चिंता पर चर्चा Part II : देश में बेरोजगारी बढ़ने से बढ़ी खुदकुशी करने वालों की संख्या, क्या कहते हैं अर्थशास्त्री

बेरोजगारी और कर्जों के बोझ ने भी लोगों को मारा, संसद में सरकार ने कबूल की ये बात...

देश में बीते कुछ वर्षों में बेरोजगारी बढ़ी है, जिससे ज्यादातर लोग कर्ज के बोझ तले दब गये, लेकिन लंबे इंतजार के बावजूद जब उन्हें बेरोजगारी दूर करने के रास्ते नजर नहीं आये तो उन्होंने खुदकुशी या कहें कि आत्महत्या का रास्ता अपना लिया या कहें कि यह रास्ता चुनने के लिये वे मजबूर हो गये. बीते कोरोना काल में इन आंकड़ों में और भी इजाफा हुआ है. इस दौर में न केवल लोगों की नौकरियां गयी हैं बल्कि ज्यादातर लोग कम मेहनताने पर काम करने को भी मजबूर हुये हैं. ऐसे में आत्महत्या करने वालों की संख्या और भी बढ़ी है. यकीनन ये हम सभी के लिये चिंता का विषय है. इसी चिंता को समझने और समझाने के लिये मीडिया स्वराज और द इंडियन पोस्ट पर जाने माने अर्थशास्त्री अरविंद मोहन और वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी के साथ हुई चर्चा को पढ़िये और ​सुनिये…

कुमार भवेश चंद्र

जॉबलेस ग्रोथ को ठीक से समझायें. क्या सरकार इसे समझ नहीं रही या फिर समझना नहीं चाहती. क्या इस मुद्दे को सरकार केवल पॉलिटिकल चश्मे से देखना चाहती है?

अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरविंद मोहन

यह बहुत ही भयावह स्थिति पैदा हो रही है. जॉब​लेस ग्रोथ को इस तरह से समझिये. 1970 के दशक में जब हमारे देश में एक प्रतिशत की इकोनॉमिक ग्रोथ होती थी, तो लगभग 0.4 प्रतिशत रोजगार का सृजन होता था. 2010 आते आते हमारी स्थिति पूरी तरह से बदलना शुरू हो गयी. 2010 में ही जब एक प्रतिशत इकोनॉमिक ग्रोथ हो रही थी तो हमारे यहां मात्र 0.01 प्रतिशत रोजगार ​सृजन हो रहा था. 2020 आते आते यह उससे भी बहुत ज्यादा नीचे चला गया. दूसरे शब्दों में कहें तो देश में जो भी ग्रोथ अब हो रही है, वो जॉबलेस ग्रोथ है, उससे किसी भी तरह का एम्प्लॉयमेंट जेनरेशन नहीं हो पा रहा है. हिंदुस्तान की आवश्यकताओं को देखते हुये जो दिशा हमारी होनी चाहिये, उसके पूरी तरह से यह उलट है. कुछ चीजों पर हमें ध्यान देना होगा.

पहली चीज ये कि 1991 में हमने आर्थिक सुधार शुरू किया. संसद में होने वाली चर्चा पर अगर आप नजर डालें तो पायेंगे कि वहां कई बार इस बारे में बात हो चुकी है कि चूंकि हम सब चीजें नहीं कर सकते थे, इसलिये हमने इंडस्ट्री सेंट्रिक अर्बन सेंट्रिक रिफॉर्म से शुरुआत की और पार्लियामेंट्री रिफॉर्म्स फिर ये रिकॉर्ड कर रही है कि बहुत जल्द हम सेकेंड जेनरेशन रिफॉर्म लेकर आयेंगे, जो देश के आर्थिक सुधारों को ह्युमन फेस देगा. मेरी समझ से वो आर्थिक सुधार होनी चाहिये— रूरल डेवलपमेंट, जिसमें कृषि है, अलाइड एक्टिविटीज हैं, कॉटेज इंडस्ट्रीज हैं और स्मॉल स्केल इंडस्ट्रीज हैं. दूसरा उसका मेजर प्लान होना चाहिये, ह्यूमन डेवलपमेंट, जिसमें हेल्थ और एजुकेशन आता है. बदकिस्मती से तब से अब तक अगर हम देश की आर्थिक नीति की दिशा को देखें, सक्सेसिव बजट देखें, 2022 के बजट समेत तो समझेंगे कि हम असल में इन सुधारों के अलावा सबकुछ कर रहे हैं. बजट 2022 इसका एक बेहतरीन उदाहरण है. इस बजट से मेरी अपेक्षा थी कि देश इस वक्त बहुत ही बुरी स्थिति से गुजर रहा है. इसलिये हम वो सब कुछ करने की कोशिश करेंगे जो भी इस देश को परेशान कर रहा है, जैसा कि आपने शुरू में ही बताया कि जॉब न होने के कारण 25 हजार लोगों ने आत्महत्या कर लिया. असल में ये एक सीरियस अंडर स्टेटमेंट है. और ये आप प्री कोरोना काल की बात कर रहे हैं. अगर आप कोरोना काल को देखेंगे तो स्थिति और भी भयावह दिखेगी.

बजट पर जाने से पहले मैं दो चीजों पर खासतौर से ध्यान दिलाना चाहता हूं. रोजगार सृजन कहां होता है? फाइलों की रिपोर्ट देख लीजिये. एम्प्लॉयमेंट जेनरेशन के सरकारी आंकड़े देख लीजिये. मैं मीडियम टर्म की बात कर रहा हूं. किसी एक साल की रिपोर्ट पर अगर हम न जायें. मीडियम टर्म में यह बहुत साफ है कि 64 प्रतिशत अर्बन एम्प्लॉयमेंट असंगठित क्षेत्र जेनरेट करता है. करीब 80 से 90 प्रतिशत प्रोडक्शन और लगभग 60 प्रतिशत रोजगार असंगठित क्षेत्र में जेनरेट होता है. मूल तौर पर आपका सबसे बड़ा एम्प्लॉयर अर्बन एरिया में असंगठित क्षेत्र है. रूरल एरिया में हम सब जानते हैं कि कृषि और एलायड ​एक्टिविटी आपको सबसे बड़े रोजगार सृजक हैं. ये वो दो सेक्टर हैं, जो क्रिटिकली कॉम्प्रोमाइज्ड हैं. पहले नोटबंदी के समय और जो बचा खुचा था वो कोरोना काल में असंगठित क्षेत्र पूरी तरह से ध्वस्त हो गया. साथ ही साथ अगर आप किसी कृषक से पूछेंगे कि क्या आप चाहेंगे कि आपका बेटा कृषि में जाये तो वो शत प्रतिशत कहेगा कि वो ऐसा बिल्कुल भी नहीं चाहता कि उसका बेटा या बेटी कृषक हो. क्योंकि ये नॉन सि​स्टनैबल नॉन इकोनॉमिक एक्टिविटी हो गयी. लेकिन मजबूरी में जब उसे कहीं काम नहीं मिल पाता तो वो उसी खेत पर निर्भर हो जाता है. ये हमारा चैलेंज है. हमारी आर्थिक नीति किसी भी तरह से इस ओर ध्यान देने की कोशिश नहीं कर रही. और इस बजट को मैं प्राइम एग्जाम्पल के तौर पर ले रहा हूं.

कोरोना काल है, रोजगार है नहीं, सरकार खुद भी मान रही है कि 25 हजार से ज्यादा लोग आत्महत्या कर रहे हैं. अगर आप 2020 के बाद की स्टोरी देखेंगे तो ये और भी भयावह दिखेगी आपको. बजट में हमने सबकुछ किया लेकिन हेल्थ का एक्सपेंडिचर यानी खर्च देख लीजिये.

पहला, पिछले साल के ब​जट में एब्सोल्यूट यानी शुद्ध और रिलेटिव यानी आपेक्षिक, दोनों ही टर्म में हेल्थ का बजट कम कर दिया गया. इस साल का अगर आप देखें तो बजट में स्वास्थ्य, कृषि और एलाइड एक्टिविटीज यानी उससे जुड़े क्षेत्रों में, रूरल डेवलपमेंट यानी ग्रामीण विकास में रियल टर्म में व्यय कम कर दिया गया. हम किस देश के लिये बजट बना रहे हैं? हम किसको एडवांटेज देने की बात कर रहे हैं?

जैसा कि अरुण जी ने भी बताया कि हमें डिमांड जेनरेट करनी है तो डिमांड जेेनरेशन की तो यहां कोशिश ही नहीं है, बजट की फिगर्स ही नहीं मैच कर रही. फिर हम किस ग्रुप को हेल्प करने की कोशिश कर रहे हैं और किसको डिनाय कर रहे हैं?

बजट के ​फीगर्स की अगर हम बात करें तो लगभग साढ़े 49 लाख करोड़ का ये बजट है. अगर रियल टर्म की तुलना में आप मेजर करेंगे तो लास्ट ईयर की तुलना में रियल टर्म का बजट कम कर दिया गया है. बजट का टोटल साइज ही गिरा दिया गया है. बजट का साइज कम होगा और आपका क्लेम है कि आप ढ़ाई लाख करोड़ रुपये पूंजी व्यय बढ़ाने जा रहे हैं तो स्पष्ट है कि आप कहीं पर इसे कम करेंगे तो मैं यहां पर कुछ ही गिना रहा हूं, हमने उन्हीं सेक्टर्स में व्यय कम कर दिया है, जिनका सरोकार आम आदमी से है.

बड़े स्तर पर देखें तो हमने इस बजट को बनाते समय जो पेट्रोलियम की कीमत मानी वो 75 डॉलर है, जबकि पेट्रोलियम बुधवार को 93 था और गुरुवार को 92 के आसपास है. जब भी पेट्रोलियम की कीमत में 10 रुपये का इजाफा होता है तब फिजिकल डेफिसेट 0.4 प्रतिशत बढ़ जाता है. ​अब तक जितनी कीमत बढ़ी है, उसके हिसाब से सरकार की ओर से जो क्लेम किया गया है, उससे लगभग 0.8 प्रतिशत बढ़ जायेगा. यानी कि सरकार की जो स्ट्रेट बॉरोइंग है, वो 15 लाख करोड़ है. अब उसमें दो लाख करोड़ और जोड़ लीजिये और अगर आप पेट्रोलियम मार्केट को थोड़ा भी देखते हैं तो मई के लिये जो वायदा बाजार है, उसमें 150 डॉलर तक की ट्रेडिंग हो गयी है, हर हालत में बहुत जल्दी 100 डॉलर ये क्रॉस कर जायेगा. यानी आपके पास क्रेडिट की किट जो उपलब्ध है, उसमें से भी जब सरकार इतना निकाल लेगी, बाकी आपके बड़े उद्योग निकाल लेंगे तो आपके जो छोटे, मंझोले उद्योग और कृषि हैं, इसको कुछ भी मिलने वाला नहीं है. इतना ही नहीं, सरकार का ये कहना था कि 27 लाख करोड़ का जो पैकेज है, जो अब उन्होंने कोरोना काल में दिया जबकि आक्सफेम की रिपोर्ट कह रही है कि उसका लगभग 80 प्रतिशत 100 से कम परिवारों और कॉरपोरेट हाउसेस ने ग्रैप कर लिया. तो हम किस देश के लिये ये बना रहे हैं. और साथ ही देखिये कि आपने आम आदमी को कोई एडवांटेज नहीं दिया, न तो एक्सपेंडिचर से दिया और न ही टैक्स से देने की कोशिश की. साथ ही साथ आपने रिलीफ किसको दिया?

लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन टैक्स पर जो सरचार्ज लगता था, उम्मीद ये की जा रही थी कि आपकी जो लाखों करोड़ों की बेनिफिट थी, उसे जो बिग सेक्टर्स ग्रैप कर ले रहे हैं और जिनकी सालाना आय हजार करोड़ रुपये है, अपेक्षा ये की जा रही थी कि शायद उन पर आप एडिशनल टैक्स लगा देंगे या हो सकता है कि एक नया स्लैब इंट्रोड्यूस हो जाये क्योंकि आपके पास साधन लिमिटेड हैं, उस साधन को आपको मोबलाइज करने थे, लेकिन उस परिस्थिति में आपने क्या किया कि लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन टैक्स, जिसका एडवांटेज सिर्फ और सिर्फ बिग कॉरपोरेट्स को है, और ज्यादा फायदा अनलिस्टेड कंपनियों को है या जिनका आपके पास वैसे भी कोई ट्रैक नहीं है, तो हम उनको बेनिफिट करने की कोशिश कर रहे हैं मुश्किल के इस वक्त में, जिनको जरूरत नहीं है, जिससे आपको साधन लेने चाहिये थे, इस गरीब आदमी की मदद के लिये, ताकि कम से कम आगे जो सुसाइड हो रहे हैं, वो कम हो सकें.

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चिंता पर चर्चा Part I : देश में बेरोजगारी बढ़ने से बढ़ी खुदकुशी करने वालों की संख्या, क्या कहते हैं अर्थशास्त्री

कुमार भवेश चंद्र

सरकारें जब बजट बनाती हैं, तब ऐसा लगता है जैसे उन्हें जनता को ध्यान में रखकर कुछ भी नहीं बनाना होता. मानो जैसे कि उन्हें ऐसा लगता है जैसे कि कुछ आंकड़े हैं, जिन्हें फिट करना है, और उसके हिसाब से ही वे इकोनॉमी के बारे में सोचते हैं. हमारे बेरोजगार नौजवान कई कई डिग्रियां लेकर बैठे हैं ताकि कहीं से भी उन्हें कोई नौकरी मिल जाये. ऐसा लगता है जैसे कि हमारे यहां रोजगार को लेकर न तो सरकार की कोई सुनिश्चित योजना है और न ही नौजवान इसे लेकर कुछ भी समझ पा रहे हैं, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ रहा है. इसे आप कैसे देखते हैं, इस समस्या का हल कैसे निकाला जायेगा? सरकार ये कैसे तय करे कि हम नौजवानों को वही शिक्षा दें, जिस क्षेत्र में हम उन्हें नौकरियां दे सकते हों?

रामदत्त त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार

आज की चर्चा में हमारे दोनों अर्थशास्त्री विद्वानों ने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा है कि हमारे जो मास रोजगार हैं या​नी बड़ी संख्या में लोगों को जो रोजगार मिलना है, वो असंगठित क्षेत्र में मिलेगा. बड़ी इंडस्ट्री में या सरकारी क्षेत्रों में नहीं मिलेगा. सरकार का साइज भी सिकुड़ता जा रहा है और जो नई नई टेक्नोलॉजी आ रही है, उसकी वजह से इंडस्ट्रीज में भी ह्यूमन रिसोर्स का साइज कम होता जा रहा है, भले ही प्रोडक्शन वो ज्यादा करें.

यहां असंगठित क्षेत्र का मतलब क्या है कि लोकल क्षेत्र में परिस्थितियों के हिसाब से, जहां जो गुंजाइश है, जैसे कि मान लीजिये कि आगरा में पेठा है, मुरादाबाद में पीतल का काम है, फिरोजाबाद में कांच का काम है, लखनऊ में चिकन का काम है या खेती का भी अलग अलग हमारा क्लाइमेटिक जोन है, चाहे बुंदेलखंड हो, पूर्वांचल हो, पश्चिमी यूपी हो. मुझे ऐसा लगता है कि रिसोर्सेज का केंद्रीयकरण, वित्तीय केंद्रीयकरण जो है, जिसकी वजह से सारा पैसा टैक्स वसूल कर ऊपर जाता है और फिर ये ऊपर से जब नीचे आता है तो इधर बहुत सारा बजट जो बढ़ा है पंचायतों का, लेकिन फिर वो करप्शन की भेंट चढ़ जाता है, उसमें जिस तरह से काम होता है, उससे सही टारगेट नहीं हो पाता, ये मैंने खुद भी गांवों में जाकर देखा है.

तो एक तो वित्तीय और दूसरे, राजनीतिक केंद्रीयकरण. दिल्ली में बैठे हुये सर्वशक्तिमान व्यक्ति सोच लेते हैं कि शौचालय बनना है और उनके नाम से फिर 12 हजार रुपये वे सेंक्सन कर देते हैं, उसमें से छह हजार रुपये बीच के लोग खा जाते हैं और बाकी के छह हजार में ऐसा शौचालय बनता है जो किसी काम का नहीं. लेकिन कागज में संसद में कहने के लिये आपके पास है कि हमने इतने लाख करोड़ रुपये खर्च कर दिये. तो मेरा ऐसा मानना है कि एक तो वित्तीय जितना जरूरत है उतना ही दिल्ली जाना चाहिये. इसलिये मेरे खयाल में लोकल रीजनल डेवलपमेंट काउंसिल होने चाहिये. मान लीजिये कि उत्तर प्रदेश ही है तो आप लखनऊ में बैठकर एहसास ही नहीं कर सकते कि गांवों में क्या हो रहा है?

पहले अरविंद मोहन जी से यहां हमेशा प्लानिंग और वित्त के लोग सलाह लेते थे. अब तो प्लानिंग पूरी तरह से खत्म है. कहीं भी प्लानिंग में तो अब ये प्रोसेस होती नहीं है कि अगले पांच साल में हमें क्या करना है? कहां क्या जरूरत है. पहले जो भी होता था, जो भी पैसा खर्च होता था तो पहले पूरा प्लान तैयार किया था उसके लिये. अब वो है नहीं. अब एडहोकिज्म है. प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने घोषणा कर दी, जिस पर उनका दिल आ गया, वैसे ही घोषणा कर दी जाती है. अब उस घोषणा में पॉलिटिकल कंसंड्रीशन ज्यादा होते हैं. वोटर्स के कंसंड्रीशन ज्यादा होते हैं चुनाव के. न्याय नहीं होता उन इलाकों के साथ. तो मेरा मानना है कि हमको आपको फिजिकल जो इकोनोमिक जोन है, आर्थिक जोन है, एग्रीकल्चर जोन है, भौगोलिक जोन है, उन सभी को मिलाकर के हमें लोकल डेवलपमेंट काउंसिल बनानी पड़ेगी. और वहां के हिसाब से जैसा हुनर है, वैसे काम करना पड़ेगा.

जैसे मैं आपको उदाहरण देता हूं कि सुल्तानपुर में जब राजीव गांधी और संजय गांधी, इन लोगों ने विकास किया तो उन्होंने वहां बड़ी बड़ी फैक्ट्रीज लगा दीं. भेल लगा दिया, एचएएल लगा दिया, वगैरह. अब क्या हुआ कि जब वे बड़ी फैक्ट्रीज आयीं और जब उनमें वैकेंसीज निकलीं और एम्प्लॉयमेंट्स की आयीं तो उस जमाने में हमारे यहां नॉर्थ इंडिया में इंजीनियरिंग के कॉलेज बहुत कम थे. तो सारे साउथ के आ गये. श्रीपति मिश्रा मुख्यमंत्री थे. बड़ा लोकल एरेंजमेंट हुआ. उधर ही के थे, सुल्तानपुर के. तो बात ये आयी कि बड़ी बड़ी फैक्ट्रीज तो लग गयीं लेकिन रोजगार सारे बाहर के लोगों को मिलेगा, जाहिर है क्योंकि वहां के लोग तो टेक्नीकली स्किल्ड तो हैं नहीं. तो कितनी वहां चाय की दुकान और खुमचा कितने लोग लगायेंगे. जबकि वहीं सुल्तानपुर में मूंज का काम में काफी गुंजाइश है. देखिये क्वाइल बोर्ड केरल से भेजता है हमारे यहां. वहीं पर खादी का काम में काफी गुंजाइश है, स्किल्ड लोग हैं बुनकर. वहीं पर जूते का काम काफी हो सकता था. तो मैं एक उदाहरण दे रहा हूं.

पूरी चर्चा सुनने के लिये क्लिक करें…

बेरोजगारी और कर्जों के बोझ से क्यों नहीं लड़ पा रही है सरकार?

तो मुझे लगता है कि हमें स्थानीय जो रॉ मैटेरियल है, स्थानीय स्किल है, स्थानीय जो क्लाइमेट जोन है, उसके हिसाब से हमें ये तय करना है कि यहां कौन सी छोटी छोटी रोजगार, माइक्रो जिसे आप कह रहे थे, उसे लगाया जाये. तो मेरा ये मानना है कि हमको बहुत सीरियसली इन सबको डीसेंट्रलाइज्ड करना पड़ेगा. एक आदमी के हाथ में जो सबकुछ, सारा बजट, सारा पोलिटिकल डिसीजन है, कहां क्या होगा, कहां कौन सी ट्रेन चलेगी, अच्छा यहां इतनी बड़ी ट्रेन और मेट्रो जो आप चला रहे हैं, इससे किसको मिल रहा है? जापान की, स्वीडेन की, वहीं की तो आ रही है. आप बड़ी बड़ी हाइवेज जो बना रहे हैं तो वॉल्वो बसें कहां से आ रही हैं? हम बना रहे हैं क्या? तो मेरा सिंपल ये कहना है कि हमको विकेंद्रीकरण करना होगा, आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक और विकास योजना के पावर को. ये सब प्लानिंग का काम है और फिर उनको इमपावर करना होगा और उसी से लिंक करना पड़ेगा एजुकेशन का. हमारे कॉलेज और डिग्री कॉलेज में जिन हुनर की हम बात करते हैं, चाहे वो बुनकर का हो या फिर खेती का हो या फिर ट्यूबवेल मैकेनिक का हो, कहीं कुछ पढ़ाया ही नहीं जाता.

और अभी तो ये सब केवल सुसाइड के आंकड़े आये हैं और एनसीआरबी यानी लिखित में जिन लोगों ने सुसाइड नोट लिखा होगा कि मैं रोजगार न मिलने की वजह से सुसाइड कर रहा हूं, ये केवल उनके आंकड़े हैं. सारे आंकड़े नहीं हैं, लेकिन डिप्रेशन के कितने लोग शिकार हैं? क्या इसका कोई आइडिया है? कोई आइडिया नहीं है. देखिये, रोजगार हमें हमारे आत्मसम्मान के लिये भी चाहिये. ऐसा नहीं है कि हमको आप खाना या भत्ता दे दीजिये तो हमें कोई काम नहीं चाहिये. रोजगार हमें हमारे आत्मसम्मान के लिये, शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिये चाहिये. और इसका कोई सब्सटीट्यूट नहीं है. इसलिये इसमें आमूलचूल परिवर्तन करना पड़ेगा.

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