवल इतनी ही प्रार्थना है की आप स्वयं आकर अपनी आखों से देख लीजिये , तब आपको अच्छी तरह से विश्वास हो जाएगा की भारतवर्ष के एक कोने में यहाँ की प्रजा –जिसको ब्रिटिश छत्र की सुशीतल छाया में रहने का अभिमान प्राप्त है ,किस प्रकार के कष्ट सहकर पशुवत जीवन व्यतीत कर रही है।

हम और अधिक न लिखकर आपका ध्यान उस प्रतिज्ञा की और आकृष्ट करना चाहते हैं जो लखनऊ कांग्रेस के समय और फिर वहां से लौटते समय आपने की थी अर्थात --मैं मार्च अप्रैल महीने में चम्पारण आऊंगा। बस अब समय आगया है। श्रीमन अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करे। चम्पारण की उन्नीस लाख दुखी प्रजा श्रीमान के चरण कमल के दर्शन के लिए टकटकी लगाए बैठी है ,और उन्हें आशा ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास है की जिसप्रकार भगवान राम के चरणस्पर्श से अहिल्या तर गई ,उसीप्रकार श्रीमान के चम्पारण में पैर रखते ही हम उन्नीस लाख प्रजा का उद्धार हो जाएगा। 

श्रीमान का दर्शनाभिलाषी

राजकुमार शुक्ल

चंपारण किसान आंदोलन के पहले जब गाँधीजी भारत आये …

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चंपारण किसान आंदोलन के नेतृत्व के लिए गाँधी जी
दक्षिणी अफ्रीका से गाँधी जी 1915में स्थाई रूप में भारत लौटे और उन्होंने देशव्यापी दौरा प्रारंभ किया प्रबुद्ध वर्ग में दक्षिणी अफ्रीका के गाँधी की एक शोहरत थी की वहां उन्होंने सामान्यजनों के अहिंसक सत्याग्रही आंदोलन से शासकों को झुकने और अमानवीय सरकारी आदेशों को रद्द करने के लिए मजबूर किया था। चम्पारण के किसानो पर निलहों के अत्याचार से मुक्ति और उनके सामुदायिक बदहाली को दूर करने के लिए 10 अप्रैल 1917 को बांकीपुर पहुंचे। गाँधी जी चम्पारण के बारे में कुछ नहीं जानते थे बस इतना जान पाए थे की किसान ब्रिटिश हुकूमत की नीतियों से त्रस्त हैं। 

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के बाद जितने भी किसान आंदोलन हुए उनकी परिणति गुरिल्ला युद्ध जैसी हिंसक हो गई परिणामतः बर्बर हुकूमत द्वारा बुरी तरह कुचल दिया गया। गाँधी की दृष्टि समस्याओं के समाधान के लिए अहिंसक रही। उन्होंने जिला प्रशासन से बात की नील प्लांटर ऐशोशिऐशन के पदाधिकारियों से मिले और पारदर्शिता के साथ अपना मंतव्य स्पष्ट किया।

राम ने अपने जीवन में वचनों का पालन किया, यह गाँधी के लिए आदर्श था(Opens in a new browser tab)

चंपारण किसान आंदोलन के नेतृत्व के दौरान गाँधी जी पर मुकदमा ...

गाँधी के चम्पारण आने पर सरकार घबरा गई थी, गाँधी बिहार से बाहर चले जाएँ इसके लिए धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लगा दी गई। 18 अप्रैल 1917 को निषेधाज्ञा भंग करने के आरोप में मोतिहारी के मजिस्ट्रेट के समक्ष जो बयान दिया वह दुनिया के सत्याग्रह और आंदोलनों के लिए एक मार्गदर्शक ऐतिहासिक दस्तावेज है। गाँधी जी ने कहा —-” अदालत की अनुमति से मैं यह बात संक्षिप्त में बताना चाहता हूँ की नोटिस के द्वारा मुझे अपराध संहिता की धारा 144 के तहत जो आदेश दिया गया है उसकी अवज्ञा सा लग रहा गंभीर फैसला मैंने क्यों किया। मेरीविनम्र राय है की यह स्थानीयअधिकारियों और मेरी समझ के अंतर भर का सवाल है। मैं इस देश में राष्ट्र और मानव सेवाकरने की मंशा से आया हूँ। “

मुझे यहाँ आने का दबाव भरा न्यौता इस आधार पर दिया गया की नील की खेती करने वाले रैयतों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते और मैं आकर यह देखूं तथा उनकी मदद करूँ। समस्या को जाने बिना मैं कोई मदद नही कर सकता। मैं तो इसी के अध्ययन और संभव हो तो शासन तथा निलहों की मदद से अध्ययन के लिए आया हूँ। मेरा कोई दूसरा उदेश्य नहीं है ,और मैं यह नहीं मान सकता की मेरे यहांआने से सार्वजनिक शांति भंग होगी और लोगों की जान का नुकसान होगा। मैं ऐसे मामलों में पर्याप्त अनुभव का दावा कर सकता हूँ। पर प्रशासन ने इस यात्रा को लेकर अलग ही राय बनाई। मैं उनकी मुश्किलों को पूरी तरह समझता हूँ और मानता हूँ की उनको जैसी सूचना दी जाती है वे उसी के आधार पर काम करते हैं।

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गाँधी के चम्पारण आने पर सरकार घबरा गई थी

कानून का पालन करने वाला नागरिक होने के नाते मेरे मन में भी सबसे पहले यही ख्याल आया की इस आदेश को मान लूँ। पर ऐसा करने से अपने कर्तव्यबोध और मुझे बुलाने वालों की उम्मीद का उलंघन होता है। मैं मानता हूँ की अभी मैं उनके बीच रहकर ही उनका काम कर सकता हूँ। इसके चलते मैं स्वेच्छा से यह काम नहीं छोड़ सकता। कर्तव्यों के टकराव में मैं यही कर सकता हूँ की खुद को यहाँ से हटाने न हटाने की जवाबदेही शासन पर छोड़ दूँ। मैं भली भांति जानता हूँ की भारत के सार्वजनिक जीवन में मेरी जैसी स्थितिवालों को आदर्श उपस्थित करने ने बहुत सतर्क रहना पड़ता है।

मेरा दृढ विश्वास है की जिस स्थिति में मैं हूँ उस स्थिति में प्रत्येक आत्मसम्मानी व्यक्ति को वही काम करना सबसे अच्छा है जो इस समय मैंने करने का निश्चय किया है और वह यह की मैं बिना किसी प्रकार का विरोध किये आज्ञा न मानने का दंड भुगतने के लिए तैयार होजाऊं। मैंने जो बयान किया उसके पीछे कहीं भी यह इच्छा नहीं है की मुझको जो दंड मिलने वाला है उसमे किसीप्रकार की कमी की जाये। मरे बयान का उदेश्य यह दिखलाना है की मैंने सरकारी आदेश की अवज्ञा शासन के प्रति अश्रद्धा के चलते नहीं की है बल्कि मैंने उससे उच्चतर आज्ञा अपने बुद्धिविवेक की आज्ञा की आज्ञा पालन उचित समझा।

गाँधी पर चलाया गया मुकद्दमा 20 अप्रैल को वापस ले लिया गया और उन्हें यह अनुमति प्रदान कर दी गई की वे चम्पारण के रैयतों की स्थिति का अध्ययन करे जिसमे प्रशासन भी उनका सहयोग करेगा। पुरे देश में ही नहीं दुनिया के अखबारों में इस सत्याग्रह की चर्चा हुई। गाँधी न तो चम्पारण की बोली भोजपुरी जानते थे और न वहां के कैथी लिपि से ही परिचित थे। बिहार के बड़े बड़े वकील समाजसेवी चम्पारण में गाँधी के सहयोग के लिए उपस्थित हुए 
alt="चंपारण किसान आंदोलन के साथी "
चंपारण किसान आंदोलन के साथी

जिन्होंने केवल कारकुन और दुभाषिये का काम किया। गाँधी जी ,राजकुमार शुक्ल के साथ अकेले चम्पारण के लिए चले थे पर देखते ही देखते वहां ब्रजकिशोर बाबू ,बाबू राजेंद्र प्रसाद ,आचार्य जे बी कृपलानी ,मौलाना मजहरुल हक़ ,रामनवमी प्रसाद ,अनुग्रहनारायण सिंह ,अवंतिका बाई ,एंड्रूज जैसे तमाम वकील समाजसेवी बुद्धिजीवी देशभर से चम्पारण आने लगे। बाद में कस्तूरबाजी और महादेव देसाई भी आगये। निलहे किसानो के साथ साथ स्वच्छता मिशन और अन्य सामाजिक कार्यक्रम भी इससे जुड़ता गया जिसने समूचे देश का ध्यान आकृष्ट किया।

Chandravijay Chaturvedi
Dr Chandravijay Chaturvedi

डा चन्द्रविजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज

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