एक और लोहिया की प्रतीक्षा

जय प्रकाश पांडेय

दमनकारी राजसत्ता एवं बाजार के विस्तारवादी दखल ने हर दौर में विचार के लिए एक आकर्षण प्रस्तुत किया है। बीसवीं सदी के चौथे दशक में इस आकर्षण से ही राजनीतिक रंगमंच पर डॉ राम मनोहर लोहिया का पदार्पण हुआ। शोषण रहित समतावादी समाज की स्थापना के संदर्भ में उनकी चिंताएं आज भी खारिज नहीं है। इस देश में राजनीतिक विचारधारा के भावनात्मक सर्गों से बाहर निकलकर अगर तार्किक और सैद्धांतिक तौर पर विचार करें तो लोहिया की भूमिका तारीखी है। एक तरफ वो स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारी प्रतिबद्धता के साथ खड़े दिखते हैं तो दूसरी तरफ आजादी के बाद भारतीय राजनीति में प्रतिबद्धता को भावना से ज्यादा सैद्धांतिक कसौटी पर खरे होने
का दबाव अगर आज भी कहीं भी शेष है तो इसका श्रेय भी लोहिया को जाता है। उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता समाजवाद
के प्रति थी। उन्होंने सामाजिक न्याय एवं मानवतावाद को नई तार्किक दृष्टि देने के साथ ही साधारण जनता को सत्ता,
सामंती मूल्यों और परंपराओं के बरक्स निर्भय प्रतिरोध के लिए एकजुट किया। अपने नैतिक बल, एवं तार्किक दृष्टि के
बल पर उन्होंने समकालीन जीवन में गैर बराबरी पैदा करने वाली संस्थाओं, परंपराओं से मुठभेड़ मोल ली। उन्हें अपने
जीवन काल में भले ही शोषण पर आधारित सामंती अवशेषों वाली व्यवस्था को पूरी तरह खत्म करने में सफलता नहीं
मिली। लेकिन यह उनके ही बूते की बात थी कि प्रतिक्रियावादी, सामंती सुरक्षा की अभेद दीवार में एक सुराग बन सका
जो समाजवाद के मुक्ति का मार्ग प्रस्थान बिंदु बन गया।

भारत में समाजवादी आंदोलन की स्थापना में डॉक्टर लोहिया की अहम भूमिका थी। उन्होंने
पूंजीवाद और साम्यवाद की सीमाओं को रेखांकित करते हुए भारतीय संदर्भ में समाजवाद को व्यवहारिक रूप दिया।
वह मानते थे कि -‘ऊंचों के बारे में क्रोध भी समाजवाद नहीं है और हासिए के लोगों से अलगाव भी समाजवाद नहीं है।
शोषण के विरोध में क्रोध और छोटों के प्रति करुणा का नाम समाजवाद है।’ उनका समाजवाद समता के साथ समृद्धि का
आग्रही था । डॉक्टर लोहिया कहते थे कि समाजवाद गरीबी के समान बंटवारे का नाम नहीं बल्कि समृद्धि के ज्यादा से
ज्यादा विस्तार का नाम है। बिना समता के समृद्धि असंभव है और बिना समृद्धि के समता बेकार है। डॉक्टर लोहिया ने
सामाजिक न्याय के सवाल को समग्रता से देखा। वह मानते थे कि आर्थिक गैर बराबरी और जाति- प्रथा जुड़वा राक्षस है।
अगर एक से लड़ना है तो दूसरे से भी लड़ना जरूरी है। सामाजिक अन्याय के लिए जिम्मेदार कारणों में आर्थिक गैर
बराबरी को वह महत्वपूर्ण मानते थे। उनके अनुसार अमीरी-गरीबी की खाई से सामाजिक अन्याय पैदा होता है। इससे
सामाजिक व्यवस्था असंतुलित होती है। आर्थिक अन्याय खत्म होने से ही सामाजिक समता के द्वार खुलेंगे। उन्होंने अपने
भाषणों में कहा कि आर्थिक बराबरी होने पर जाति व्यवस्था अपने आप खत्म हो जाएगी और सामाजिक बराबरी
स्थापित हो जाएगी। जाति व्यवस्था के खात्मे के लिए सामाजिक समता पर आधारित विचार अपनाना होगा।

जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई घृणा से नहीं विश्वास के माहौल में होनी चाहिए। यही अवधारणा
डॉक्टर लोहिया को वामपंथियों से पृथक और विशिष्ट बनाती है। अतिपिछड़ों, पिछड़ों में सहभागिता की चेतना फैलाने
के लिए उत्तर भारत में उस दौर के लोकप्रिय नारे- ‘डॉक्टर लोहिया बांधे गांठ पिछड़ा पावै सौ में साठ’-के साथ जागरण
अभियान चलाया। जिससे यूपी, बिहार में सामाजिक न्याय के नेतृत्व की नई पौध पैदा हुई। वह महिलाओं की
राजनीतिक सहभागिता, उनके संपत्ति के अधिकार एवं सामाजिक -सांस्कृतिक जीवन में पुरुषों के बराबर की प्रतिष्ठा पर
बल देते थे। वह नारी की अस्मिता को पुरुष की कृपा एवं दया से मुक्त रखना चाहते थे‌‌। इसीलिए वह सावित्री के बरक्स
द्रोपदी को आदर्श नारी मानते थे। वस्तुतः द्रोपदी अन्याय अत्याचार के प्रतिरोध का प्रतीक चरित्र है।

डॉक्टर लोहिया के चिंतन पर गांधीवाद, मार्क्सवाद के साथ ही पैतृक परिवेश ,मुंबई, कोलकाता
बनारस के शिक्षण संस्थान के वातावरण एवं समकालीन यूरोपीय चिंतन धारा का प्रभाव दृष्टिगत होता है। ध्यातव्य है
राम मनोहर लोहिया ने जर्मनी के हंबोल्ट विश्वविद्यालय में 1932 में ‘नमक का अर्थशास्त्र’ शोध प्रबंध लिखकर डॉक्टर
की डिग्री हासिल की थी। स्वभाव से फक्कड़ डॉक्टर लोहिया ने गांधीवाद, मार्क्सवाद, पश्चिम के चिंतनधारा एवं भारत
की सांस्कृतिक परंपरा से प्रेरणा ली। किंतु उन्होंने किसी वैचारिक शिविर की फोटोकॉपी बनने से इनकार कर दिया।
उनके यहां इन सभी विचारों परंपराओं के संश्लेषण दिखता है, जिस पर उनके मौलिक व्यक्तित्व की छाप है। इसीलिए वह
एक तरफ खुद को ‘गांधी जी का कुजात शिष्य’ कहते थे तो दूसरी तरफ यूरोपीय समाजवाद को एशियाई महाद्वीप के
लिए अप्रासंगिक बताते थे। राजनीति का स्तर पर लोहिया सत्ता के विकेंद्रीकरण के हिमायती थे। उनकी चौखंभा राज्य
(ग्राम- जिला- प्रांत – केंद्र) की परिकल्पना इसका साक्ष्य है।वह मानते थे कि बड़ी राजनीति देश के कूड़े को बुहारती है,

छोटी राजनीति मोहल्ले अथवा गांव के कूड़े को साफ करती है। वह राजनीति रोजी- रोटी की समस्या से अलग नहीं
मानते थे। उन्होंने कहा था कि जिस राजनीति में लोगों को रोटी नहीं मिलती, उनका पेट नहीं भरता, वह राजनीति भ्रष्ट,
पापी और नीच राजनीति है। उनकी बहु प्रसिद्ध सप्तक्रांति की अवधारणा-स्त्री पुरुष भेद, रंग और नस्ल आधारित
भेदभाव, जातिगत विभेद, विदेशी गुलामी, निजी पूंजी की असमानता, निजता के हनन और हिंसा से मुक्ति पर आधारित
है। सभी स्तरों पर अन्याय के प्रतिरोध से संबद्ध सप्तक्रांति के सिद्धांत उनके सामाजिक परिवर्तन के सात स्वप्न थे। उन्हें
लोकतांत्रिक सरकारों के अधिनायकवादी चरित्र का ज्ञान था। इसीलिए जनता से सतत प्रतिरोध का आवाहन करते थे-
‘जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती’ या फिर ‘सड़कें सूनी हो जाएगी तो संसद आवारा हो जाएगी’ जैसे उनके
बहुप्रसिद्ध कथन सरकारों की निरंकुशता पर जन दबाव के आग्रह से ही कहे गए थे। आर्थिक स्तर पर डॉक्टर लोहिया
भारी उद्योगों की जगह छोटे उद्योगों एवं प्रौद्योगिकी के विकास के हिमायती थे। डॉक्टर लोहिया ने उत्पादन के साधनों
के राष्ट्रीयकरण कर उस पर सामाजिक स्वामित्व की परिकल्पना की। उन्होंने अधिकतम और न्यूनतम आय निर्धारण
1:10 का अनुपात सुझाया। वहीं खेतिहर भूमि के पुनर्वितरण करते हुए अधिक बड़े छोटे किसान के भू- स्वामित्व को 1:3
के अनुपात का सुझाव दिया।

भारत की सांस्कृतिक बहुलता एवं धर्मनिरपेक्षता को डॉक्टर लोहिया इस देश की संस्कृति का
बुनियादी तत्व मानते थे। वह धर्म को दीर्घकालिक राजनीति और राजनीति को अल्पकालिक धर्म की संज्ञा देते थे।
भारतीय परंपरा के सांस्कृतिक प्रतीकों के प्रति उनकी आस्था सर्वविदित थी। भगवान शिव और कृष्ण उनके आदर्श
चरित्र थे। चित्रकूट की रामायण मेला का आयोजन भी उन्होंने किया था। हिंदू मुस्लिम दोनों धर्मों के अतिवादी सोच पर
हमला करते हुए उन्होंने कहा- जो हिंदू रजिया, शेरशाह, जायसी और रहिमन को अपना पुरखा मानने से इनकार करता
है ,वह हिन्दू देश के आजादी की रक्षा नहीं कर सकता तथा जो मुस्लिम गजनी, गोरी, बाबर को अपना पुरखा मानकर
उन्हें हमलावर मानने से इनकार करता है। वह भी आजादी का मतलब नहीं समझता। उन्होंने ‘भारत विभाजन के
गुनाहगार’ पुस्तक में हिंदू कट्टरवाद उन शक्तियों में शामिल किया था जो विभाजन का कारण बनी थी। उनका मानना
था जो हिंदू धर्म की गैर हिंदू परंपरा के वाहक थे, उन्होंने भारत का विभाजन करने में मुस्लिम लीग और अंग्रेजों की मदद
की। देशी भाषाओं के प्रबल पक्षधर डॉक्टर लोहिया ने साठ के दशक में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन का आवाहन किया। यह
आंदोलन उनके लिए राजनीति का मुद्दा नहीं था‌ बल्कि स्वाभिमान का प्रश्न था। लाखों-करोड़ों जनता को हीनग्रंथि से
उबारकर आत्मविश्वास से भर देने का स्वप्न था।

आज जब राजनीति में सिर्फ ‘राज’ बचा है और ‘नीति’ गायब हो रही है तब नीति को संगठित और
विन्यस्त कर समाजनीति गढ़ने की जरूरत है। तीन आने बनाम तेरह आने की ऐतिहासिक बहस से लोहिया ने सदन का
ध्यान आर्थिक विषमता गरीबी, कुपोषण की ओर खींचा था तो यह एक समाज नीति का ही आग्रह था। ‌आज संवैधानिक
संस्थाओं का सरकारीकरण हो रहा है, अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरा है, लोकतंत्र में चारों तरफ एक भयग्रस्त माहौल
है। पहले से कहीं अधिक भूख , कुपोषण से महामारी से साधारण जनता पीड़ित है। वहीं दूसरी ओरअमीर वर्ग दिन दूनी
रात चौगुनी संपत्ति एकत्र कर रहा है। ऐसे में देशवासियों को सड़क से संसद तक एक और लोहिया की प्रतीक्षा है जो
आवाम की वेदना को अपनी कंठ की ताकत से शोषित, पीड़ित, वंचित तबके के हक में आवाज उठा सके।

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