उत्तर प्रदेश में पंचायतों का विकृत स्वरूप

डा चतुरानन ओझा

डॉ चतुरानन ओझा 

अभी हाल ही में राष्ट्रीय पंचायत राज दिवस मनाया गया । 24 अप्रैल 1993 को संविधान में 73 वाँ 74 वां संशोधन किया गया, तब से ही इस दिन को राष्ट्रीय पंचायत राज दिवस के रुप में मनाया जाता है ।इस अवसर पर प्रधानमंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने भाव प्रवण उद्गार व्यक्त  करना नहीं भूलते।इस वर्ष  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंचायत प्रतिनिधियों को बधाई देते हुए कहा कि, मजबूत पंचायतें आत्मनिर्भर गांव की आधार हैं। पंचायत जितनी मजबूत होगी लोकतंत्र उतना ही मजबूत होगा ,लेकिन यह सब कैसे होगा यह उन्होंने नहीं बताया। मात्र पोर्टल और एप लोड कर देने से, हवाई रास्ते दिखा देने से लोकतंत्र की आत्मा को नहीं बचाया जा सकता। उनके भाषणों को सुनकर यहां के पंचायती संस्थाओं के भुक्तभोगी प्रतिनिधियों के अलावा पूरा समाज अभिभूत हो जाता है।
वह पंचायत के संवैधानिक अधिकारों का अकादमी ज्ञान हासिल कर व्यवहारिक पंचायती राजनीति से जुड़े लोगों को कोसना शुरू कर देता है ।इस दौरान वह इतने गुस्से में होता है कि उसे यह जानने समझने की जरूरत ही नहीं महसूस होती कि उत्तर प्रदेश में पंचायतें पूरी तरह अधिकार विहीन हैं। वह यह भी नहीं जान पाता कि उत्तर प्रदेश में न्याय पंचायतों का गठन कई दशकों से क्यों नहीं हुआ और अपने को “हिंदू “और “भारतीय” कहलाने वाली वर्तमान योगी सरकार ने अपने गठन के सौ दिन पूरे होने पर की गई कैबिनेट की बैठक में गुपचुप तरीके से न्याय पंचायत के समाप्ति का अध्यादेश पास कर दिया। उसके इस जघन्य कार्यवाही की सूचना कैबिनेट मंत्रियों तक को नहीं हुई ।सपा सरकार में चुने हुए 35 पंचायत एमएलसी ने भी इस पर कोई आवाज नहीं उठाया और सरकार के अंग के रूप में काम करने वाली मीडिया ने भी आमजन की निशुल्क और पारंपरिक न्यायपालिका को नष्ट करने की खबर तक से  उसे परिचित नहीं होने दिया।
आज उत्तर प्रदेश में ग्राम पंचायतों के पास अपनी वह न्यायपालिका ही नहीं है, जिससे वह गांव के छोटे-छोटे झगड़े  मिल बैठकर हल कर लेती थी। अब वह थाने के दलालों और पुलिसिया लूट से गुजरते हुए वकीलों और अमीरपरस्त न्यायालयों का शिकार होने के लिए अभिशप्त है।
आज ग्राम पंचायतों को सबसे भ्रष्ट संस्था के रूप में प्रचारित करने वाले लोग उसके पीछे छिपे नौकरशाही और ठेकेदारी के चंगुल में फंसे पंचायत प्रतिनिधियों के स्थिति से आंख मिला पाने की स्थिति में नहीं है। सार्वजनिक जिम्मेदारी से बचने वाला और अपने निजी लाभ के लिए किसी भी स्तर तक गिरने वाला यह बर्ग बेबस और अधिकारहीन चुने हुए लोगों को गालियां देकर अपने को नैतिक साबित करने में जुटा रहता है।
संविधान ने गांव में काम करने वाले सभी 29 विभागों को पंचायतों के अधीन करने का प्रावधान दे रखा है। देश के दर्जनभर राज्यों ने पंचायतों को यह अधिकार दिया भी है। पंचायतों को अधिकार संपन्न बनाने वाले राज्य आज कोरोना संकट से निपटने  के संकट पूर्ण स्थिति में अधिक सक्षम है। इसमें केरल और उड़ीसा प्रमुख हैं। उड़ीसा राज्य में तो इस आपदा से निपटने के लिए सरपंच को जिलाधिकारी के बराबर के अधिकार दे दिए गए हैं। परिणाम सामने है कि इस “लाकडाउन” कि और संवेदनहीन नौकरशाही से गुणात्मक रूप से भिन्न मानवीय व्यवस्था देने में सफल रहे हैं।वहां अब तक कोरोना से सिर्फ एक मौत हुई है और कोरोंटाईन एवं वितरण व्यवस्था भरोसेमंद बनी हुई है।
उत्तर प्रदेश की ग्राम पंचायतें जिला अधिकारी और उसके अक्टोपसी पंजे के रूप में काम करने वाले कर्मचारियों द्वारा लूटे जाने के लिए मजबूर है ।गांव के सार्वजनिक वितरण व्यवस्था  पर पंचायतो का कोई नियंत्रण नहीं है। गांव की पोखरीओं पर एसडीएम, तहसीलदार एक निश्चित धनराशि लेकर पट्टा करते रहते हैं और ग्राम पंचायतों को कोई दखल नहीं  देने देते।
उत्तर प्रदेश के ग्रामीण सफाई कर्मियों से जो सरकारी कर्मचारी के रूप में वेतन प्राप्त करते हैं ,कोई संस्था काम नहीं ले सकती। ब्लॉक से लेकर जिले के आला अधिकारी प्रतिमास एक निश्चित धनराशि लेकर उनका वेतन भुगतान कर देते हैं, इसमें प्रधान की कोई बात नहीं सुनी जाती। पत्रकार से लेकर संबंधित कर्मचारी तक प्रधान को गलत तरीके से धन अर्जित करने के लिए दबाव बनाए रखते हैं।
 उत्तर प्रदेश में ग्रामीण सरकारी सफाई कर्मियों की नियुक्ति उसी समय की गई जब छत्तीसगढ़ में ‘सलवा जुडूम’ आंदोलन चलाया जा रहा था। बसपा, सपा एवं भाजपा की सरकार क्रमशः आती रही लेकिन किसी ने उसे उनका घोषित काम ले पाने का साहस नहीं दिखाया बल्कि यदि कोई प्रतिनिधि, चाहे वह गांवसभा का हो या संसद सदस्य हो  उसे धमकाने और अवैध दबाव बनाने के लिए नौकरशाही द्वारा सफाई कर्मी नाम के लोगों इस्तेमाल किया जाता है।
सोचिए कितना अनैतिक और अन्यायपूर्ण है कि प्राथमिक विद्यालय में नियमित भोजन बनाने ,खिलाने, बर्तन मांजने एवं झाड़ू लगाने वाली रसोईया मात्र ₹1000 एक हजार वेतन पाती है और 30,000 तीस हजार वेतन पाने वाला सफाई कर्मी कभी कोई काम करता नजर नहीं आता, उसे गांव के लोग पहचानते भी नहीं। पंचायतें इसे बेबसी में बर्दाश्त करती हैं।
 आप इस बात का अंदाजा लगाइए कि जो गांव खुद ही किसानों और मजदूरों से भरे पड़े हैं, वहां सफाई कर्मी नाम के एक सरकारी कर्मचारी की क्या जरूरत हो सकती है, और उससे कैसे काम लिया जा सकता है? क्या यह पंचायतों की न्यूनतम स्वायत्तता का निषेध नहीं है?
आज के दिन इस पर गंभीरता पूर्वक विचार होना चाहिए कि मुंसी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘पंच परमेश्वर’ की पंचायत कारपोरेट के नेताओं और नौकरशाही द्वारा कैसे लगातार विकृत कर दी गई है, जबकि यह सिद्ध है कि कोई भी सार्थक और माननीय बदलाव नौकरशाही द्वारा नहीं लोकतांत्रिक पंचायतों द्वारा ही आएगा।
 यह अकारण नहीं था कि रूसी समाजवादी क्रांति का नारा था “सारी सत्ता सोवियतों को “और यह सोवियतें वहां की ग्राम पंचायतें ही थीं।
लेखक विगत चुनाव में “पंचायत स्थानीय निकाय,देवरिया – कुशीनगर” से (एमएलसी) पद के उम्मीदवार भी रहे हैं।
मो 98387 97596

Leave a Reply

Your email address will not be published.

14 + eighteen =

Related Articles

Back to top button