उत्तराखंड मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत को क्यों हटना पड़ा !
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को भारतीय जनता पार्टी हाईकमान ने क्यों हटाया. एक विवेचना देहरादून से वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत द्वारा.
भाजपा हाईकमान से कुर्सी छोड़ने का आदेश मिलने पर 9 मार्च को त्रिवेन्द्र सिंह जी हवाई जहाज से देहरादून पहुंचे तो भाण्ड मीडिया ने प्रचारित किया कि उनको आला कमान से अभयदान मिल गया। शाम को जब त्रिवेन्द्र जी इस्तीफा देने राजभवन जाने वाले थे तो चाटुकारों ने सोशियल मीडिया पर प्रचार किया कि उनको मंत्रिमण्डल का विस्तार करना है इसलिये शपथ ग्रहण समारोह के लिये समय मांगने राज्यपाल के पास जा रहे हैं। चाटुकारिता, भाण्डगिरी और बेशर्मी की भी एक हद होती है। तथाकथित पत्रकारों ने वह हद भी पार कर दी।
सच्चाई और विस्वसनीयता पत्रकारिता की प्राण होती है। ऐसे चाटुकारों ने निजी स्वार्थों के लिये पत्रकारिता के प्राण हर लिये हैं। पत्रकारिता का कर्तव्य सच्चाई को सामने लाना है न कि अफवाह फैला कर पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं को गुमराह करना।
पिछले चार सालों में त्रिवेन्द्र जितनी बार गलतियां करते रहे उतनी बार ये कथित पत्रकार उन गलतियों को छिपाने के लिये जनता को गुमराह करते रहे। चाहे सवा लाख करोड़ का निवेश हो, चाहे जमीनों की खुली लूट खसोट के लिये भूमि कानून का सत्यानाश करना हो, चाहे कमिश्नरी का झुनझुना हो आदि आदि। ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा भी एक छलावा ही थी जिसे चाटुकार महिमामण्डित करने से बाज नहीं आये।
इनके लिये प्रदेश और समाज के हित त्रिवेन्द्र जी के हितों के सामने गौण और अनावश्यक थे। अगर त्रिवेन्द्र रावत को अपनी वास्तविकता का पता चलने दिया जाता और भांड लोग झूठी तारीफें कर उन्हें गुमराह नहीं करते तो संभवतः वह अपनी गलतियां भी सुधारते और उन पर देश का सबसे खराब मुख्यमंत्री होने का टैग भी नहीं लगता।
जब एक चैनल और सर्वे ऐजेंसी के सर्वे में उन्हें सबसे अलोकप्रिय मुख्यमंत्री बताया गया तो भंाड मीडिया सर्वे को झुठलाता रहा। हाइकोर्ट ने जब मुख्यमंत्री के खिलाफ कुछ पत्रकारों द्वारा लगाये गये आरोपों की जांच के लिये सीबीआइ को आदेश दिये गये तो त्रिवेन्द्र उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गये। यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार भी था। उन्हें स्टे भी मिल गया। जो कि हाइकोर्ट के फैसले पर अंतिम निर्णय होने तक स्वाभाविक ही था।
लेकिन चाटुकारों ने सुप्रीमकोर्ट द्वारा नोटिस जारी किये जाने की रिपोर्ट करने के बजाय हाइकोर्ट के फैसले पर जजों की अलिखित टिप्पणियों को आधार बना कर उल्टा हाइकोर्ट को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। जबकि मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में है और त्रिवेन्द्र रावत की कुर्सी जाने का एक प्रमुख कारण यह मामला भी है। इस तरह देखा जाय तो त्रिवेन्द्र रावत को डुबोने में जितना योगदान उनके अनाड़ी सलाहकारों का रहा, उतना ही मीडिया के चाटुकारों का भी रहा।
त्रिवेन्द्र जी ने अपनी विद्वता झाड़ने के लिये जब कहा था कि धरती पर गाय अकेला जीव है जो कि सांस में आॅक्सीजन लेता है और आॅक्सीजन ही छोड़ता है, तो समझने वाले समझ गये थे कि अमित शाह ने इस नये राज्य पर ऐसा बोझ थोप कर अन्याय ही किया है।
उनकी अद्भुत विद्वता के एक नहीं अनेक उदाहरण थे। उन्होंने एक बार भारत को क्षेत्रफल के हिसाब से विश्व का सबसे बड़ा देश घोषित कर दिया था। यही नहीं उन्होंने टीबी के मरीजों को गोशाला में रहने की सलाह तक दे डाली थी। त्रिवेन्द्र जी ने जब रिस्पना को ऋषिपर्णा का नाम दे कर उसे फिर जीवित करने की भगीरथ घोषणा की तो समझ में आ गयाा था कि डिफेंस कालोनी में त्रिवेन्द्र जी के घर के निकट गौरा देवी वाटर पार्क की ही तरह यह हवाई घोषणा भी कभी धरती पर नहीं उतरेगी। कोसी नदी के बारे में भी ऐसी ही शेख चिल्ली जैसी घोषणा हुयी थी। उनके सलाहकारों को अगर देहरादून के इतिहास और भूगोल की जानकारी होती तो ऐसी घोषणा कभी नहीं होती।
मुख्यमंत्री बनने के बाद त्रिवेन्द्र रावत ने पहली प्रेस कान्फ्रेंस में जब कोटद्वार से रामनगर के बीच राजाजी पार्क होते हुये कण्डी मार्ग के निर्माण की घोषणा की थी तो मैंने उसी समय उनको पूछ लिया था कि राष्ट्रीय पार्क के बीच से सड़क कैसे बनाओगे? उसके लिये पार्क का डिनोटिफिकेशन करना होगा और डिनोटिफिकेशन के लिये भी सुप्रीम कोर्ट की अनुमति लेनी होती है। आखिर वह घोषणा भी उनके और उनके चाटुकारों के अरमानों की तरह अधूरी रह गयी। उन्होंने श्रीनगर मेडिकल कालेज को सेना के सुपुर्द करने की घोषणा की थी। यह घोषणा भी अपने आप में अद्भुत ही थी। ऐसा तभी संभव था जबकि सेना इसका अधिग्रहण कर इसे आम्र्ड फोर्सेज मेडिकल कालेज (एएफएमसी) के रूप में बदलती। एएफएमसी फौज के लिये डाक्टर तैयार करती है न कि नागर शासन के लिये।
सूर्यधार पर्यटन प्राजेक्ट के मामले में भी भांड मीडिया प्रोपर्टी डीलर संजय गुप्ता और त्रिवेन्द्र रावत के व्यावसायिक संबंधों के उजागर होने पर भी लीपापोती करता रहा। जब एक पत्रकार ने संजय गुप्ता का स्टिंग आपरेशन किया तो पूर्व की भांति पत्रकारों को पहाड़ और मैदान में बांटने का प्रयास किया गया। इसी तरह झारखण्ड के एक भाजपा नेता द्वारा कुछ लोगों के खातों में 25 लाख जमा किये जाने वाले काण्ड में भी लीपापोती की गयी और खुलासा करने वालों को ब्लैकमेलर घोषित कर यह मामला भी रफादफा करने का प्रयास किया गया। ग्रीष्मकालीन राजधानी की कोरी घोषणा पर तो चाटुकार वाहवाही कर ही रहे थे, मगर पिछले साल 15 अगस्त को भराड़ीसैण में त्रिवेन्द्र रावत ने स्वयं को गैरसैण का भूमिधर होने की घोषणा कर डाली तो भांड मीडिया उनके गैरसैण प्रेम की दुहाई देने लगा। जबकि यह खरीद उनके भूमि व्यवसाय का ही एक हिस्सा था। इससे पहले वह गैरसैण में जमीनों की खरीद फरोख्त पर कांग्रेस सरकार द्वारा 2012 में लगी रोक को हटा चुके थे। ताकि नये विकसित होने वाले पहाड़ी नगर में भी जमीनों की खरीद फरोख्त का व्यवसाय फलफूल सकें और स्थानीय निवासी भूमिहीन होते रहें।
अन्य नियमों की तरह उत्तर प्रदेश जमींदारी विनास एवं भूमिसुधार अधिनियम 1950 (जेडएएलआर) को भी उत्तराखण्ड ने अंगीकार किया था। जिसमें हिमाचल प्रदेश की धारा 118 की तरह इसकी धारा 154 में संशोधन कर तिवारी सरकार ने गैर कृषकों के कृषि योग्य भूमि खरीदने पर रोक लगा दी थी। इसमें केवल 500 वर्गमीटर से अधिक जमीन खरीदने के लिये शासन की अनुमति जरूरी बनायी गयाी थी। इसमें खण्डूड़ी सरकार ने संशोधन कर वह सीमा 250 वर्ग मीटर कर दी थी। लेकिन त्रिवेन्द्र सरकार ने भूमि व्यवसायियों के हित साधने के लिये इस अधिनियम की भी मिट्टी पलीत कर दी। त्रिवेन्द्र सरकार को जानकारी ही नहीं थी कि पहाड़ों में जेडएएलआर 1950 नहीं बल्कि कूजा एक्ट 1960 लागू होता है। त्रिवेन्द्र सरकार का पहाड़ के लोगों के साथ सबसे बड़ा फरेब था। यह भूमाफिया के हाथों पहाड़वासियों की पीढ़ियों की जमीनें लुटवाने का ही एक उपक्रम था।
वैसे पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत पौड़ी जिले की कोटद्वार तहसील के खैरासैण गांव के मूल निवासी हैं और देहरादून की डिफेंस कालोनी के सेक्टर-3 में उनकी कोठी है। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में दाखिल शपथ पत्र के अनुसार उनके पास 0.173 है0 कृषि योग्य पैत्रिक जमीन होने के साथ ही उनकी पत्नी के नाम कुल 0.227 है0 के तीन कृषि योग्य प्लाट हैं, जो कि उन्होंने 2012 में खरीदे हैं। इसके अलावा त्रिवेन्द्र जी की पत्नी के नाम 8963.83 वर्ग फुट के 3 गैर कृषि भूखण्ड भी हैं जो उन्होंने 2010 में खरीदे हैं। इस प्रकार देखा जाये तो त्रिवेन्द्र रावत और उनकी पत्नी श्रीमती सुनीता रावत के नाम पैत्रिक भूमि के अलावा कुल 6 भूखण्ड 2017 तक थे। श्रीमती सुनीता रावत प्राइमरी की शिक्षिका थीं और अब सीनियर प्राइमरी स्कूल में ही एक स्कूल में तैनात हैं। कोई भी समझ सकता है कि एक प्राइमरी की टीचर कैसे करोड़ों की जमीनें खरीद सकती हैं। इन सम्पतियों की खरीद की जानकारी शिक्षा विभाग को तक नहीं दी गयी। अगर दी गयी तो उनसे आय का श्रोत क्यों नहीं पूछा गया? मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी और करीबी जनों की जमीनों के बारे में केवल कानाफूसी ही चल रही है। इसलिये इस बारे में निश्चित रूप से फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता।
उन्होंने गैरसैण ग्रीष्मकालीन राजधानी के नाम पर भी हवाबाजी ही की। पहाड़ के लोगों ने सचमुच की ऐसी राजधानी मांगी थी जहां पर सरकार और उसकी मशीनरी बैठ कर राजकीय कार्य कर सके। लोगों ने विधायकों के बैठने की जगह नहीं बल्कि मंत्रियों और सचिवों के स्थाई रूप से बैठने की मांग की थी। इससे पहले विधानसभा भवन आदि का निर्माण तो कांग्रेस सरकार ही करवा गयी थी। हरीश रावत सरकार ने ही वहां विधानसभा सत्रों की शुरुआत की थी। इन्होंने अलग से क्या किया? पौड़ी कमिश्नरी की खोई हुयी महिमा और गरिमा लौटाने की बात त्रिवेन्द्र ने पिछले साल कमिश्नरी की स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर की थी। उनकी यह घोषणा भी हवा में ही रह गयी। जो व्यक्ति पौड़ी में कमिश्नर नहीं बिठा सका वह गैरसैण के डांडे में कमिश्नर बैठाने की हास्यास्पद घोषणा कर गया।
पिछले साल चार राज्यों के चुनावों में भाजपा की निराशाजनक परफार्मेंस के बाद राजनीतिक पंडितों ने त्रिवेन्द्र की कुर्सी को खतरे में बता दिया था। संभवतः कोरोना और गलवान में चीन की गुस्ताखी से उत्पन्न तनाव के कारण उनकी कुर्सी जाने का खतरा कुछ समय के लिये टला जरूर था, मगर समाप्त नहीं हुआ था। अशंका थी कि नये साल में इनकी कुर्सी जा सकती है। भाजपा के अन्दर से फीडबैक भी यही मिल रहा था। लेकिन जब सी वोटर और एक चैनल के सर्वे में त्रिवेन्द्र को सबसे खराब मुख्यमंत्री घोषित किया गया तो पूरा यकीन हो गया था कि इनकी कुर्सी जानी पक्की है। त्रिवेन्द्र मंत्रिमण्डल में दो सीटें पहले से खाली थी और एक सीट प्रकाश पन्त जी के निधन से खाली हुयी थी। जिस कारण मुख्यमंत्री को ही उन विभागों का बोझ ढोना पड़ रहा था। प्रदेशवासी हैरान थे कि 57 विधायकों में मुख्यमंत्री को 3 अदद विधायक भी मंत्री बनने लायक नहीं मिल रहे हैं। दरअसल उनको ऐसे लोग पसन्द नहीं थे जो कि उनसे योग्य, अनुभवी और उनसे बड़े राजनीतिक कद के थे। वह योग्य मंत्रियों से भी ईष्र्या करते थे, जिसके कई उदाहरण मैजूद हैं। मुख्यमंत्री के पास वित्त, स्वास्थ्य, उर्जा, गृह जैसे तमाम विभागों को बोझ था जिसे वह ढो नहीं पा रहे थे। सबसे खराब हाल उन्हीं विभागों की थी जो कि मुख्यमंत्री के पास थे। नेता सदन होते हुये भी वह विधानसभा में विपक्ष के सवालों से घबराते थे। इसलिये 4 सालों में शायद ही कोई ऐसा सत्र आया होगा जिसमें मुख्यमंत्री के विभागों वाला सोमवार शामिल रहा हो। त्रिवेन्द्र को बार-बार प्रयास करने पर भी अपने मंत्रिमण्डल के विस्तार की अनुमति न मिलने का मतलब साफ था कि भाजपा नेतृत्व को त्रिवेन्द्र पर भरोसा नही ंथा, इसलिये जब इनको बदला ही जाना था तो अनावश्यक रूप से मंत्रिमण्डल विस्तार की अनुमति भी क्यों मिलती। मंत्रिमण्डल का विस्तार करने की अनुमति न देने के पीछे भाजपा नेतृत्व की मन्शा को राजनीति की थोडी सी भी समझ रखने वाला व्यक्ति भी भांप रहा था। कुल मिला कर देखा जाय तो त्रिवेन्द्र जी की सरकार को उनका अहंकार, अड़ियल बर्ताव, सामान्य ज्ञान का भी अभाव और खास कर मीडिया के चाटुकार और सलाहकार ले डूबे।
-जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
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