मेरे बदले हुए गाँव की एक झलक
राजधानी लखनऊ से रिटायरमेंट के बाद गाँव जाकर हतप्रभ
दिनेश कुमार गर्ग , लखनऊ
गांव आज भी ग्रामीण हैं पर नगरीयता और 21 सदी के समय के परिवर्तनों की कोटिंग/ टाॅपिंग के साथ । जब 20 सदी के उत्तरार्ध में 1958-68 तक मेरा बचपन मेरे गांव में बीत रहा था , तब भारत धुर ग्रामीण यानी मुगलों और अंग्रेजों के समय का भारत था , तब विकास के नाम पर कुछ घरों में अरंडी के तेल के दीये की जगह दुर्गन्ध फैलानी वाले मिट्टी के तेल यानी किरोसीन आयल की ढेबरी जलने लगी थी और हमारे घर में आठ लालटेन (लैन्टर्न ) जला करती थीं। जिस बहू को लालटेन हैण्डल करने का जिम्मा मिलता उसका चेहरा प्रदीप्त हो उठता , नये युग की अगवानी से, भारी-भरकम रसोई की मुक्ति से।
आजाद हुए 20 साल हो चुके थे , नया संविधान और कानून भारत को बदल रहे थे, जैसे जमींदारी विनाश हो चुका था, वर्ण व्यवस्था नकारी जा चुकी थी , अनुसूचित जाति को विशेष कानूनी हैसियत देकर रिवर्स ब्राह्मणवाद का सृजन हो चुका था , अठारवीं, उन्मनीसवीं सदी में अंग्रेजों व अन्माय यूरोपीयों के साथ आने वाली छूत की महामारियों, बीमारियों के डर से शुरू हुई छुआछूत समाप्त हो गयी थी, स्कूल में टाट पट्टी पर समाजवाद बिछना शूरू हो गया था, मेरे बगल मेरे टाट पर मेरा प्रिय सहपाठी मुन्नीलाल डोमार बैठता था और इस कारण मेरी दादी मुझे घर घुसने पर पहले पवित्र किया करती थीं। स्कूल मे हम दोनों दरिया व दूध शेयर कर लेते थे।
बैलगाडी़ , गधे , खच्चर और इक्कागाडी़ हमारे गांव की ऊबड़-खाबड़ कीच और धूल के मरु पर मंथर गति वाले परिवहन साधन थे।
गांव में साबुन मेरे बाबा, चाचा लोग और कुछ अन्य समृद्ध लोग लगाते थे पर शेष गांव के लोग शरीर शुद्धि के लिए पोतनी और वस्त्र शुद्धि के लिए रेहू का प्रयोग करते थे । महिलाओं के वस्त्र तो प्रायेण रेहू से ही धवलीकृत होते थे । कोरी कपडे़ बनाते थे और बहुत से लोग उनके मोटिया गांव निर्मित कपडे़ अन्न के बदले में खरीदा करते थे । हमारे घर में बाजार से सुपर फाइन नामक कपडे़ की थान और साडि़या, धोतियां आती थीं। नमक कुछ बाजार से और कुछ नमक लोनिया लोग बनाकर बेच जाते रहे। लोहार से लोहे और कारपेन्टरी का काम, धोबी बिरादरी से खेतों से उपज ट्रांसपोर्ट और कपडा़ सफाई, जूट के फार्म बैग्स व बडी़ लंबी-चौडी़ फर्श दरियां बनवाए जाते थे, वैवाहिक सिन्दूर आशीर्वाद आदि लिया जाता था , चमार बिरादरी पार्ट टाइम चर्म शोधन कर्म और पार्ट टाइम खेत मजदूरी और वैवाहिक कार्यक्रमों में गाजा-बाजा , नौटंकी का कार्य करते थे । लोध, यादव , कुनबी,बनिया ,नाई, सुनार, खटिक, पासी आदि भी खेती, बागवानी , व्यवसाय , फेरी कर सामान बेचने का कार्य करते थे। कहने का मतलब गांव में उत्पादन और विक्रय का एक सामाजिक तंत्र था जिसमें कई लोग समृद्ध और कई विपन्न होते, इतने समृद्ध कि शाम को ठंडई और भांग पार्टी, जुआ पार्टी , चिलम पार्टी , नचनियों की नाच पार्टी और पतुरिया की भी विशेष अवसरों पर नाच पार्टी की महफिलें होतीं, गप्पों और अनुभवों के फव्वारे, कहानियों का जंगल और ठहाकों की उद्दाम लहरें गांव के चारों कोने तक पहुंचतीं ।
विपन्न इतने कि ब्राह्मण लोग सीधा (एक टाइम के भोजन हेतु आटा, चावल, दाल, खटाई, गुड़, सब्जी, नमक इत्यादि ) मांगने आते या फिर सीधे रसोई से बना भोजन हीं मांग बैठते पर अन्य जातियों के विपन्न लोग आते तो उधार मांगते ,या रोजगार मागते या सीजनल सहायता मांगते पर भीख नहीं मांगते । कई विपन्न परिवारों के लोगों ने ठोस सहायता के बदले अपने किशोर वय के बच्चों को मेरे जैसे संपन्न घरों में बेगारी के लिए भी दे रखा था। पर तब विपन्नों, बूढो़ के लिए सरकार कहीं नहीं थी।लेकिन गांव में भूख से मौत भी नहीं होती थी । कोई मर गया भूख से तो वह गांव बदनाम हो जाता था भुक्खडो़ के गांव के रूप में ।
तब फिफ्टीज और सिक्सटीज तक गांव देश की मार्केट इकोनामीं से रिश्ता कायम कर तो रहा था पर सकुच-सकुच कर । गांव अपने आप में बहुत कुछ आत्म-निर्भर और कार्पोरेट बिजनेस की पकड़ से बाहर स्वतंत्र और स्वाभिमानी था, बात-बात में सरकार का , शासन का मुंह नहीं ताकता था । हर जाति की पंचायतें थीं , जमींदार की कोर्ट अलग। न्याय देन एण्ड देयर होता था , नहीं हुआ तो फिर फौजदारी के पहले कदम पर लाठी उठा करती थी , सिर फूटा करते थे और थाना अदालत भी तब जाना ही पड़ता था । कई लाठी युद्ध की फौजदारियों को मेरे बाबा जो एक्स जमीन्दार का रुतबा रखते थे और जिनके पास कांग्रेसी, सोशलिस्ट और जनसंघी नेता व थानेदार अपने रसूख को बढा़ने के लिए घंटे दो घंटे बैठना गौरव की बात समझते थे , वही अपनी कचहरी मे 15 से बीस मिनट की बहस के बाद निपटा दिया करते थे।
तो मेरे बचपन का वह टिपिकल गांव अब जब मैं बासठ बरस का हो गया हूं तो उसकी झलक लोटा लेकर टट्टी जाने वाले , बकरी और गोरू चराने वाले दृश्यों में ही मिलती है। अब गांव में पन्डोह की जगह पक्की नालियां, बिजली , पाइप्ड वाटर सप्लाई , सबमर्सिबिल पम्प से फूटते पानी के पच्चासों फव्वारे , मस्जिद और मन्दिर के लाउडस्पीकरों का कर्कश ध्वनिप्रदूषण , मनोरंजन के लिए चीखते स्पीकरों , मोटरों और मोटर साइकिलों के कानफाडू़ हार्न व प्रदूषण वही सब जो शहरों का मल था गांव की फिजां में खूब लबालब हो चुका है। इतना वायु प्रदूषण कि गर्ग परिवार के शिवालय की रोज धुलने वाली संगमरमरी धवल फर्श अभी प्रातः के दो घंटे में ही मोटरों की धूल से मटमैली हो गयी है। पेडों की पत्तियां जो चार दिन पहले की चक्रवाती वर्षा से धुलकर चमकदार हरी थी फिर उनकी पतझड़ के बाद की नयी पत्तियां धूल से पटने लगी हैं जो बता रही हैंकि वायु प्रदूषण शहरों से कम नहीं है।
अब मेरे गांव में नीम की दातून कुछ मनरेगा राशन कार्ड वंचित गिने चुने दरिद्र करते हैं , शेष मनरेगा वालों के मुंह की सफाई अब अमरीका वाली कालगेट कम्पनी करती है। रेहू बचा नहीं, रेहुआई में आलू की, मेन्था की फसल लहलहाती है और हिन्दुस्तान लीवर के साबुन कपडे़ और तन धोते हैं । मेन रोड व लिंक रोड अब पवित्र सड़क नहीं जहां आप गूं बूडे़ बिना निकल सकें । गोइड़ की सड़कें ओपेन लैट्रीन हैं , दोनोः बाजुओं पर लोटा धारी पुरुष और महिलाएं पेट साफ करतें हैं और गंधाता वातावरण उसका स्थाई गवाह बन जाता है। गांव में डामर सड़क, स्कूल, दूकान, बाजार, पेट्रोलपम्प, टीवी, फ्रिज , एसी कूलर सबका बाजार आ गया है। रेडीमेड कपडों का बाजार है, हाई हिल और स्किन टाइट लोअर व वक्षस्थाल को नये जमाने के अनुसार सजावट युक्त प्रकट करने वाला अपर पहना जाता है , न्यूयाॅर्क का फैशन गांव में बेधड़क प्रचलित है ।
अब पंचायत और परधानी करोड़पति बनने का रास्ता है। हमारे गांवके गत 25 वर्षों के लोकतंत्र का लाभ लेकर कई लोकप्रिय अखाडे़बाज लोग करोड़पति बन चुके हैं। वर्तमान में गांव का दलित प्रधान अब पूरे गांव के डाह का शिकार हो रहा है। उसका “महाप्रासाद” पिछले एक वर्ष से संगमररी ताजमहल में बदल रहा है फिर भी काम खत्म नहीं हो रहा है। उसके हाथ कारूं का खजाना लगा है। डेढ़ करोड़ रूपये केवल इस वर्ष आये जिसमे विकास विभाग की व्यौहारी काट कर उसके खर्च के लिए सवा करोड़ रुपये बता रहे हैं बचे हैं । पिछले चार साल से उसे ऐसे ही बचत हो रही है।
अब गांव में छुट्टा पशुओं के लिए गोवंश आश्रय स्थल बन गया है और दो बैलों की जोडी़ अब खेत से आऊट होकर इसी में पल रही है। बैल ट्रैक्टर मशीन से हार गये हैं । गरीब लोग जो बटाई का काम करते हैं वह खदही (गोबर की खाद ) के ठीकरे पुराने जमाने की ही तरह सड़क के किनारे बनाते है , पर अधिकांशतः किसान प्रगतिशील होकर उर्वरक, कीटनाशक आदि का प्रयोग करते हैं ।
किसान के पास अब अपना बीज नहीं है। उसे कंपनियों से हर साल लेना पड़ता है। गांव का सब कुछ अब बाजार अर्थव्यवस्था का गुलाम है। ईस्ट इंडिया कंपनी के गुमाश्तों की तरह बडी़ कंपनियों के गुमाश्ते फुटकर दूकानदार हो गये हैं । अब गांव उपभोक्ता हो गया है। गांव के किसान का उद्यम अब गांव के लोगों के लिए नहीं और गरीबों , मजदूरों की मेहनत भी अब किसानों के लिए नहीं। वे किसानी का उद्यम करते हैं तो मल्टीनेशनल कंपनियों, उर्वरक फैक्ट्रियों, मंडी परिषद और उसके दलालों के लिए, मजदूर अब ग्राम प्रधान से फिफ्टी-फिफ्टी के आधार पर मनरेगा मजदूरी और इसी 50-50 के फार्मूले पर कोटेदार से राशन पाकर अच्छे दिनों का भोग करता है।
मैं सचिवालय के सान्निध्य में नौकरी कर चुका हूं तो गांव पहुंचने पर प्रधानों, कोटेदारों ,थानेदारों, विलेज लेवल अधिकारियों की 50-50 के बावजूद बटमारी की शिकायत ले लोग आते है , स्वागत में गुड़ पानी और शरबत की जगह चाय और ब्रिटेनिया की बिस्कुट को पेश किये जाने की आशा करते हैं। उनकी समस्याओं का समाधान सचिवालय से हो नहीं सकता , जब मैं यह बताता हूं तो मुझे भी वे असहाय लोग 50-50 वाला सेवक मानते मुंह लटकाए चले जाते हैं ।
विधायक उनके जनप्रतिनिधि हैं पर वे भी वोट देने वालों की पहुंच से बाहर रहते हैं । सबको न्याय दिलाने निकलें तो सिस्टम का लुब्रिकेण्ट ही खत्म हो जाय और न्याय की रगड़ से गर्म सिस्टम अगले चुनाव में विधायक जी को रोआ भी दे।
तो गांव बदल गये हैं, आधुनिक सुविधाओं से लैस हैं , सोशल मीडिया से लेकर विश्व की अर्थव्यवस्था के हर अंग से आबद्ध हैं , बस देखना यह बाकी है कि गांव-गंवार की भाषा , शैली कब बदलती है और सोच में व्यक्तिपरकता कब घनीभूत होती है।
लेखक उत्तर प्रदेश सरकार के सूचना विभाग में उप निदेशक रह चुके हैं. उससे पहले अंग्रेज़ी के प्रवक्ता और उससे भी पहले दैनिक अमृत प्रभात अख़बार में उप सम्पादक.
नोट : ये लेखक ने निजी विचार हैं.