उत्तराखंड में गांधीवादी विचारों को मूर्त रूप देते अनिरुद्ध जडेजा
चंदू भा ने अपने पुत्र अनिरुद्ध को बचपन से ही समाज सेवा के लिए तैयार किया. किशोरावस्था में आते आते अनिरुद्ध ने गांवों में जाकर वहाँ के लोगों को उनका अधिकार दिलाने का निर्णय लिया।अब उत्तराखंड में गांधीवादी विचारों को मूर्त रूप देते अनिरुद्ध जडेजा के बारे में हिमांशु जोशी की विशेष रिपोर्ट.
हाल ही में आपदा और राजनीतिक घटनाक्रमों को लेकर चर्चा में आए हिमालयी राज्य उत्तराखंड की भी अजब कहानी है, लोग यहां की खूबसूरती से आकर्षित हो इसकी ओर खिंचे चले आते हैं और हिमालय के स्थानीय निवासी सुविधाओं के अभाव में यहां से पलायन कर जाते हैं।
आज़ादी से पहले ही गांधीजी ने इस समस्या का समाधान ग्राम स्वराज के रूप में दिया था। बाद में विनोबा भावे द्वारा इसे विकसित किया गया। ग्राम स्वराज हर गांव को एक आत्म कुशल स्वायत्त इकाई में बदलने को बढ़ावा देता है जहाँ एक गरिमामयी जीवन के लिए सभी प्रणाली और सुविधाएं उपलब्ध हो।
यह स्वशासन के लिए स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की दशा में किया गया प्रयास है।ग्राम स्वराज विकेन्द्रीकृत, मानव केन्द्रित और गैर शोषणकारी है।
खुद को भगवान श्रीकृष्ण के वंशज होने का दावा करने वाले, कच्छ की रियासत पर शासन कर चुके जडेजा वंश में रणजीतसिंहजी विभाजी जडेजा ( जिनके सम्मान में एक क्रिकेट टूर्नामेंट को ‘रणजी ट्रॉफी’ नाम मिला है) क्रिकेटर अजय जडेजा, रविन्द्र जडेजा जैसे नामीगिरामी हस्तियां पैदा हुई हैं। इसी वंश के ‘चंदू भा जडेजा’ के घर में अनिरुद्ध जडेजा ने भी जन्म लिया।
जब महात्मा गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी विनोबा भावे ‘भूदान आंदोलन’ चला रहे थे तब चंदू भा भी उनके साथ थे और उन्होंने अपना एक बेटा विनोबा को दान कर दिया था।
विनोबा ने चंदू भा से उस पुत्र को ऐसा बनाने के लिए कहा कि वह देश के अच्छे भविष्य के लिए समाज सेवा करे।
इसके बाद चंदू भा ने अपने पुत्र अनिरुद्ध को बचपन से ही समाज सेवा के लिए तैयार किया। बचपन में ही अनिरुद्ध को उनके पिताजी ने पढ़ने के लिए एक धार्मिक पुस्तक ‘कथामृत’ दे दी थी। उनका कहना था कि बिन धार्मिक ज्ञान के कोई भी सामाजिक कार्य नही किया जा सकता है। अनिरुद्ध को स्वामी विवेकानंद के एक विचार ‘मातृभूमि के लिए हमारा कर्तव्य’ पर चलने के लिए कहा गया।
किशोरावस्था में आते आते अनिरुद्ध ने विनोबा भावे की तरह ही गांवों में जाकर वहाँ के लोगों को उनका अधिकार दिलाने का निर्णय लिया।
इस बीच 1984-85 में गुजरात दंगे की आग में जल उठा। विमला ठाकर लोगों की मदद के लिए अहमदाबाद पहुंची।
विमला ठाकर का दर्शन कृष्णमूर्ति की आध्यात्मिक शिक्षाओं और महात्मा गांधी, विनोबा के अहिंसक सामाजिक परिवर्तन दर्शन से प्रभावित था। उन्होंने पूरे विश्व भर में ध्यान सिखाया और ग्रामीण विकास पर कार्य किया।
विमला ठाकर के कहने पर गुजरातियों के कल्याण के लिए गुजरात विरादरी वालंटियर ऑर्ग बना।
अनिरुद्ध कॉलेज जाते ही इससे जुड़ गए।
शुरुआत में ही उन्होंने वोटरों को शिक्षित करने के अभियान में हिस्सा लिया ताकि जनता वोटिंग की अपनी शक्ति को समझें।
इसके बाद उन्होंने साईकिलों, बाइकों में ‘ग्राम स्वराज यात्रा’ नाम से गुजरात के अंदर छोटी छोटी जागरूकता यात्राएं की जिनका उद्देश्य ग्रामीण इलाकों में पानी और जैविक खेती की महत्वत्ता समझाना था।
पढ़ाई को अपने समाज के प्रति कर्तव्य में बाधक मानते हुए अनिरुद्ध गुजरात विरादरी के संयोजक डॉ प्रफुल्ल दवे के पास गए और उन्होंने अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ने की बात उनके सामने रखी पर प्रफुल्ल उनकी इस बात से असहमत थे।
बाद में अनिरुद्ध पढ़ाई पूरी कर अपनी डिग्री प्रफुल्ल दवे को सौंप आए।
गुजरात विरादरी के राज्य संयोजक बनने के साथ ही अनिरुद्ध को ऑफिस का काम मिला और उनकी पहली तनख़्वाह भी।
फील्ड में काम कर समाज सेवा की चाहत रखने वाले अनिरुद्ध ने एक ही साल बाद ऑफिस का काम छोड़ दिया और गुजरात में उपलेटा शहर के नज़दीक मुर्खडा गांव चले गए। वहां पहले से ही रह रहे अपने कुछ दोस्तों के साथ उन्होंने जल प्रबंधन, कचरा प्रबंधन पर कार्य किया।
गांव की बंजर पड़ी जमीन पर उन्होंने जैविक खेती की जिसकी वजह से गांव के लोग उनकी मज़ाक बनाने लगे पर जब उनकी वह खेती सफ़ल होने लगी तब वही लोग उनसे खुद भी खेती करने के लिए बीज मांगने लगे।
इसके बाद वह कुछ समय हिमाचल प्रदेश के खज्जियार में रहे पर हिमाचल पहले से ही विकसित प्रदेश है तो उन्होंने उत्तराखण्ड आने का निर्णय किया और विमला ताई से इस बारे में बात करने के लिए चले गए।
‘विमला ताई’ ने अनिरुद्ध जडेजा को जीवन में सफलता प्राप्त करने के तीन मन्त्र ‘मित्रता, सहयोग और सहजीवन’ देने के साथ ही उत्तराखण्ड जाने की आज्ञा भी दी।
उत्तराखण्ड में गायत्री परिवार से जुड़ी अपनी बहन के साथ अनिरुद्ध वर्ष 1997 में उत्तराखण्ड पहुँचे और वह अल्मोड़ा के मिरतोला जिसे उत्तर वृंदावन भी कहा जाता है जाना चाहते थे पर उत्तरकाशी में ‘इंदु टेकेकर’ जो विमला ताई की परिचित थी ने उन्हें टिहरी में सुंदर लाल बहुगुणा के साथ टिहरी बचाने के लिए चल रहे ‘टिहरी बचाओ आंदोलन’ में शामिल होने के लिए कहा।
आंदोलन में शामिल होने के साथ ही अनिरुद्ध ‘पर्वतीय नवजीवन मंडल सिलियारा टिहरी (घनसाली)’ संस्था के साथ जुड़ गए।
सिलियारा की बंजर भूमि पर उन्होंने लाइब्रेरी, गौशाला और विद्यालय खोला जिसमें पढ़ाई करने के लिए वह चीन बॉर्डर पर स्थित पिस्वाड़ गांव से भी बच्चे लाए।
इस बीच टिहरी में कौसानी से आए हुए राधा भट्ट, दीक्षा बिष्ट जैसे गांधीवादियों से उनकी मुलाकात हुई जिन्हें कौसानी में एक शिक्षक की आवश्यकता थी।
वर्ष 1999 में अल्पा के साथ गुजरात में विवाह के बाद अनिरुद्ध उन्हें गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ घुमाते हुए कौसानी पहुंचे।
जहां उन्होंने दस गाँव गोद लिए और महिला मंगल दल बनाया।
बहुत से महिलाओं को स्वरोज़गार के लिए प्रेरित किया।
घराट की चक्की चला उसका आटा उत्तराखण्ड से दिल्ली तक बेचा।
उनकी पत्नी भी सरला बहन के ‘कस्तूरबा महिला उत्थान मण्डल कौसानी’ से जुड़ कर वहां संस्कृत पढ़ाने लगी।
वर्ष 2001 में उन्होंने अल्मोड़ा के कुछ ‘ड्रॉपआउट’ छात्रों को ‘ब्रिज कोर्स’ कराया जो अब अच्छी नौकरी कर रहे हैं।
अनिरुद्ध को अपने सामाजिक कार्यों की वजह से अब आर्थिक समर्थन भी मिलने लगा था जिस कारण धन का हिसाब रखने के लिए उन्हें ‘जीवन मांगल्य ट्रस्ट’ का गठन करना पड़ा।
अनिरुद्ध जडेजा ‘उत्तराखण्ड सर्वोदय मण्डल’ के पहले सचिव थे और इसी के साथ उन्होंने कंधार (बागेश्वर) में शराब का विरोध किया। जिसमें इनके साथ सरला बहन की छात्रा दीक्षा बिष्ट भी ‘शराब नही रोज़गार दो, स्वदेशी अपनाओ’ नारे के साथ शामिल हुई। कंधार में सत्याग्रह के दौरान उनका अस्सी प्रतिशत शरीर लकवाग्रस्त हो गया।
अनिरुद्ध के परिवार जन उनकी इस स्थिति का समाचार सुन उन्हें जबरदस्ती वर्ष 2003 में गुजरात वापस ले गए। वहीं अनिरुद्ध और अल्पा को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
अनिरुद्ध की तबियत में अब सुधार आने लगा था तो समाजसेवी अनिरुद्ध भला कैसे शांत बैठ सकते थे। इस बीच ‘गुजरात स्वराज संघ’ गुजरात में भूकम्प के बाद पुनर्वासन का कार्य कर रहा था।
अनिरुद्ध उन्हीं से जुड़ गए और फिर वह वर्ष 2004 में 33 लोगों की टीम के साथ सुनामी से ग्रसित तमिलनाडु के नागपट्टनम जिले में रह कर पुनर्वासन एवं राहत कार्य में लग गए।
उन्होंने उड़ीसा में चक्रवात तूफान के बाद के राहत कार्यों में भी हिस्सा लिया।
विमला ठाकर ने पूरे एशिया में समाजसेवा के लिए एशियन बिरादरी बनाई थी। वर्ष 2005 में विनाशकारी भूकम्प आने पर पाकिस्तान से अनिरुद्ध को मदद के लिए बुलाया गया पर उन्होंने पाकिस्तान जाने के बजाए सेवा करने के लिए अपने देश को चुना और वह ‘ग्राम स्वराजय संघ’ के साथ कश्मीर चले गए।
वहां उन्होंने 56 राष्ट्रीय राईफल्स के साथ बारामूला के नावा रुण्डा गांव में भूकम्प से तबाह घरों को फिर से बनाने में मदद की।
उसके बाद गुजरात भूकम्प के पुनर्वासन अभियान में उनके साथ काम कर चुकी वृंदा डार ने कश्मीर में नए मकान बनाने के एक प्रोजेक्ट ‘कश्मीर प्रोजेक्ट ऑक्सफेम’ का कार्यभार उन्हें सौंपा जिसकी तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ एपीजे कलाम ने भी तारीफ़ की थी।
गुजरात वापस आ अनिरुद्ध जडेजा ने प्राकृतिक संसाधनों पर मालिकाना हक के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की मदद से 19 सत्याग्रह आंदोलन किए और सब में जीत हासिल की। यह सारे आंदोलन उन्होंने ‘सौराष्ट्र लोक समिति’ के बैनर तले लड़े जिसके वह संयोजक भी थे।
इनमें से एक महुआ,जिला भावनगर में निरमा सीमेंट फैक्ट्री के स्थान को लेकर किया गया आंदोलन भी था। जिसके लिए उन्हें तीन महीने की जेल भी हुई थी।
गुजरातियों में गांव के प्रति कम होते लगाव से व्यथित हो अनिरुद्ध वर्ष 2016 में फिर से वापस उत्तराखण्ड आ गए।
वर्ष 2019 में पानी की बर्बादी पर उन्होंने भीमताल में ‘जल पंचायत’ भी की थी।
वर्तमान में वह अपनी सोच से मिलते जुलते ‘अवनी’ एनजीओ के साथ कार्य कर रहे हैं।
अवनी ग्रामीण महिलाओं और पुरुषों के लिए आत्मनिर्भर और पर्यावरण की दृष्टि से स्थायी आपूर्ति श्रृंखला के माध्यम से व्यवहार्य रोज़गार खोजने के अवसर पैदा करती है।
एक पिरूल के प्लांट में सात-आठ लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोज़गार मिलता है। इस प्लांट से यूपीसीएल को प्रतिदिन 300-400 यूनिट बिजली बेची जाती है। साल भर में एक प्लांट से चार से पांच लाख तक कि कमाई की जा सकती है।
इस प्रोजेक्ट पर जिला उद्योग केंद्र, उरेडा, यूपीसीएल और अवनी मिलकर कार्य कर रहे हैं।
यूपीसीएल अगले बीस वर्षों तक इससे बिजली खरीदेगा।
अनिरुद्ध का काम इस प्रोजेक्ट पर लोगों को जागरूक करने का है। वह इसके जमीनी कार्य देखने के साथ-साथ जनता और सरकार के बीच संचार का जरिया भी हैं।
निगराड़, अल्मोड़ा में पिरूल से बिजली के उत्पादन वाले एक प्लांट में अनिरुद्ध कहते हैं कि “पहले पिरूल से जंगलों में आग लगती थी अब उसका सदुपयोग हो रहा है। जो युवा बेरोज़गार हो आत्महत्या की सोच रहे थे वह अब इस पर रुचि ले रहे हैं। ग्रामोद्योग से देश आगे बढ़ेगा”।
अवनी के काम से प्रेरित हो उत्तराखण्ड सरकार ने वर्ष 2018 में पिरूल नीति बनाई।
अनिरुद्ध का सपना उत्तराखण्ड में हुनर स्कूल खोलने का है जिसमें स्किल सीख उत्तराखण्ड के छात्र भविष्य में पलायन नही करेंगे। इसके साथ ही वह उत्तराखण्ड के युवाओं में देश के प्रति समर्पण को देखते हुए एक रक्षा यूनिवर्सिटी भी खोलना चाहते हैं जिसमें युवाओं को सेना में भर्ती होने की ट्रेनिंग दी जाएगी।
अनिरुद्ध उत्तराखण्ड के राजकीय इंटर कॉलेजों में कम्प्यूटर की शिक्षा देना चाहते हैं ताकि इस ऑनलाइन जमाने में यहां के छात्रों को कम्प्यूटर की जानकारी रहे और उन्होंने रामगढ़ ब्लॉक से इस पर काम भी शुरू कर लिया है।
वह उत्तराखण्ड के हर जिले में गोसेवा समिति भी खोलना चाहते हैं जो लावारिस और बूढ़े पशुओं के लिए होगी और वहां पशुओं के मलमूत्र से जैविक खेती की जाएगी।
गुजरात का होकर वहां से सैंकड़ो किलोमीटर दूर उत्तराखण्ड को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले अनिरुद्ध में आप गांधीजी, विनोबा भावे, रामकृष्ण परमहंस और विमला ठाकर की छवि देख सकते हैं यह आप उनके पास थोड़ी देर बैठकर खुद ही पहचान लेंगे।
‘अवनी’ के पिरूल प्लांट पर ट्रेनिंग के लिए आए युवाओं को बिना शर्त अपने कमरे में रहने की इजाजत देना हो या मेरे लिए दिन का भोजन तैयार करना और शाम को विदाई पर नाशपाती के फल उपहार स्वरूप देना। यह सब उनके अद्भुत व्यक्ति होने का छोटा सा प्रमाण है।
कोरोना काल में कोरोना संक्रमित होने के बाद अनिरुद्ध गम्भीर रूप से बीमार भी हुए थे पर उससे विजय पाने के बाद वह जनसेवा के अपने कार्य को फिर से आगे बढ़ा रहे हैं और नौलों धारों के संरक्षण पर भी कार्य कर रहे हैं।
हिमांशु जोशी, उत्तराखंड
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