कंक्रीट के जंगल में ठिकाना ढूँढती गौरैया
राम दत्त त्रिपाठी , वरिष्ठ पत्रकार, लखनऊ से
बंगले के छज्जे में टंगे गौरैया के यह आधुनिक घोंसले पलाइबोर्ड से बनवाए गए हैं.इस घर में दो दर्जन ऐसे घोंसले टाँगे गए हैं. इनमे दाना पानी रखने की भी व्यवस्था है. इनमे से डेढ़ दर्जन में गौरैया रह रही हैं. ख़ुशी की बात है क़ि चिड़ियों ने इन नए घोसलों में अंडे भी दिए हैं.
घर के मालिक ब्रज लाल मूलतः उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ नगर ज़िले के रहने वाले हैं. वह इलाहाबाद विश्व विद्यालय में पढ़े और लम्बे समय तक भारतीय पुलिस सेवा की नौकरी की. उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक रहे. मगर शहर में रहते हुए भी अपने गाँव को अपने दिल में बसाए रहे. श्री ब्रज लाल का कहना है कि उन्होंने जब गोमती नगर विस्तार में घर बनवाना शुरू किया तो उनके प्लॉट पर गौरैया का एक जोड़ा आया. उनका कहना है क़ि जब भी नया घर बनना शुरू होता है, गौरैया अपना हक़ जताने आती है. उन्होंने गौरैया की मूक भाषा सुनी और एक घड़े में छेद करके उसका ठिकाना बना दिया. उसमें दाना पानी भी रखा. फिर जब घर बन गया तो ये आधुनिक घोसले बनाकर टांग दिए.उनके घर में इस समय क़रीब पचास गौरैया हैं. बाक़ी की पक्षी भी हैं. उनके घर और बगीचे में ढेर सारी सब्ज़ियाँ और फल हैं, इसलिए भोजन की कमी नहीं होती. फिर चाहे वह गौरैया हो, कौवा और कबूतर हो या बुलबुल.
गौरैया एक ऐसी चिड़िया है जो दूसरे पक्षियों के डर से पेड़ों पर घोंसले नहीं बनातीं. गौरैया इंसानों के साथ उन्हीं के घरों में एक कोने में रहती रही हैं. पहले जब मिट्टी, लकड़ी, छप्पर और खपरैल के मकान थे, ये आसानी से घोंसले बना लेती थीं. लेकिन पक्के मकानों में वह घोंसला नहीं बना पातीं. जो लोग मूलतः गाँव के रहने वाले हैं उन्हें याद होगा कि कभी- कभी गौरैया के बच्चे घोंसले से गिर जाते हैं , तो उन्हें उठाकर फिर ऊपर रख दिया जाता है. किसान लोग धान की बालियाँ घरों में टांग देते हैं, ताकि चिड़िया चुगें. पूर्व पुलिस महा निदेशक ब्रज लाल ने अपने लखनऊ के घर में भी धान की बालियाँ टांगने की आदत बरकरार रखी है.
अब पक्के मकान में लोग कोई ऐसी जगह या कोना भी नहीं छोड़ते जहां गौरैया अपना घोंसला बना ले. अब घरों में आँगन में भी नहीं होते जहां गौरैया फुदक ले. अब आँगन में अनाज भी नहीं धोया सुखाया जाता है, जिससे गौरैया अपना भोजन पा ले.इंसानों ने अपनी आबादी बढ़ाने के लिए बड़े पैमाने पर जंगल, बाग, बगीचे , खेत नष्ट किए. वह भूल गया क़ि प्रकृति की योजना में सबकी जगह और सबकी भूमिका है. उदाहरण के लिए गौरैया को ही लीजिए. वह मुख्यतः आपके घर आँगन में कीड़े मकोड़े खाती है. मच्छर के लारवा खाती हैं. और इस तरह आपके स्वास्थ्य की रक्षा करती है.
तमाम तरक़्क़ी के बावजूद हम प्रकृति के सारे रहस्य नहीं जानते. उदाहरण के लिए जब गोरखपुर और कुशीनगर के आसपास इंसेफ़्लाइटिस बीमारी फैली थी, उस समय भूगोल के एक प्रोफ़ेसर ने मुझे बताया था कि जब बड़े पैमाने पर तराई के जंगल कटे तो जंगलों में रहने वाले विशेष प्रकार के मच्छर आबादी के अंदर आ गए. इंसान इनका अभ्यस्त नहीं था. यही मच्छर इंसेफ़्लाइटिस के कैरियर बने.अब कोरोना के संदर्भ में भी वैज्ञानिक दबी ज़ुबान से कह रहे हैं क़ि जंगल कटने और खेती की ज़मीनों पर कंक्रीट जंगल बना देने से वायरस भी कूद फाँदकर किसी न किसी माध्यम से इंसानों के पास आ रहे हैं. लेकिन उनकी बात सुनी नहीं जा रही है. उद्योग व्यापारी चाहते हैं की जल्दी से पुरानी व्यवस्था बहाल हो.
वायरस तो हम आंखों से देख नहीं सकते, लेकिन आपको यह तो मालूम है की जंगल और बाग बगीचे काटने से टाइगर, तेंदुआ और बंदर भोजन तलाशने के लिए गाँवों और नगरों की आबादी में आ रहे हैं. इसी तरह जंगल काटने से वहाँ रहने वाले जीवाणु और विषाणु भी कूद फाँद कर पशु पक्षियों के माध्यम से आबादी में पहुँच जाते हैं.जो हुआ सो हुआ, क्या अब हम उम्मीद करें क़ि कोरोना की विश्व व्यापी महामारी के बाद हमारी सरकारें और नीति निर्माता पुरानी ग़लतियाँ नहीं दोहराएँगे और प्रकृति का उतना ही दोहन करेंगे, जितना निहायत ज़रूरी है. प्रकृति ज़रूरत तो सबकी पूरी कर सकती है, लेकिन लोभ, लालच और मुनाफ़ा कमाने के लिए आर्थिक साम्राज्य के विस्तार की गुंजाइश नहीं है. हम नहीं सुधरेंगे तो कुदरत हमें सजा देकर अपना इलाज खुद करना भी जानती है.
कृपया सुनने के लिए लिंक क्लिक करें : https://www.youtube.com/watch?v=r8dUEJAe84c
इस आलेख को पढ़ते हुए एक अफसोस मन में चलता रहता है कि हमने इस बारे में नहीं सोचा। प्रेरक आलेख। इंसान की जिंदगी मेे यही सब रंग भरते हैं।