चिंता पर चर्चा : देश में बेरोजगारी बढ़ने से बढ़ी खुदकुशी करने वालों की संख्या, क्या कहते हैं अर्थशास्त्री
बेरोजगारी और कर्जों के बोझ ने भी लोगों को मारा, संसद में सरकार ने कबूल की ये बात...
देश में बीते कुछ वर्षों में बेरोजगारी बढ़ी है, जिससे ज्यादातर लोग कर्ज के बोझ तले दब गये, लेकिन लंबे इंतजार के बावजूद जब उन्हें बेरोजगारी दूर करने के रास्ते नजर नहीं आये तो उन्होंने खुदकुशी या कहें कि आत्महत्या का रास्ता अपना लिया या कहें कि यह रास्ता चुनने के लिये वे मजबूर हो गये. बीते कोरोना काल में इन आंकड़ों में और भी इजाफा हुआ है. इस दौर में न केवल लोगों की नौकरियां गयी हैं बल्कि ज्यादातर लोग कम मेहनताने पर काम करने को भी मजबूर हुये हैं. ऐसे में आत्महत्या करने वालों की संख्या और भी बढ़ी है. यकीनन ये हम सभी के लिये चिंता का विषय है. इसी चिंता को समझने और समझाने के लिये मीडिया स्वराज और द इंडियन पोस्ट पर जाने माने अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार और अर्थशास्त्री अरविंद मोहन के साथ हुई चर्चा को पढ़िये और सुनिये…
कुमार भवेश चंद्र :
बुधवार 9 फरवरी 2022 को सरकार ने संसद में ये माना है कि 2018 से 2020 के बीच में करीब 25 हजार लोगों ने खुदकुशी कर ली. और इस खुदकुशी के पीछे वजह है बेरोजगारी और कर्जों का बोझ.
हालांकि, कोरोना काल में भी लोगों की नौकरियां गयी हैं, नौकरियां जाने से उनकी निराशा बढ़ी है. शायद उनको ये उम्मीद नहीं रही कि उनके लिये कुछ हो पायेगा. न सरकार ने ऐसी कोई व्यवस्था की. न समाज में उस तरह का कोई माहौल है. लिहाजा उन्होंने आत्महत्या करना ही ठीक समझा. और कर्जों का बोझ भी लोगों के ऊपर आया है तो इन दो कारणों से जिन 25 हजार लोगों ने खुदकुशी कर ली है, ये आंकड़े शायद सरकारी लिहाज से कुछ कम हो सकते हैं लेकिन ये चिंता बड़ी है और इस बड़ी चिंता पर हमारे साथ जुड़ रहे हैं देश के जाने माने अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार और अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरविंद मोहन. साथ में वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी भी जुड़े हैं.
ये जो एनसीआरबी के आंकड़े जारी किये गये हैं, उसके हवाले से जो बात की गयी है, आज केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने संसद में ये जो आंकड़े रखे हैं, उसमें दिखाया गया है कि 2020 में यानी कोरोना काल में 3548 लोगों ने बेरोजगारी की वजह से आत्महत्या कर ली और कर्ज में दबे होने की वजह से 5213 लोगों ने आत्महत्या की. बड़ा आंकड़ा है. अगर निराशा से इस देश में इस तरह से खुदकुशी करने को मजबूर हो रहे हैं तो सरकार को अपनी नीतियों में संशोधन करने की जरूरत है लेकिन जब विपक्ष ये सवाल उठाता है कि लोगों को, बेरोजगारों को, युवाओं को नौकरियों को लेकर निराशा हो रही है और सरकार की नीतियां ऐसी नहीं है जिसे लेकर लोगों को नौकरी मिल सके या उन्हें कोई रास्ता दिख सके. दूसरी ओर सरकार इस आंकड़े को झूठा बता रही है और नये नये आंकड़े पेश कर रही है. अभी अभी प्रधानमंत्री ने संसद में राज्यसभा और लोकसभा दोनों जगह एक आंकड़ा पेश किया और कहा कि आईपीएफओ अकाउंट से, जो कि माना जाता है कि सबसे प्रमाणित दस्तावेज है, बताता है कि लोगों को न केवल नौकरियां मिल रही हैं बल्कि नौकरियों की रफ्तार भी बढ़ गयी है.
सरकार तो कह रही है कि स्थितियां बेहतर हो रही हैं. लेकिन ये आंकड़े बेहद चिंताजनक हैं. क्या कहेंगे आप?
अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार
जब लॉकडाउन हुआ, उस समय तो हालात बहुत ही ज्यादा खराब थे, जब अनलॉक होगा तो कुछ तो बेहतर होगा, लेकिन कितना बेहतर होगा? क्योंकि हमारा जो असंगठित क्षेत्र है, उसे बहुत ही बुरी तरह से धक्का लगा है, जहां कि 94 प्रतिशत लोग काम करते हैं. तो इतने बड़े सेक्टर को जब धक्का लगेगा तो बेरोजगारी तो बढ़ेगी.
हमारे देश में एक समस्या ये भी है कि बेरोजगारों के लिये यहां कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है. जैसा कि उन्नत देशों में अगर आपका काम छूट जाता है तो आपको बेरोजगारी भत्ता मिलता है. इसलिये हमारे यहां अगर किसी का काम छूट जाता है तो वो ये नहीं कह सकता कि मैं तब तक बैठा रहूंगा जब तक कि मुझे वैसा काम नहीं मिल जाता जैसा कि मुझे चाहिये. इसलिये हमारे यहां जो बेरोजगारी का आंकड़ा है, वो बहुत ज्यादा नहीं दिखता. हमारे यहां पहले तो 3 से 4 प्रतिशत की बेरोजगारी दिखती थी, अब 6 से 8 प्रतिशत की बेरोजगारी दिखती है. लेकिन इससे कहीं ज्यादा हमारे यहां पर underemployment अंडर एम्प्लॉयमेंट है. और दूसरी तरफ कृषि क्षेत्र में disguised employment डिस्गाइज्ड एम्प्लॉयमेंट है.
तो underemployment और disguised employment ही हमें इसके सही आंकड़े दे सकती है कि आखिर लोगों को कितना काम मिल रहा है? जैसे कि Rural Employment रूरल एम्प्लॉयमेंट स्कीम में आरबीआई बताता है कि इसके तहत कम से कम 100 दिनों का काम लोगों को मिलना चाहिये, लेकिन 50 दिनों का ही काम मिल रहा है. यानी कि यहां पर जो वापस गये गांव में, उन्हें भी पूरे 100 दिनों का काम नहीं मिल रहा है. अगर 100 दिन के काम से पूरे परिवार को काम चलाना है तो इसका अर्थ हुआ कि केवल 20 दिन प्रति व्यक्ति काम मिला. तो 20 दिन के काम से आप पूरे साल की जिंदगी कैसे बसर कर सकते हैं? तो इसलिये हमारे यहां जो अंडर एम्प्लॉयमेंट और डिस्गाइज्ड एम्प्लॉयमेंट है, उसकी तरफ भी हमें ध्यान देना चाहिये.
जब आपकी आमदनी कम हो जाती है और inflation यानी मुद्रास्फीति बढ़ जाती है तो आपकी समस्या और ज्यादा बढ़ जाती है. इसीलिये हताशा और निराशा बहुत है. जितना यूथ शिक्षित है, उतना ही ज्यादा बेरोजगारी है, अगर आपक आंकड़ों पर गौर करें. और ये समस्या तो हमारे यहां महामारी के पहले ही हो गयी थी, जबकि हमारे यहां सरकारी आंकड़ों में अर्थव्यवस्था में 45 साल का सबसे ज्यादा बेरोजगारी की दर आयी थी.
और दूसरी बात ये है कि हमारा जो रेट आफ ग्रोथ है वो आठ प्रतिशत से गिरकर 3.1 प्रतिशत हो गया था. आठ क्वार्टर में बराबर, लगातार गिरावट रही और उसकी वजह ये है कि हमारे देश में असमानता बहुत ज्यादा है, inning quality बहुत ज्यादा बढ़ गयी है. अभी जो प्राइस का सर्वे आया, उसमें दिखाया गया कि नीचे का 60 प्रतिशत तबका है, उसकी आमदनी गिर गयी. जो सबसे गरीब 20 प्रतिशत है, उसकी आमदनी 50 प्रतिशत गिर गयी. अब आप खुद ही समझ लीजिये कि 50 प्रतिशत पहले ही गरीब है और उसकी आमदनी भी 50 प्रतिशत गिर जाये तो कहां से वो अपना घर बार चलायेगा? और इसी स्थिति में वो खुदकुशी करने को बाध्य होता है. या फिर दूसरी तरफ क्राइम बढ़ेगा क्योंकि क्राइम करके आप ये सोचते हैं कि कुछ क्राइम करके आप दूसरी तरफ पैसा कुछ उठा लेंगे.
तो जो सबसे ऊंचे 20 प्रतिशत है, उसकी आमदनी 35 प्रतिशत बढ़ गयी. जो सबसे नीचे का तबका है उसकी 50 प्रतिशत गिर गयी, तो ये जो असमानता इतनी बढ़ गयी है उससे डिमांड कम हो जाती है अर्थव्यवस्था में. और जब डिमांड कम हो जाती है तो ग्रोथ रेट कम हो जाता है और फिर रोजगार पैदा होना कम हो जाता है इसलिये हमें लॉन्ग टर्म में देखना होगा और शॉर्ट टर्म में भी. शॉर्ट टर्म में महामारी का असर और लॉन्ग टर्म में देश की अर्थव्यवस्था में बढ़ती हुई इनिंग क्वालिटी का असर क्या है, उसकी तरफ ध्यान देना होगा.
कुमार भवेश चंद्र
अभी जब राष्ट्रपति के भाषण के बाद राहुल गांधी ने जो सवाल उठाया था कि सरकार स्मॉल स्केल इंडस्ट्री में ज्यादा फोकस नहीं कर रही है बल्कि सरकार का ध्यान बिग स्केल इंडस्ट्री की ओर ज्यादा है तो इस वजह से जॉब जेनरेशन में परेशानी आ रही है. हम जानना चाहते हैं कि आखिर सरकार की नीतियों में कहां वो कमियां हैं, जिनकी वजह से जॉब मिलने में समस्या आ रही है?
अर्थशास्त्री अरुण कुमार
जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि जब इनिंग क्वालिटी बढ़ेगी, डिमांड कम होगी तो ये अपने आप ही होगा कि जब ग्रोथ रेट कम होगा तो उसके साथ जो रोजगार है वो भी कम होगा. दूसरी बात आती है डिस्ट्रीब्यूशन की. तो एक तो ओवरओल ग्रोथ कम हो गया, उस पर डिस्ट्रीब्यूशन शिफ्ट कर रहा है अमीर लोगों की तरफ और गरीबों से हटकर. और तीसरी बात जो आती है कि हमारी सरकार जो नीति अपना रही है, जो इकनोमिक सर्वे में बार बार कहा गया और इस बार की बजट में भी शुरू में ही कह दिया गया कि हम सप्लाई साइड इकोनॉमिक्स कर रहे हैं.
सप्लाई साइड इकोनोमिक्स का मतलब है कि हम बिजनेस को कन्सेशन दें जिससे कि बिजनेस का प्रोफिट बढ़े. जब बिजनेस का प्रोफिट बढ़ेगा तो वो इन्वेस्ट ज्यादा करेगा और जब इन्वेस्ट ज्यादा करेगा तो ग्रोथ होगा, ये सप्लाई साइड का मतलब है. तो उससे गैर बराबरी अपने आप बढ़ेगी क्योंकि आप प्रोफिट रनर को कन्सेशन दे रहे हैं, उसका प्रोफिट बढ़ा रहे हैं जैसे कि 2019 में कॉरपोरेट टैक्स रेट जबरदस्त काट दिया गया, लेकिन इससे इन्वेस्टमेंट नहीं बढ़ा क्योंकि बाजार में डिमांड ही नहीं है. जैसे जब मेरी कैपेसिटी यूटिलाइजेशन 70 से कम है और मैं 100 कार प्रोड्यूस कर रहा हूं लेकिन मार्केट में 70 कार ही बिक रही है तो मैं क्यों 110 कारों के लिये क्यों अपनी कैपेसिटी बढ़ाऊंगा? नहीं बढ़ाऊंगा. तो यही हुआ.
जब कॉरपोरेट टैक्स रेट कट हुआ तो जो कॉरपोरेट सेक्टर के पास सरप्लस प्रॉफिट आया तो उसने उसे इन्वेस्ट नहीं किया बल्कि उसने अपना उधार, जो ऋण लिया हुआ था, उसको कम कर दिया तो उससे तो डिमांड नहीं बढ़ेगी या रोजगार नहीं बढ़ेगा. तो ये सप्लाई साइड इकोनोमिक्स है, जिसका मतलब है कि हम बिजनेस को फायदा पहुंचा रहे हैं और जो डिमांड साइड इकोनोमिक्स की ओर देखना चाहिये तो उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं. डिमांड साइड का मतलब है कि अर्थव्यवस्था में हम डिमांड कायम करें. जो निचला तबका है, जहां पर आमदनी कम हो रही है वहां पर हम ज्यादा आमदनी दें. जब हम उसको ज्यादा आमदनी देंगे तो मार्केट में वो डिमांड करेगा, जब डिमांड करेगा तो इससे इंडस्ट्री बड़ी होगी और जब इंडस्ट्री बड़ी होगी तो रोजगार पैदा होगा.
लेकिन आपने जो राहुल गांधी की बात की तो जो हमारा असंगठित क्षेत्र है, वहां हमारा रोजगार 94 प्रतिशत है. लेकिन उसमें हम निवेश नहीं कर रहे हैं. 80 प्रतिशत हमारा निवेश जा रहा है संगठित क्षेत्र में और 20 प्रतिशत जा रहा है असंगठित क्षेत्र में. कृषि, जहां 45 प्रतिशत लोग काम कर रहे हैं वहां महज 5 प्रतिशत निवेश जा रहा है. तो आप खुद ही देखिये कि 6 प्रतिशत लोगों के लिये आपका 80 प्रतिशत निवेश जा रहा है, 45 प्रतिशत लोगों के लिये सिर्फ 5 प्रतिशत जा रहा है, और जो बाकी 47 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में हैं, उनके लिये 15 प्रतिशत जा रहा है और वहीं पर सबसे ज्यादा रोजगार है.
और तीसरी बात ये है कि जो हमारा एमएसएमई सेक्टर है, यानी माइक्रो, स्मॉल और मीडियम. तो माइक्रो सेक्टर्स में 6 करोड़ यूनिट्स हैं. स्मॉल और मीडियम में 6 लाख यूनिट्स हैं और लार्ज यूनिट्स हैं सिर्फ 6 हजार. तो हमारा जो माइक्रो सेक्टर है, वो बहुत बुरी तरह से ध्वस्त हुआ है. क्योंकि उसकी तरफ सरकार का ध्यान नहीं है, जो सारी नीतियां एमएसएमई के लिये होती हैं, स्मॉल और मीडियम उसका फायदा उठा लेता है, माइक्रो तक नहीं पहुंच पाती हैं. और फिर अभी सरकार का जो मूव है कि हम जो बड़ी बड़ी मोनोपॉली क्रियेट करें, जैसा आपने देखा, टेलिकॉम सेक्टर में, पोर्ट्स में, एयरपोर्ट में, रोड्स में, सबमें, जो बड़ी बड़ी मोनोपॉलीज क्रिएट हो रही हैं, उससे गैर बराबरी और बढेगी और कुछ उद्योग बहुत अच्छा करेंगे, लेकिन बाकी नहीं करेंगे. तो उससे रोजगार नहीं पैदा होगा.
चूंकि जो हमारा संगठित क्षेत्र है वो बहुत मैकेनाइज्ड है. जैसे कि अगर आप रोड कन्सट्रक्शंस देख लें या ऐसे ही कई और काम देख लें तो पहले वहां सैंकड़ों लोग काम करते थे, लेकिन अब पांच लोग होते हैं, बड़ी बड़ी क्रेन्स, बड़े बड़े बुलडोजर्स से काम करते हैं तो डायरेक्ट एम्प्लॉयमेंट जेनरेशन मॉडर्न इंफ्रास्ट्रक्चर्स से नहीं होता है, और इस बजट का भी यही है, जो आपकी स्कीम आ रही हैं, वो बड़े बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर्स और सेक्टर्स की आ रही हैं, उनमें डायरेक्ट रोजगार नहीं होगा. अब ये बात काफी समय से कहा जा रहा है, अब तो सरकार और उनके अफसरों ने भी ये कह दिया है कि हमें छोटे छोटे सेक्टर्स में इन्वेस्ट करना चाहिये.
रूरल एरियाज में, छोटे छोटे प्रोजेक्ट्स में इन्वेस्ट करना चाहिये. इससे रोजगार पैदा होगा. शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत रोजगार पैदा होता है, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य का बजट भी ज्यादा बढाया नहीं जा रहा है. और शिक्षा के क्षेत्र में तो टेक्नोलॉजी की तरफ मूव कर रहे हैं. अगर आप टेक्नोलॉजी से करेंगे और आनलाइन क्लासेस वगैरह चलते रहेंगे, तो टीचर नहीं होगा. जब टीचर नहीं होगा तो वहां रोजगार नहीं होगा. और सरकारी नौकरियां नहीं भरी जा रही हैं. जैसा कि चिदंबरम ने बताया कि लाखों नौकरियां हैं, जो खाली पड़ी हैं लेकिन मुश्किल से 60-70 हजार ही भरी गयी हैं तो यानी कि कुल मिलाकर सरकार की जो दिशा है वो है सप्लाई साइड इकोनॉमिक्स, असमानता बढाना और डिमांड उससे कम रहेगी, ग्रोथ कम रहेगी, उससे रोजगार कम होगा.
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माइक्रो सेक्टर बुरी तरह ध्वस्त है. जैसा कि आपने देखा कि रेलवे की 35 हजार नौकरी के पीछे सवा करोड़ लोगों ने अप्लाय किया, चूंकि कहीं काम नहीं मिल रहा. यूपी में आपने देखा 2015 में 360 नौकरियां चपरासी की निकलीं और उसके लिये 380 पीएचडीज ने अप्लाई किया. दो लाख बीटेक, एमटेक, बीकॉम, एमकॉम ने अप्लाई किया और और टोटल 23 लाख आवेदन किये गये थे. सरकार ने वो रद्द कर दिया. अब देखिये कि कितनी हताशा और निराशा है कि आपने पीएचडी कर ली, एमटेक कर लिया लेकिन आप पांचवी पास चपरासी की नौकरी के लिये अप्लाय कर रहे हैं. तो हमारे यूथ में हताशा-निराशा बहुत ज्यादा है और इसलिये ये बहुत परेशानी का दौर है.
(क्रमश: …)
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