पहलगाम के बाद क्या?

Professor Sudarshan Iyenger

प्रो सुदर्शन अयंगर

किसी शायर ने कहा है:

खौफ का बादल मेरे बामेहुनर तक छा गया,

अबकी बारिश में ये सैलाब घर तक  गया।

ज़हर फैला था कहीं बूढ़ी जड़ों के आसपास,

अब तो यह नीलापन बरगोसमर तक  गया।

ये शेर आज के भारत की स्थिति को बड़ी सच्चाई के साथ बयां करते हैं।

2 जनवरी 2016 को पठानकोट स्थित वायुसेना अड्डे पर आतंकियों ने दुस्साहसिक हमला किया। इसका दावा यूनाइटेड जिहाद काउंसिल ने किया। फिर 14 फरवरी 2019 को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा जिले के लेथपोरा में एक आत्मघाती हमलावर ने विस्फोटक से भरी गाड़ी से CRPF के काफिले को निशाना बनाया, जिसमें 40 जवान शहीद हुए और कई घायल हो गए। इस हमले की जिम्मेदारी जैश-ए-मोहम्मद ने ली।

यह एक सुनियोजित और घातक गुरिल्ला हमला था। उस दिन 78 वाहनों का काफिला था—पर सवाल यह उठता है कि इतनी बड़ी सुरक्षा चूक कैसे हुई? इसका जवाब अब तक अधूरा है।

इसके जवाब में भारत सरकार ने ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की, जिससे जनता को कुछ राहत का भरोसा मिला।

लेकिन 22 अप्रैल 2025 को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम के पास बैसरन क्षेत्र में एक बार फिर आतंकियों ने सैलानियों पर हमला किया। धर्म पूछकर 26 हिंदू यात्रियों की गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस नृशंस हत्याकांड की जिम्मेदारी ‘द रेसिस्टेंट फ्रंट’ ने ली है—एक संगठन जिसके बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है।

अब फिर वही सवाल—सुरक्षा व्यवस्था कहाँ थी? खुफिया जानकारी क्यों नहीं थी? और जनता को फिर कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिलेगा।

“पहलगाम हमला: भारत की एकता और सुरक्षा पर बढ़ते आतंकी खतरे”

पठानकोट, पुलवामा और अब पहलगाम में हुए जानलेवा हमलों से यह स्पष्ट है कि आतंकियों में न केवल दुस्साहस है, बल्कि आत्मविश्वास भी है कि वे बार-बार हमला कर सकते हैं और हम कुछ नहीं कर पाएंगे। उनका मकसद है हमारी एकता और कौमी इख़लास को तोड़ना।

हम मिलते हैं, दुःख जताते हैं, सांत्वना देते हैं और फिर शांति की बातें करते हैं। लेकिन क्या यह काफी है?

अब वक्त आ गया है कि हम सिर्फ बातें न करें, बल्कि एकजुट होकर आम लोगों तक जाएँ। गांव, मुहल्लों, घरों में पहुँचें—जहाँ नफ़रत का ज़हर भरा जा रहा है। यह हमारी ज़िम्मेदारी है।

दरअसल, हम डर गए हैं। बोलने से भी डरते हैं कि कोई हमें पकड़ न ले। हमें अपने-अपने खेमों से निकलना होगा।

तो क्या संदेश ले जाना है?

मेरी समझ में एक ही संदेश है—जो देश तानाशाही व्यवस्था में चल रहे हैं वहाँ नागरिक स्वतंत्रता लगभग समाप्त हो चुकी है। पर लोकतंत्र में भी अब तानाशाही मानसिकता पनप रही है, जो मानती है कि वह कभी गलत नहीं हो सकती। ऐसी सोच धर्मनिरपेक्षता को छलावा मानती है और सर्वधर्म समभाव की जगह संकीर्ण धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देती है।

यह आग सबको झुलसाएगी—जो इसे हवा दे रहे हैं वे भी नहीं बचेंगे। हमारा इतिहास गवाह है कि भारत इख़लास और समावेशी सोच से ही आगे बढ़ा है। तुष्टिकरण गलत था, लेकिन बहुसंख्यक वर्चस्व भी उतना ही गलत है। दो गलत मिलकर एक सही नहीं हो सकते।

अगर हम साथ रहेंगे तो जिएंगे, और बंटे तो बिखर जाएंगे।

लड़ाई तो पर्यावरण संकट से भी है—कुदरत मारेगी तो धर्म पूछकर नहीं मारेगी।

तो आइए—जुट जाएँ और काम पर लगें। यही वक्त की पुकार है।

22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने एक बार फिर भारत की सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। पठानकोट, पुलवामा से लेकर अब पहलगाम—क्या भारत इससे सबक लेगा?

नोट : प्रोफ़ेसर सुदर्शन अयंगर , गांधी रिसर्च फाउंडेशन जलगांव के निदेशक हैं। वह गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद के निदेशक रह चुके हैं।

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