शहरों से पलायन क्या गाँवों के गौरवशाली अतीत को वापस ला पायेगा
परवेज़ आलम मंसूरी , सलेमपुर देवरिया
शहरों से गांव के तरफ पलायन क्या हमारे गाँवो के गौरवशाली अतीत को वापस ला पायेगा कैसे हमारे गाँवो को शहरी क्षणिक सपनों वाली मृगमरीचिका खा गईं है हमारे बाबा कहते हैं
*धनियां कहे पियाज से लेहसुन ले मोर बात*
*जब मेथी सोया पालकी तब पड़ा अकाल*
यही अकाल *कोरोना* है
कभी नेनुआ टाटी पे चढ़ के रसोई के दो महीने का इंतज़ाम कर देता था। कभी खपरैल की छत पे चढ़ी लौकी महीना भर निकाल देती थी। कभी *बैसाख में दाल और भतुआ से बनाई सूखी कोहडौड़ी सावन भादो की सब्जी का खर्चा निकाल देती थी।*
वो दिन थे जब सब्जी पे खर्चा पता तक नहीं चलता था। *देशी टमाटर और मूली जाड़े के सीजन में भौकाल के साथ आते थे लेकिन खिचड़ी आते आते उनकी इज्जत घर जमाई जैसी हो जाती थी।* तब जीडीपी का अंकगणितीय करिश्मा नहीं था। ये *सब्जियाँ सर्वसुलभ और हर रसोई का हिस्सा थीं।* लोहे की कढ़ाई में किसी के घर रसेदार सब्जी पके, तो गाँव के डीह बाबा तक गमक जाती थी।
*संझा को रेडियो पे चौपाल और आकाशवाणी के सुलझे हुए समाचारों से दिन रुखसत लेता था।* रातें बड़ी होती थीं। दुआर पे कोई पुरनिया आल्हा छेड़ देता था तो मानों कोई सिनेमा चल गया हो। किसान लोगो में कर्ज का फैशन नहीं था। फिर बच्चे बड़े होने लगे.. बच्चियाँ भी बड़ी होने लगी। *बच्चे सरकारी नौकरी पाते ही अंग्रेजी इत्र लगाने लगे*। बच्चियों के पापा सरकारी दामाद में नारायण का रूप देखने लगे। किसान क्रेडिट कार्ड…… ….डिमांड और ईगो का प्रसाद बन गया। इसी बीच मूँछ बेरोजगारी का सबब बनी।
*बीच में मूछमुंडे इंजीनियरों का दौर आया।* अब दीवाने किसान अपनी बेटियों के लिए खेत बेचने के लिए तैयार थे। बेटी गाँव से रुखसत हुई.. पापा का *कान पेरने वाला रेडियो* साजन की टाटा स्काई वाली एलईडी के सामने फीका पड़ चुका था। अब *आँगन में नेनुआ का बिया छीटकर मड़ई पे उसकी लताएँ चढ़ाने वाली बिटिया पिया के ढाई बीएचके की बालकनी के गमले में क्रोटॉन लगाने लगी*, और सब्जियाँ मंहँगी हो गईं।
बहुत पुरानी यादें ताज़ा हो गई। सच में उस समय सब्जी पर कुछ भी खर्च नहीं हो पाता था। जिसके पास नहीं होता उसका भी काम चल जाता था। दही मट्ठा का भरमार था। सबका काम चलता था। मटर, गन्ना, गुड सबके लिए इफरात रहता था।
सबसे बड़ी बात तो यह थी कि आपसी मनमुटाव रहते हुए भी अगाध प्रेम रहता था।
आज की मानसिकता दूर दूर तक नहीं दिखाई देती थी।
हाय रे ऊँची शिक्षा कहाँ तक ले आई।
*आज हर आदमी एक दूसरे को शंका की निगाह से देख रहा है।*
विचारणीय है कि क्या सचमुच हम विकसित हुए हैं या यह केवल एक छलावा भर है!!जो मिठास अपने गांवों में थी या अब भी है वो शहरों में कहाँ? मेरे घर के अंदर से उठते धुएँ को टकटकी लगाए पड़ोसियों का इंतजार रहता था कि धुँवा उठे तो आग के चिंगारी से अपने घर का भी चूल्हा जलाया जाएं एक दिन थे जब दूसरे के द्वारा लगायें आग से दूसरे का चूल्हा जलता था तो भोजन बनता था बहुत से घरों में
शहर में तो बातों बातों से ऐसी आग लग जाती है कि बना भोजन भी पेट में नही जा पाता है
जिनके घर सब्जी नही तो कटोरी लेकर चल देते थे पड़ोसियों के घरों में काकी सब्जी दी ह तनि हमारी घरे सूखे खाना बनल बा यह था गाँवो का मिठास.
हमारे यहाँ एक बुढ़िया थी जिन्हें हम मधु बो इया के नाम से बुलाते थे जब भी किसी के घर प्रसव पीड़ा होता लोग दौड़े चले जाते थे उन्हें बुलाने एक चलती फिरती नर्स हुआ करती थी हर मर्ज़ की दवा जानती थी पेट दर्द होता था तो तुरंत बोलती तनि सिरका पिलाओ, सेन्हा नमक भी कम नहीं था इसका घरों में घरजमाई की तरह ठाट हुआ करता था अजवाइन, मंगरैल, इसबगोल की भूसी पेट के लिए रामबाण दवा हुआ करता था
एक हुआ करते थे बच्चन बाबा किसी की गाय भैंस बच्चा जनती थी तुंरत पहुंचते थे उनके पास ओ भी देर किए बगैर दरवाजे पर हाज़िर गाय भैंस को साजना उनके लिए जैसे कर्तव्य बन जाता था
अब न तो वो मिठास है और न अपनत्व यह सब शहर के डायन नजरों के नजर लगने से हुआ क्या सहरों से गांव के तरफ़ पलायन हमारे पुराने दिनों को वापस ला पायेगा
उम्मीद तो मैं करता हूँ और अपने अल्लाह से दुआ भी करता हूँ कि ऐ अल्लाह मेरे बच्चों को भी वही माहौल बना जिसे हम सभी ने जी लिया है. जब मोहर्रम के ताजिये को हमारे रामस्वरूप चाचा दिन भर के दिहाड़ी करने के बाद आते और रात के 11बजे तक रस्सी से बांधते और जब दशहरा आता तो हम सभी घूम- घूम कर चंदा मांगते कि हमारे गांव भी दुर्गा माई रखी जाएंगी अब तो हर तरफ़ धर्म का अफ़ीम बांटा जा रहा है . क्या ऐसे ही भारत बनाने के लिए हमारे पूर्वजों ने कुरबानियां दी यह भी विचारणीय विषय है.