यूपी में विधानपरिषद का चुनाव : जीत की इस जश्न के पीछे का सच

इस चुनाव की खुशी के पीछे की सच्चाई चौंकाने वाली

यशोदा श्रीवास्तव

यूपी विधान परिषद के 36 सीटों के चुनाव परिणाम को लेकर बीजेपी की खुशी देखने लायक है। सोशल मीडिया पर भाजपा समर्थक यूपी के नक्शे में भगवा रंग देकर खुशी का इजहार कर रहे हैं। करना भी चाहिए,आखिर सपा और बसपा भी अपने शासन काल में ऐसे ही खुश हुई थी जब विधानपरिषद के इन सीटों पर उसके भी थोक भर सदस्य जीते थे।

दरअसल स्थानीय निकाय क्षेत्र के इस चुनाव की खुशी के पीछे की सच्चाई चौंकाने वाली होती है। चाहे वह भाजपा शासन का चुनाव हो या इसके पहले सपा या बसपा शासन काल का चुनाव हो। इसमें सत्ता रूढ़ दल अपने अपने हिसाब से खुशी हासिल करता है।
दूर न जाएं! 2004 से ही देखें तो स्थानीय निकाय क्षेत्र के इस 36 सीटों पर सत्ता रूढ़ दल का ही कब्जा होता आया है। मुलायम सिंह जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने इन सीटों पर येन-केन प्रकारेण जीतने की शुरुआत की थी। 100 सदस्यीय विधानपरिषद में थोक भाव की यह सीटें बहुमत के लिए जादुई गणित है। 2004 में ही सपा सरकार ने इस सीट की 36 सीटों में से 24 सीट जीत कर रिकॉर्ड बनाया था तो 2010 में मायावती ने 34 सीटें जीतकर मुलायम को पछाड़ दिया। मायावती की इस बड़ी जीत का रिकार्ड 2016 में अखिलेश भी नहीं तोड़ पाए और 2022 में योगी सरकार भी नहीं तोड़ सके। 2016 में अखिलेश 31 सीट जीत सके थे जबकि 2022 में योगी सरकार 33 सीट ही जीत पाई। कहने की जरूरत नहीं कि स्थानीय निकाय क्षेत्र से चुने जाने वाले इन सदस्यों का चुनाव शासन और सत्ता के प्रभाव का होता है,ठीक उसी तरह जैसे ब्लाक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष का।2021 में हुए पंचायत राज के इस चुनाव में साफ देखने को मिला कि पीएम और सीएम के जिलों में भी उतने जिलापंचायत सदस्य नहीं जीत सके थे कि वे अपने दम पर जिलापंचायत अध्यक्ष चुन सकें लेकिन 75 में से 68 जिलों में भाजपा के ही जिला पंचायत अध्यक्ष चुने गए।
विधानपरिषद के सदस्यों का यह चुनाव भी उसी पैट्रन पर हुआ,हम यह दावा नहीं करते लेकिन एटा में सपा के बड़े नेता और अखिलेश के बेहद करीबी उदयवीर सिंह के साथ मारपीट और नामांकन पत्र तक दाखिल न करने देने का वायरल हुए वीडियो का सच क्या था?

मतदान के पहले भाजपा के नौ निर्विरोध सदस्यों का चुनाव जाना भी तो कुछ कहता है। मतदान के दिन भी तमाम जगह वोटों पर अतिक्रमण की शिकायते आई जिसे नजर अंदाज किया गया। इस बात पर हैरत नहीं होनी चाहिए कि अखिलेश या मायावती ने इस चुनाव पर मुंह तक नहीं खोला। खोलते भी कैसे,आखिर यह राह उन्हीं की तो बनाई हुई है।
उप्र विधानपरिषद के सौ सदस्यों में कई क्षेत्रों से अलग-अलग सदस्य चुनकर आते हैं जिसमें सबसे आसानी से जीतने वाला चुनाव इसी 36 सीट का होता है क्योंकि ये सदस्य स्थानीय निकाय के प्रतिनिधियों द्वारा चुने जाते हैं। स्थानीय निकाय क्षेत्र से चुने जाने वाले विधान परिषद सदस्यों को ग्राम प्रधान, क्षेत्र पंचायत सदस्य,नगर पंचायत/नगर पालिकाओं के सभासद, चेयरमैन, क्षेत्रीय विधायक और सांसद वोट देते हैं।

इन सदस्यों का क्षेत्र अमूमन दो या तीन जिलों तक होता है और एक क्षेत्र में अधिकतम 6000 वोट होते हैं। यह चुनाव पूर्णरूप से शासन सत्ता का होता है। अर्थात जिसकी सरकार होती है,उसी के सदस्य चुने जाते हैं। दशकों से यूपी विधानपरिषद के लिए इस क्षेत्र के चुनाव का इतिहास फिलहाल यही है। इस चुनाव में धनबल का जमकर खेल होता है।

इस क्षेत्र के मतदाताओं पर गौर करें तो शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहां के ऐसे मतदाता इतने तादाद में हों कि उनके वोट से भाजपा उम्मीदवार जीत सके? ग्राम प्रधान हों या क्षेत्र पंचायत सदस्य, अधिकांशतः यादव और मुस्लिम ही हैं जो सपा के परंपरागत वोट हैं लेकिन सपा एक सीट भी नहीं जीत सकी। सपा की इस बड़ी हार को उसके वाई और एम गठजोड़ को टूटना भी बताया गया।
बीजेपी 33 सीट तो सीधे तौर पर जीती और जिन तीन सीटों पर निर्दल उम्मीदवार जीते हैं वहां भी जीत का जश्न भाजपा के लोग ही मनाए।

पीएम के संसदीय क्षेत्र वाराणसी से भाजपा की हार पर भी भाजपा खेमे में जीत जैसी जश्न देखी गई। यहां भाजपा उम्मीदवार तीसरे नंबर पर था और उसका सीधा आरोप है कि भाजपा के लोगों ने उसकी कोई मदद नहीं की।
माफिया नामधारी बृजेश सिंह की पत्नी अन्नपूर्णा सिंह निर्दल उम्मीदवार के रूप में शानदार जीत दर्ज की है। सबसे रोचक चुनाव आजमगढ़ का था जहां सपा विधायक रमाकांत यादव के पुत्र अरूण कांत यादव को भाजपा ने अपना उम्मीदवार बनाया था। अरूणकांत यादव अपने पिता की सीट से बीजेपी के विधायक थे।

इस बार पार्टी ने उन्हें विधानसभा का उम्मीदवार नहीं बनाया था लेकिन विधानपरिषद के इस चुनाव में उम्मीदवार बनाया। इसी जिले से भाजपा के विधान परिषद सदस्य यशवंत सिंह ने अपने पुत्र विक्रांत सिंह रेशू को निर्दल चुनाव लड़ा दिया। यशवंत सिंह को भाजपा ने पार्टी से निष्कासित कर दिया है।

सोचिए जहां सपा विधायक का बेटा बीजेपी उम्मीदवार हो वहां सपा उम्मीदवार की हालत क्या होगी और जब बीजेपी के बागी सदस्य का बेटा चुनाव मैदान में हो तो वहां बीजेपी उम्मीदवार का हाल क्या हुआ होगा,यह बताने की जरूरत शायद नहीं है। बहराहल बेहद रोचक और कांटे के मुकाबले में बीजेपी के बागी विधान परिषद सदस्य यशवंत सिंह अपने बेटे विक्रांत सिंह रीशू को चुनाव जिताने में कामयाब हो गए। अब विधान परिषद में पिता पुत्र एक साथ नजर आएंगे। बता दें कि यही यशवन्त सिंह हैं जिन्होंने योगी के पहली सरकार में उनके लिए विधान परिषद की अपनी सीट छोड़ दी थी जब वे किसी सदन के सदस्य नहीं थे। यहां भी विक्रांत सिंह की जीत का जश्न भाजपाइयों ने ही मनाया।
एक सीट प्रतापगढ़ की राजा भैया के करीबी अक्षय प्रताप सिंह ने जीती है। प्रतापगढ़ में भी जीत का जश्न भाजपा के लोगों ने ही मनाया। इस तरह तकनीकी रूप से भले ही तीन गैर भाजपा उम्मीदवार जीते हों लेकिन इन तीनों का जुड़ाव भाजपा से ही है।

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