उत्तराखंड की पर्यावरणीय आपदा: चौड़ी सड़कों की कीमत पर कराहते पहाड़ और उजड़ता भविष्य
वी के पंत
मैं उत्तराखंड का निवासी हूँ। मेरी रिश्तेदारियाँ अल्मोड़ा और नैनीताल में हैं, क्योंकि मूलतः हम अल्मोड़ा जिले के हैं। नौकरी की वजह से पिता जी उत्तर प्रदेश आ गए और हम भी वहीं पले-बढ़े, देश के विभिन्न हिस्सों में काम किया, लेकिन उत्तराखंड से नाता कभी नहीं टूटा। हर साल यहाँ आना-जाना होता रहा। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मैंने एक अलग उत्तराखंड देखा है—एक ऐसा पहाड़ जो शांत नहीं रहा, जो गरजने लगा है, बहकने लगा है और कराह रहा है।
मुझे आज भी 1970 के दशक की वो गर्मियाँ याद हैं, जब नैनीताल में पंखों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। घरों में पंखे नहीं होते थे, वातावरण सहज और ठंडा रहता था। लेकिन आज हर घर में पंखा है, कहीं-कहीं एयर कंडीशनर भी। यह केवल सुविधाओं की बात नहीं, यह उस जलवायु के परिवर्तन की कहानी है जो उत्तराखंड की पहचान थी।
धराली की बर्बादी और पहाड़ की चीख
अभी हाल ही में उत्तरकाशी जिले के धराली में बादल फटा। सड़कें बह गईं, खेतों की मिट्टी गायब हो गई, घरों में मलबा घुस आया। यह कोई पहली घटना नहीं है—केदारनाथ (2013), जोशीमठ (2023), अब धराली (2025)। ये घटनाएँ एक नये “सामूहिक पहाड़ी अनुभव” का हिस्सा बनती जा रही हैं। पर सबसे बड़ी क्षति यह है कि हम अब भी इसे “असामान्य घटना” मान कर आगे बढ़ जाते हैं — जैसे हिमालय की सहनशीलता की कोई सीमा न हो। यह लेख उसी अनदेखे और अनसुने संकट को समझने की कोशिश है, जो हमारे अपने ही कॉर्पोरेट विकास मॉडल से उपजा है।
सड़क चौड़ीकरण के नुकसान
तापमान में वृद्धि उत्तराखंड में सड़क चौड़ीकरण का काम 2005 के बाद तीव्र गति से शुरू हुआ। खासतौर पर चारधाम परियोजना के नाम पर 2016 के बाद तो मानो पूरा हिमालय खोद दिया गया। पेड़ कटे, पहाड़ डायनामाइट से उड़ाए गए, और जंगलों को बिना सोचे समझे साफ़ किया गया। नतीजा? नैनीताल और अल्मोड़ा में औसतन तापमान में 2 से 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज हुई है। 1970 में जहां नैनीताल का औसत अधिकतम ग्रीष्मकालीन तापमान 21–22 डिग्री होता था, आज यह 26–28 डिग्री तक पहुँच चुका है।
गढ़वाल के श्रीनगर, पौड़ी और टिहरी जैसे शहर भी अब गर्मियों में असहनीय हो चले हैं। श्रीनगर, जो पहले सर्दी में जमता था, अब गर्मियों में 36 डिग्री तक पहुँच जाता है। पौड़ी, कभी एक शीतल नगर माना जाता था, वहाँ भी गर्मी ने दस्तक दे दी है।
भूस्खलन की तीव्रता में वृद्धि: कटाव तकनीक का अभाव, अनियोजित ब्लास्टिंग और मलबा फेंकने की लापरवाही से भूस्खलन अब आम बात हो गई है। चारधाम मार्ग, कर्णप्रयाग रेल लाइन और नैनीताल-हल्द्वानी रोड पर हर बरसात में भूस्खलन दर्ज किया जाता है। पहले जो भूस्खलन अपवाद थे, वे अब सामान्य हो गए हैं। NDMA के अनुसार, उत्तराखंड में भारी भूस्खलन रिपोर्ट हुए। वैज्ञानिकों के अनुसार हिमालय का यह क्षेत्र युवा और संवेदनशील है, जहाँ इतनी बड़ी दर से कटाव करना पारिस्थितिकीय आत्महत्या जैसा है।
जलस्रोतों का विनाश: अदृश्य लेकिन घातक क्षति सड़क के दोनों ओर की जलधाराएं और स्रोत जो पहले गाँवों और कस्बों को जल प्रदान करते थे, अब या तो दब गए हैं या मलबे से बंद हो गए हैं। पेड़ों की कटाई से भूजल रिचार्जिंग में कमी आई है। Centre for Ecology Development and Research (CEDAR) तथा नीति आयोग के मुताबिक हिमालयी क्षेत्र में जलस्रोतों की संख्या में भारी गिरावट देखी गई है। भूगर्भीय संतुलन बिगड़ने से जलभराव कम हुआ है। ग्राम स्तर पर पहले जो कुएँ और स्रोत वर्षभर चलते थे, वे अब बरसात के कुछ महीनों में ही सीमित हो गए हैं।
विशेषज्ञों का मत है कि धराली जैसे क्षेत्र, जो कि पारंपरिक रूप से जलग्रहण क्षेत्र रहे हैं, अब बेतरतीब सड़क निर्माण, वनों की कटाई, और मशीन आधारित विकास मॉडल के कारण अत्यधिक संवेदनशील हो गए हैं।
बदलते भूगोल का बदलता समाज
इन तापमान परिवर्तनों और पर्यावरणीय असंतुलन ने उत्तराखंड के सामाजिक ढाँचे पर भी प्रभाव डाला है। जहाँ पहले कोई सोचता था कि ‘पहाड़ में शुद्ध हवा और शांत जीवन मिलेगा’, अब वही कहता है कि ‘यहाँ भी धुआँ है, भीड़ है, और डर है।’
गर्मी और पर्यावरणीय असंतुलन ने खेती को संकट में डाला है, फलदार वृक्षों का उत्पादन घटा है, जल स्रोत सूखते जा रहे हैं। स्थानीय रोजगार घटा है, और पर्यटन—जो कभी वरदान माना जाता था—अब कई जगह अभिशाप बनता जा रहा है।
पर्यटन और रोजगार: दोधारी तलवार
उत्तराखंड का पर्यटन अब अनियंत्रित है। नैनीताल, मसूरी, टिहरी, ऋषिकेश जैसे शहर सालभर पर्यटकों से भरे रहते हैं, पर इसकी कोई पारिस्थितिकीय योजना नहीं है। होटल पहाड़ों को काटकर बनाए जा रहे हैं, जलस्रोतों पर दबाव बढ़ा है, कचरा और प्लास्टिक झीलों और नदियों में उतर गया है।
इसका असर स्थानीय रोजगार पर भी हुआ है—कई युवा अब पारंपरिक खेती छोड़कर पर्यटक-निर्भर व्यवसायों में लग गए हैं, जो स्थायी नहीं हैं। ज़रा सी आपदा—जैसे भारी बारिश या भूस्खलन—इन रोजगारों को पूरी तरह खत्म कर देती है। पर्यटन का बढ़ना स्वागतयोग्य है, लेकिन अगर यह अनियंत्रित हो तो पहाड़ों के लिए आत्मघाती है।
मोटर लाबी और निर्माण की राजनीति
जब सरकारें सड़क चौड़ीकरण जैसी परियोजनाओं की घोषणा करती हैं, तो यह अक्सर ‘जनता के हित’ और ‘विकास की आवश्यकता’ के नाम पर किया जाता है। लेकिन इसके पीछे कई बार ऐसे हित होते हैं जो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देते, पर नीति निर्धारण को गहराई से प्रभावित करते हैं। मोटर व्हीकल लॉबी मे आने वाले समूह कार, ट्रक और SUV निर्माता कंपनियाँ, वाहन डीलर्स, सर्विस प्रोवाइडर्स, एक्सप्रेसवे निर्माण और टोल कंपनियाँ, पेट्रोलियम कंपनियाँ और लॉजिस्टिक्स सेक्टर। इन सभी का एक साझा लक्ष्य होता है:जितनी चौड़ी सड़क, उतनी अधिक गाड़ियाँ — उतना अधिक मुनाफा”। ये लॉबी सरकार पर नीति निर्माण को वाहन-केंद्रित बनाने के लिए दबाव बनती है। मीडिया और विज्ञापनों के जरिए यह दिखती है कि चौड़ी सड़कें ही विकास का मापदंड हैं तथा स्थानीय विरोध को “विकास विरोधी” प्रचारित करती है। उत्तराखंड में आज जो हो रहा है, वह केवल विकास नहीं, बल्कि निर्माण की राजनीति है। सड़क चौड़ीकरण ही विकास का पर्याय बना चुका है। इस सोच ने गाँवों को उपभोग की वस्तु बना दिया है।
बुद्धिजीवियों और शिक्षाको की भूमिका
आज ज़रूरत है कि बुद्धिजीवी वर्ग—शिक्षक, पत्रकार, लेखक, योजनाकार—इस पूरे परिदृश्य पर गंभीर विमर्श आरंभ करें। दिल्ली, लखनऊ, देहरादून या अल्मोड़ा में बैठकर केवल “ग्लोबल वॉर्मिंग” की चर्चा काफी नहीं है। स्थानीय भाषा, स्थानीय मुद्दों और स्थानीय अनुभवों के माध्यम से पहाड़ की आवाज़ बननी होगी। जब विकास और पर्यावरण आमने-सामने खड़े हों, तब बुद्धिजीवियों को चाहिए कि वे:
1. समस्या का वैज्ञानिक और नैतिक विश्लेषण करें: जनहित और पर्यावरण के बीच संतुलन का विवेकशील आधार दें
2. जन संवाद की भाषा गढ़ें: आमजन को आसान भाषा में तथ्यों के साथ शिक्षित करें
3. शोध और दस्तावेज़ीकरण करें; भूस्खलन, जलस्रोत हानि, पलायन आदि का क्षेत्रीय अध्ययन करें
4. नीति-निर्माण में भागीदारी करें: पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) रिपोर्टों की समीक्षा करें, PIL या जन प्रस्तुति दें
5. युवाओं का मार्गदर्शन करें: उन्हें दिशा दें, नेतृत्व के लिए प्रेरित करें
6. मीडिया और मंचों पर सक्रिय रहें: तथ्य आधारित, शांतिपूर्ण और विवेकपूर्ण उपस्थिति दर्ज करें
7. राज्य को जवाबदेह बनाएं: संविधान, पर्यावरण और मानवाधिकार के स्तर पर संवाद करें
8. शिक्षकों की ज़िम्मेदारी:
o स्थानीय विद्यालयों, महाविद्यालयों और मंचों पर वैज्ञानिक दृष्टि से इन विषयों को युवाओं के साथ साझा करें।
o सच्चे डाटा, फिल्म, फोटोग्राफी, लोक साहित्य और अध्ययन यात्राओं के माध्यम से छात्रों को प्रेरित करें।
“बुद्धिजीवी का मौन, हिमालय की चुप्पी से भी खतरनाक होता है।”
युवा चेतना कैसे आंदोलित की जाए
शिक्षा और संवाद: स्कूलों में “स्थानीय पारिस्थितिकी और रोजगार” पर अनिवार्य विषय। युवा समूहों को प्रशिक्षण और भागीदारी
स्थानीय नेतृत्व; सड़क निगरानी दल, “हिमालय रक्षक” जैसे नागरिक अभियान, वृक्ष और जलस्रोतों की निगरानी टीम बनाएँ
सोशल मीडिया और जन अभिव्यक्ति: स्थानीय मुद्दों को युवाओं द्वारा डॉक्युमेंट करना और फैलाना।
युवाओं को चाहिए कि वे केवल नौकरी की तलाश में पलायन न करें, बल्कि स्थानीय नवाचार, जैविक खेती, पर्यावरण आधारित उद्यम, और डिजिटल माध्यमों से उत्तराखंड के लिए नया मॉडल गढ़ें। सोशल मीडिया आज एक सशक्त औज़ार है। युवा चाहें तो हर हफ्ते पहाड़ी आपदाओं और खनन के खिलाफ आवाज़ उठा सकते हैं।
गांधी, नेहरू, बहुगुणा और इंदिरा की चेतावनी
हमें यह याद रखना चाहिए कि महात्मा गांधी ने प्रकृति और ग्रामीण जीवन को ‘भारत की आत्मा’ कहा था। उनका ‘ग्राम स्वराज’ केवल राजनीतिक विचार नहीं था, वह एक संतुलित जीवन पद्धति की बात करता था।
नेहरू, जो वैज्ञानिक सोच के पक्षधर थे, उन्होंने हिमालय को “India’s sentinels” कहा था और बार-बार इस बात पर बल दिया कि प्राकृतिक विरासत के साथ छेड़छाड़ आत्मघाती सिद्ध होगी।
इंदिरा गांधी, जो स्वयं उत्तराखंड के केदारनाथ और बद्रीनाथ की तीर्थयात्रा पर जाया करती थीं, उन्होंने 1970 के दशक में अपने प्रवास के बाद कहा था कि:
“Himalayas are not just hills, they are our spiritual backbone. If we destroy them, we destroy a part of ourselves.” यह चेतावनी आज और भी अधिक प्रासंगिक है।
सुन्दरलाल बहुगुणा और चिपको आंदोलन ने “Ecology is Permanent Economy” का संदेश दिया और 1980 में इंदिरा गांधी को पेड़ों की कटाई पर रोक लगाने के लिए प्रेरित किया।
समाधान की दिशा में क्या किया जा सकता है?
1. Slope Reinforcement तकनीकों का प्रयोग: जैसे गेबियन वॉल्स, रिटेनिंग वॉल्स, ड्रेनेज चैनल्स, जैविक जालियाँ, और शॉटक्रीट — ताकि ढलानों को स्थिर किया जा सके।
2. सुरंग आधारित मार्ग (Tunnel Roads): यदि सही भूगर्भीय अध्ययन के बाद सुरंगें बनाई जाएं, तो वे पहाड़ों की कटाई कम कर सकती हैं। लेकिन सुरंग निर्माण भी अत्यंत जिम्मेदारी और वैज्ञानिकता से होना चाहिए।
3. वृक्षारोपण और जल स्रोत संरक्षण: ‘Zero net deforestation’ नीति अपनाई जाए। निर्माण कार्य के बाद उसी क्षेत्र में तीन गुना वृक्षारोपण। जलस्रोतों की GPS मैपिंग, जल बहाव मार्ग की सुरक्षा
4. हिमालयी राज्यों जैसे उत्तराखंड में रोपवे प्रणाली परिवहन का एक महत्वपूर्ण और टिकाऊ विकल्प बन सकती है। सड़कों के मुकाबले रोपवे निर्माण से न तो बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई करनी पड़ती है, न ही पहाड़ों की खुदाई और डायनामाइट से विस्फोट जैसी विनाशकारी प्रक्रियाओं की ज़रूरत होती है। यह पर्यावरणीय क्षति को कम करता है।
5. वैकल्पिक रोजगार सृजन: युवाओं को स्थानीय हस्तशिल्प, प्राकृतिक कृषि, डिजिटल पर्यटन गाइडिंग, और जल संरक्षण परियोजनाओं में रोजगार मिले। सड़क पर निर्भर पर्यटन के बजाय सांस्कृतिक, ग्रामीण और अध्ययन-आधारित पर्यटन को बढ़ावा मिले। सड़क मरम्मत, slope सुरक्षा कार्य में स्थानीय मजदूरों की प्राथमिकता। मंडुवा, झंगोरा, शहद, औषधीय पौधों का प्रोसेसिंग और मार्केटिंग में स्थानीय लोगों को रोजगार मिले।
6. जनस्वराज की अवधारणा हिमालय जैसे नाजुक और संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा में एक मजबूत वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। इसका मूल आधार ही यह है कि विकास का निर्णय स्थानीय समुदाय लें, बाहरी पूंजी और मुनाफाखोरी नहीं। जब गांवों को निर्णय लेने की शक्ति मिलेगी, तो सड़क चौड़ीकरण, सुरंग, बांध, खनन या होटल निर्माण जैसे निर्णयों में स्थानीय भूगोल, संस्कृति और पर्यावरण की भूमिका केंद्र में होगी, न कि सिर्फ लाभ की।
यूरोप से सबक
हमें यूरोप से सीखना चाहिए। स्विट्ज़रलैंड, ऑस्ट्रिया, और नॉर्वे जैसे देश अपने पर्वतीय क्षेत्रों में विकास को बेहद नियंत्रित और पर्यावरण-सम्मत तरीके से करते हैं। वहाँ “slow tourism”, “eco-villages”, और “nature zones” जैसे मॉडल प्रचलित हैं। हर परियोजना से पहले सामाजिक व पारिस्थितिक मूल्यांकन होता है। “ESDAC (European Soil Data Centre) के आंकड़ों के अनुसार यूरोप के अधिकांश देशों में प्रति वर्ष औसतन 20–50 भूस्खलन होते हैं, जबकि भारत के उत्तराखंड राज्य में ISRO और NDMA द्वारा दर्ज औसत 200–400 घटनाएं हिमालय की संवेदनशीलता और अवैज्ञानिक विकास की गंभीरता को उजागर करती हैं।
सरकारों का कर्तव्य: हिमालयी असंतुलन को रोकना प्राथमिकता बने
उत्तराखंड जैसे हिमालयी राज्य में सरकारों का प्रथम कर्तव्य है कि वे विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन को सर्वोच्च प्राथमिकता दें। सड़क चौड़ीकरण, सुरंग निर्माण और अंधाधुंध पर्यटन को बढ़ावा देना बिना पर्यावरणीय आकलन और स्थानीय सहभागिता के विनाश को आमंत्रण देना है। सरकारों को चाहिए कि वे हिमालय के लिए एक पृथक और संवेदनशील विकास मॉडल अपनाएं, जिसमें पारिस्थितिकी, स्थानीय संस्कृति और आजीविका का संरक्षण मूल आधार हो। स्विट्ज़रलैंड और ऑस्ट्रिया जैसे देशों से सीखा जा सकता है, जहाँ पर्वतीय क्षेत्रों में निर्माण और पर्यटन के लिए सख्त पर्यावरणीय मानदंड हैं और स्थानीय समुदाय की भूमिका केंद्र में रखी जाती है। भारत में भी नीति-निर्माण को हिमालय की सहनशक्ति के अनुरूप ढालना होगा, वरना हर बादल फटना एक चेतावनी नहीं, एक आपराधिक चूक का परिणाम होगा।
आशा की किरण : म्यालकोट मॉडल की प्रेरणा
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले का म्यालकोट गांव आज हिमालयी संरक्षण के संदर्भ में एक प्रेरक उदाहरण बन चुका है। यहाँ के निवासियों ने वन विभाग और स्वयंसेवी संगठनों के सहयोग से जंगलों की रक्षा, जलस्रोतों के पुनर्जीवन और जैविक खेती के लिए सामूहिक प्रयास किए। स्थानीय युवाओं और महिलाओं ने मिलकर “वन प्रहरी समितियाँ” बनाईं, सूखते प्राकृतिक जल स्रोतों के पुनर्भरण हेतु पारंपरिक चाल-खाल पद्धति को अपनाया, और रसायनमुक्त खेती को प्रोत्साहित किया। इस पहल में न कोई भारी बजट था, न कोई तकनीकी चमत्कार — बल्कि था तो जनस्वराज की वही आत्मनिर्भर भावना, जो गांधी की ग्राम स्वराज की कल्पना से मेल खाती है। म्यालकोट दिखाता है कि यदि समुदायों को निर्णय की ताकत दी जाए, तो वे हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में टिकाऊ और पर्यावरण-संगत विकास का मार्ग अपना सकते हैं।
निष्कर्ष: यह समय चेतने का है
उत्तराखंड केवल एक राज्य नहीं, यह हिमालय की आत्मा है। अगर हम इसी गति से पहाड़ काटते रहे, नदियों को बांधते रहे और पर्यटन को उद्योग बनाते रहे, तो अगली पीढ़ी केवल तस्वीरों में नैनीताल और धराली को देखेगी।
हमें एक सामूहिक समझदारी, स्थानीय नेतृत्व, युवाओं की सक्रियता और नीति-निर्माताओं की ज़िम्मेदारी की ज़रूरत है। वरना ये पहाड़ चुप नहीं रहेंगे। वे चीखेंगे, वे बहेंगे, और वे हमें चेताएंगे—बार-बार।
हिमालय यदि जीवित रहा, तो जीवन बचेगा। नहीं तो विकास की रफ्तार ही हमारी विनाशगाथा बन जाएगी।