उत्तम स्वास्थ्य एवं दीर्घायु के लिए वनस्पति-आधारित आहार
वनस्पति-आधारित भोजन, शाकाहार, जो सीधे पेड़-पौधों से प्राप्त होता है, एवं सब्जियाँ, मेवे, फल, दालें और अन्न आदि इसमें सम्मिलित होते हैं। इस आहार का भारत में इतिहास हजारों वर्षों का है। सनातन-वैदिक धर्म से जुड़े इसके सन्दर्भ में मनुष्य की काया के साथ ही उसके नैतिक उत्थान, पर्यावरण-संतुलन एवं प्रकृति-संरक्षण, जिसमें पशु-रक्षा भी सम्मिलित है, के पक्ष जुड़े हुए हैं। लगभग 3000-1700 ईसा पूर्व की सिन्धु घाटी की सभ्यता के समय के चिह्नित स्थानों, और उससे पहले के समय के प्राप्त स्थानों की खुदाइयों से मिले प्रमाण अनुशासित –योजनाबद्ध जीवन जीने वाले, कृषि कार्य करने वाले और पशुपालक भारतीयों के इस आहार –भोजन का परिचय कराते हैं।
शाकाहार सात्त्विकता का प्रतीक तो है ही, आयुवर्धक, सुदृढ़ काया-निर्माता और सुखकारक भी है। यह आहार भारत के आधारभूत ग्रन्थों में सर्वोत्तम आहार के रूप में व्याख्यायित है; आचार-विचार, मानव-स्वास्थ्य और वृहद् मानव-कल्याणार्थ दीर्घायु के मन्त्र के रूप में घोषित और निरूपित है। हम सभी इस वास्तविकता से परिचित हैं।
प्राचीनकाल के आदि चिकित्सक, भारतीय प्लास्टिक सर्जरी, शल्य चिकित्सा के महान अन्वेषक व पितामह महर्षि सुश्रुत (ईसा के जन्म से कई शताब्दी पूर्व) ने, आज की भाँति पशुओं व मुर्दों आदि पर किए जाने वाले प्रयोगों के विपरीत, फलों-सब्जियों के उपयोग से अपनी पद्धति को स्थापित किया था। उनका प्रयोजन चिकित्सा पद्धति में सात्विकता का उच्च स्तर बनाए रखना था। उनकी कृति, “सुश्रुतसंहिता“, अथर्ववेद, जिसके अनेक मन्त्र पर्यावरण-संतुलन व प्रकृति संरक्षण को समर्पित हैं तथा इस सम्बन्ध में उनकी सर्वकालिक महत्ता है, से सम्बन्धित है।
श्रीमद्भागवद्गीता (17: 8) में श्रीकृष्ण ने कहा है:
“आयुः सत्त्व बलारोग्य सुख प्रीति विवर्धनाः/
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विक प्रियाः//”
अर्थात्, “जो भोजन आयु को बढाने वाले, मन, बुद्धि को शुद्ध करने वाले, शरीर को स्वस्थ कर शक्ति देने वाले, सुख और संतोष को प्रदान करने वाले, रसयुक्त…और मन को स्थिर रखने वाले तथा हृदय को भाने वाले होते हैं, ऐसे भोजन सतोगुणी मनुष्यों को प्रिय होते हैं//”
श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक, स्वयं श्रीकृष्ण उचाव कितना शाश्वत, सत्याधारित, है, उसे हम आज मानवता के समक्ष प्रस्तुत स्थिति –भयावह व अति चुनौतीपूर्ण काल में भली-भाँति समझ सकते हैं।
यह एक लम्बी कड़ी है; इसमें अनेकानेक वे भारतीय महापुरुष, अन्वेषक, कृषि वैज्ञानिक व महर्षि सम्मिलित हैं, जिन्होंने माँसाहार छोड़कर वनस्पतीय आहार, शाकाहार को जीवन में अपनाने का मानवाह्वान किया। आहार-सम्बन्धी अपने गहन शोध कार्यों से वे इस परिणाम पर पहुँचे:
1-माँसाहार में यूरिक एसिड की प्रधानता होती है; यह कोलोस्ट्रॉल व ब्लडप्रेशर को असंतुलित करता है, इन्हें बढ़ाता है, जिससे हृदय रोग बढ़ने की प्रबल संभावनाएँ रहती हैं;
2-माँसाहार मधुमेह बढ़ाने, इसके स्तर को अनियंत्रित करने और इन्सुलिन को प्रभावित करने का कार्य करता है;
3-माँसाहार पाचन-शक्ति को दुर्बल करता है; तथा
4-अनियंत्रित जीव-भक्षण व इसी हेतु पशु-कटान पर्यावरण व प्रकृति को प्रभावित करता है; इनके बुरी तरह असंतुलन का कार्य करता है।
इन प्रचीनकालिक महान भारतीयों के परिणामों पर आज पाश्चात्य जगत के अनेकानेक अध्ययन व शोध कार्य अपनी पक्की मुहर लगते हैं। यही नहीं, वनस्पतीय आहार, शाकाहार का, शरीर को स्वस्थ तथा दीर्घकाल तक सुदृढ़ रखने, स्वाभाविक रूप से होने वाली हानियों को कम तथा दोषमुक्त करने व अधिक फाइबर, विटामिन व एंटीऑक्सीडेंट प्रदान करने में, माँसाहार मुकाबला नहीं करता। यह भी आधुनिक शोध स्पष्ट कर रही हैं।
विश्व के समक्ष वर्तमान में कोविड-19 द्वारा उत्पन्न गम्भीर व चुनौतीपूर्ण समस्या है। संसार के सभी देश, न्यूनाधिक, इससे प्रभावित हैं। इससे जूझ रहे हैं। लोगों के समक्ष अपने जीवन की रक्षा का प्रश्न हैI इस समस्या का सम्बन्ध चीन के वुहान नगर से प्रकट हुआ है, जिसकी एक मार्किट अखाद्य पशु-पक्षिओं तथा जीव-जंतुओं की बिक्री के लिए जानी जाती है। वर्षों से चले आ रहे लोगों के बुरे खान-पान की आदत की यह मार्किट प्रतीक है। अखाद्य पशु-पक्षिओं व जीव-जंतुओं के उपभोग से, वह भी अंधाधुंध, मानव गम्भीर बीमारियों, रोगों की चपेट में आने के साथ ही प्रकृति, जो मानव के साथ ही प्राणिमात्र के लिए प्राणदायी है, प्रभावित है। वुहान स्थित एक प्रयोगशाला से विकसित कोरोना वायरस की बात, यदि सत्य है, तो वह भी जीव-दुरुपयोग व प्रकृति से अन्यायपूर्ण खिलवाड़ का विषय है। विस्तार में जाकर ईमानदारीपूर्वक विश्लेषण करने पर यही सत्य सामने आएगा।
वर्तमान समस्या मानवता के लिए एक सीख है। मनुष्य के खान-पान के स्वभाव में समुचित परिवर्तन का आह्वान है। इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। खाने-पीने की आदत में परिवर्तन के लिए प्राथमिकता से अखाद्य जंगली जंतुओं व पशुओं के उपभोग से शनैः-शनैः बाहर निकलकर, वनस्पतीय आहार की ओर आने की अपेक्षा के उद्देश्य से लोगों में जागृति उत्पन्न किए जाने की अब आवश्यकता है। उत्तरदायित्व के रूप में यह कार्य नागरिकों व सरकारों, दोनों, का है। इस सम्बन्ध में स्पष्ट निर्णयों, नीतियों के निर्माण व उनके क्रियान्वयन की आवश्यकता भी है।
चूँकि, खान-पान स्वभाव को एकदम परिवर्तित नहीं किया जा सकता, लेकिन कुछ विषयों में, जैसे की पर्यावरण-संतुलन व प्रकृति संरक्षण में अहम योगदानकर्ता व अखाद्य पक्षियों, पशुओं व जीवों के उपभोग पर तत्काल रोक आवश्यक है। साथ ही, जैसा कि कहा है, माँसाहार के दोषों व कुप्रभावों तथा शाकाहार के दीर्घकालिक लाभ के प्रति लोगों को जागृत कर, माँसाहार उपभोग को न्यूनतम स्तर पर लाने के लिए कार्य करना होगा। पर्यावरण-संतुलन व प्रकृति-संरक्षण हेतु इसके महत्त्व को बताना होगा।
अब समय है, यह कार्य यदि प्राथमिकता से शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से हो, क्योंकि ये बाल्यकाल से ही जीवन-निर्माण कार्य में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती हैं, तो यह अति कारगर सिद्ध भी होगा। शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से सरकारी नीतियों के अनुसार, विशेष धन-व्यवस्था कर, इस दिशा में आगे बढ़ना होगा। शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से ही, पाठ्यक्रमों में सम्मिलित कर यह कार्य करना होगा।
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भारत पुनः विश्वगुरु के रूप में उभरता देश है। वर्तमान वैश्विक महामारी में संसार भर की सहायता के लिए हिन्दुस्तान जिस प्रकार आगे आया है, सारा विश्व आशा के साथ जिस प्रकार भारत की ओर देख रहा है, वह अपने आप में सब कुछ प्रकट कर देता है। यही समय है, जब भारत, भीतर और बाहर, विश्व स्तर पर, विशुद्धतः वृहद् मानव-कल्याण के उद्देश्य से, वनस्पतीय आहार, शाकाहार, के उपयोग के लिए जागृति उत्पन्न करने का कार्य भी करे।
कुछ समय पूर्व, चार सौ करोड़ रुपयों की सरकारी धनराशि के विशेष प्रावधान द्वारा देश में हर्बल खेती को बढ़ावा देने के लिए की गई पहल स्वागत योग्य है। लेकिन, इस हेतु जन जागृति व उपयोग के लिए लोगों को तैयार करने के लिए और अधिक ठोस कार्य किए जाने की आवश्यकता है। उत्तम स्वास्थ्य ही जीवन-रक्षा और विकास का आधार है। वनस्पतीय आहार मानव-स्वास्थ्य के लिए संजीवनी सदृश्य है। इस हेतु लोगों में जागृति उत्पन्न कर, उनके स्वस्थ जीवन को सुनिश्चित करते हुए भारत के लिए विश्वगुरु बनने का यह भी एक मार्ग है।
*पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैंI