क्या हम प्रकृति के ख़िलाफ़ जंग छेड़ कर ख़ुदकुशी कर रहे हैं?

यूरोप में घनघोर बारिश से भयंकर बाढ़

@Shivkant

पिछले सप्ताह जर्मनी के पश्चिमी ज़िलों, बेल्जियम और नेदरलैन्ड्स में हुई घनघोर बारिश में 150 से अधिक लोग मारे गए हैं और हज़ारों लापता हैं। जर्मनी के पश्चिमी राज्य उत्तरी राइन-वेस्टफ़ालिया में पुरानी राजधानी बॉन के समीपवर्ती ज़िलों और उनसे लगते बेल्जियम के लिएज़ और वरवियर्स शहरों पर बादल फटने से जर्मन आर, मूज़ और वेस्द्र नदियों में सूनामी जैसी बाढ़ आई जो कई गाँवों और शहरों के घरों और वाहनों को बहा ले गई। 

बाढ़ के कारण इसी इलाक़े में पड़ने वाले श्टाइनबाख़ बाँध के टूटने का ख़तरा पैदा हो गया है। एहतियात के तौर पर पानी के रास्ते में पड़ने वाले तीन गाँवों को खाली कराया जा रहा है।

जर्मनी में ऐसी भयंकर बाढ़ 60 वर्षों के बाद आई है जिससे होने वाले नुक़सान का अनुमान अरबों डॉलर पार कर चुका है। बरसाती बादल अब स्विट्ज़रलैंड, सर्बिया और पूर्वी यूरोप की तरफ़ बढ़ रहे हैं जहाँ पिछले कई हफ़्तों से गर्मी की लहर चल रही थी। साइबेरिया का तापमान 30डिग्री और मॉस्को का तापमान 35 डिग्री से ऊपर चला गया था। लेकिन जैसी गर्मी अमरीका के पश्चिमी प्रशान्त तटवर्ती राज्यों, कैलीफ़ोर्निया, वॉशिंगटन और ऑरेगन में और कैनडा के पश्चिमी राज्य ब्रिटिश कोलम्बिया में पड़ी वैसी आज तक कहीं नहीं देखी गई।

मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले सप्ताह कैलीफ़ोर्निया के डैथ वैली रेगिस्तान में तापमान 54.4 डिग्री सेल्शियस जा पहुँचा था जो दुनिया में आज तक रिकॉर्ड किए गए उच्चतम तापमान के बराबर है। इससे पहले पिछले महीने कैनडा के लिटन शहर में पारा 49.4 डिग्री तक जा पहुँचा था जो इस शहर के पिछले रिकॉर्ड से पाँच डिग्री ज़्यादा था। उन्हीं दिनों अमरीकी शहर पोर्टलैंड का तापमान 46.7 डिग्री जा पहुँचा था जो इस शहर के पिछले रिकॉर्ड से पाँच डिग्री ज़्यादा था। मौसम शास्त्रियों और पर्यावरण शास्त्रियों का मानना है कि रिकॉर्ड तापमान की पाँच डिग्री की छलाँग बेहद चिंताजनक है और जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है।

मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि कृत्रिम बुद्धि और सुपर कंप्यूटरों की मदद की गई गणनाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि अकाल, अतिवृष्टि, रिकॉर्ड तोड़ ग्रीष्म लहर और शीत लहर की जैसी घटनाएँ जलवायु परिवर्तन के बिना एक लाख वर्ष में एक बार होनी चाहिए वे अब हर कुछ वर्षों के बाद होने लगी हैं। अमरीका और कैनडा की ग्रीष्म लहर में पाँच सौ से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं। सौ करोड़ के लगभग जलजीव मारे गए हैं और हज़ारों जगह आग लगी है जो जंगलों को जला कर भस्म कर रही है। कैलीफ़ोर्निया में अकाल जैसी परिस्थितियाँ बनती जा रही हैं।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एन्तोनियो गुतरेश ने बीबीसी के एक पर्यावरण मंच पर बोलते हुए कहा, “हमारी धरती टूट चुकी है। इंसान ने प्रकृति के ख़िलाफ़ जंग छेड़ रखी है। यह ख़ुदकुशी है। क्योंकि प्रकृति हमेशा पलटवार करती है और वह पूरी ताकत और तैश के साथ वही कर रही है।” महामारी, सूखा, बाढ़, ग्रीष्म लहर और शीत लहर जैसी प्राकृतिक विपदाएँ आना नई बात नहीं है। लेकिन वे जितनी जल्दी-जल्दी और जितनी तीव्रता के साथ आने लगी हैं उसे देखकर चिंता होना स्वाभाविक है।

जब जर्मनी, बेल्जियम और नेदरलैन्ड्स जैसे यूरोप के धनी देश बादल फटने से आने वाली बाढ़ के सामने इतने असहाय नज़र आएँ तो कल्पना करें कि भारत जैसे देशों के उन इलाक़ों में बादल फटने लगें जहाँ अक्सर नहीं फटते हैं तो क्या होगा? साइबेरिया की तरह यदि हिमालय के ग्लेशियरों पर तापमान का पारा शून्य से नीचे रहने के बजाय यदि शून्य से कई डिग्री ऊपर छलांग लगाने लगे तो क्या होगा? ग्लेशियरों के तेज़ी से पिंघलने से जो हिमस्खलन, भूस्खलन और बाढ़ आएगी उसे हम कैसे झेलेंगे? ग्लेशियर सूखने के बाद गंगा और यमुना यदि कैलीफ़ोर्निया की डैथ वैली जैसे रेगिस्तानों में बदलने लगीं तो क्या होगा?

ये सारे सवाल तभी तक अतिरंजनापूर्ण और असंभव लगते हैं जब तक मौसम का मिज़ाज नहीं बदलना शुरू नहीं होता। जो लोग पहाड़ों में रहते हैं उनका कहना है कि उसे बदलते हुए दशकों बीत चुके हैं। दिल्ली, पंजाब और हरियाणा में रहने वाले और बारिश की प्रतीक्षा में जुलाई की गर्मी में झुलसते लोगों को मौसम के बदलते मिज़ाज का प्रमाण देखने कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है। सवाल यह है कि उसकी रोकथाम के लिए हम क्या और कितना करने के लिए तैयार हैं। तैयार हैं भी या नहीं! इसी साल नवंबर में स्कॉटलैंड के शहर ग्लासगो में 26वाँ जलवायु परिवर्तन संमेलन होने जा रहा है जहाँ सरकारें जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए योजना पर सहमति बनाने की कोशिश करेंगी।

राष्ट्रपति बाइडन के सत्ता संभालने के बाद से अमरीका और उसके दबाव में आकर चीन जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए कुछ करने की बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं। जबसे रिकॉर्ड शुरू हुए हैं तब से अब तक हर साल हम वायुमंडल को गर्म करने वाली ग्रीनहाउस गैसें पिछले सालों से बड़ी मात्रा में वायुमंडल में छोड़ते आ रहे हैं। ज़रूरत हर साल जितनी गैसें हम वायुमंडल में छोड़ते हैं उनसे ज़्यादा को वायुमंडल से सोखने की है। लेकिन अभी तक बड़े-बड़े देश अगले 20 से 40 बरसों के भीतर जितनी गैसें छोड़ते हैं उतनी ही सोखने की स्थित में पहुँचने के वादे कर रहे हैं और ये वादे भी बहुत विश्वसनीय नहीं जान पड़ते।

इसलिए बहुत से पर्यावरण शास्त्रियों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन की रोकथाम की जंग हम हार चुके हैं। अब प्रकृति के पलटवार का इंतज़ार करने और उससे बचाव के लिए जो हम से बन सके करने के अलावा हम कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि सोचिए! क्या आप माँस खाने से पहले यह सोचने के लिए भी तैयार हैं कि वह शाकाहारी भोजन से ढाई गुना ग्रीनहाउस गैसें छोड़कर बनता है। यह जानते हुए भी क्या उसे खाना ज़रूरी है? क्या आप बड़ी सी कार ख़रीदने या कार से कहीं जाने से पहले यह सोचने के लिए तैयार हैं कि आपकी कार कितनी ग्रीनहाउस गैसें छोड़ने वाली है? क्या आप उसके बिना, पैदल या साइकिल से नहीं जा सकते?

यदि आप इस तरह की छोटी-छोटी और आसान बातें सोचने के लिए भी तैयार नहीं और जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए अपनी तरफ़ से कुछ भी करने के लिए तैयार नहीं तो आपको प्रकृति के पलटवार को झेलने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। आपको किसी से कोई शिकायत करने का कोई हक़ नहीं है। जैसे यह जानते हुए भी कि मास्क पहनने से कोरोना की महामारी से बचाव हो सकता है, बिना मास्क पहने लापरवाही से घूमने वाला व्यक्ति जब बीमार पड़ जाता है तो उसे किसी से कोई शिकायत करने का हक़ नहीं रहता।

Leave a Reply

Your email address will not be published.

20 + nine =

Related Articles

Back to top button