सूर्य की प्रतीक्षा
डा चन्द्र विजय चतुर्वेदी ,प्रयागराज
हम जब जन्मे
रात ढलने लगी थी
बस हल्का धुंधलका सा था
चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई पड़ने लगी थी
मुर्गों ने बांग दे दी थी
मंदिरों में घंटे घड़ियाल गूंजने लगे थे
मस्जिद की अजान साफ सुनाई पड़ने लगी थी
हमने जब आखें खोली
हमारी पीढ़ी के पहले की पीढ़ी ने
इशारा किया पूरब की ओर देखो
सूर्य उदित होने वाले हैं
चलो अर्घ्य देकर गायत्री मन्त्र से
उनका अभिषेक करते हैं
मेरे पहले की पीढ़ी ने
अर्घ्य देने के लिए कई बार कलश उठाया
कभी पानी की धार छोड़ना भी चाहा
गायत्री मन्त्र के कुछ शब्द भी बुदबुदाये
फिर उनके स्वर थम गए
अर्घ्य देते हाथ रुक गए
अरे यह तो वह सूर्य नहीं है
जिसके अभिषेक के लिए यह कलश लिए
बरसों बरस अँधेरे में भटका हूँ
उस पीढ़ी ने वह अर्घ्य कलश और
गायत्री मंत्र हमारी पीढ़ी को थमा दिया
सूर्य की प्रतीक्षा में हमारी पीढ़ी ने
उस प्रतिज्ञा को ही भंग कर दिया
जो प्रतिज्ञा अर्घ्य का कलश थामते
अपने पूर्व पीढ़ी के सामने ली थी
कि भली प्रकार असली सूरज पहचान कर ही
अर्घ्य समर्पित करेंगे और
गायत्री मंत्र का उद्घोष करेंगे
जब भी पूरब में कोई भी रोशनी दिखी
हमारी पीढ़ी ने अनजाने में नहीं
पूर्ण सचेत होकर
जुगुनुओं को अर्घ्य समर्पित किया
और उनके स्तवन में
गायत्री मन्त्र का ऐसा उद्घोष कर रहे हैं
जिससे सारी आवाजें दब गई हैं
पूर्व पीढ़ी की बची खुची – बूढी आँखें
सूर्य की प्रतीक्षा ही कर रहे हैं.