Akhilesh-Jayant Pair in UP Election: 2022 चुनाव में कमाल कर पायेगी दो लड़कों की जोड़ी!

फिल्मी पटकथा सी है यूपी की ये सियासी कहानी

उत्तर प्रदेश के चुनाव में हर रोज कुछ न कुछ नया देखने और सुनने को मिलता रहता है. अब 2022 के चुनाव में अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की जोड़ी (Akhilesh-Jayant Pair) की तुलना बीजेपी ने अखिलेश यादव और राहुल गांधी की 2017 की जोड़ी से कर दी तो इसे अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग तरह से लिया. इस मुद्दे को उठाने के पीछे बीजेपी की रणनीति यही रही होगी कि जनता को 2017 में हुई अखिलेश की हार को याद दिलाया जाये. साथ ही ये भी याद दिलाया जाये कि तब की दो लड़कों की जोड़ी (Akhilesh-Rahul) जैसे ​कोई कमाल नहीं कर पायी थी, ठीक वैसे ही आज भी इन दो लड़कों की जोड़ी (Akhilesh-Jayant Pair) कुछ खास नहीं कर पायेगी. लेकिन इसमें कितनी सच्चाई है, जानने की कोशिश करते हैं इस चर्चा के साथ…

मीडिया स्वराज डेस्क

पश्चिमी यूपी के चुनावों में अब दस दिन की भी देरी नहीं है. ऐसे में अखिलेश यादव और जयंत चौधरी के गठबंधन (Akhilesh-Jayant Pair) की तुलना बीजेपी ने 2017 के राहुल गांधी और अखिलेश यादव के गठबंधन के साथ करना शुरू कर दिया गया है. बीजेपी कह रही है कि 2017 के दो लड़कों की जोड़ी ने चुनाव में जो कमाल किया था, इस बार भी इन दो लड़कों की जोड़ी ऐसा ही कुछ कमाल दिखायेगी. यानी भाजपा इशारों इशारों में जनता से ये कह रही है कि इस बार भी () दो लड़कों की जोड़ी यूपी चुनाव में कुछ खास नहीं कर पायेगी और जीत उनकी ही होगी.

द इंडियन पोस्ट के संपादक कुमार भवेश चंद्र कहते हैं कि 2017 के चुनाव में रालोद को कुल 8 सीटों का नुकसान हुआ था और उसके खाते में सिर्फ एक, छपरौली सीट ही आ पायी थी. इसके अलावा सहादाबाद, महंत और बलदेव सीट ही ऐसे थे, जहां रालोद दूसरे नंबर की पार्टी रही थी.

ऐसे में आज की चर्चा में इसी बारे में जानने की कोशिश की जायेगी कि आखिर 2017 के चुनाव में दो लड़कों की जोड़ी और 2022 के चुनाव में दो लड़कों की जोड़ी में क्या अंतर है और उसका कैसा असर इस बार के यूपी चुनावों पर देखने को मिलेगा?

2022 के चुनाव में अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की जोड़ी (Akhilesh-Jayant Pair) की तुलना बीजेपी ने अखिलेश यादव और राहुल गांधी की 2017 की जोड़ी से कर दी तो इसे अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग तरह से लिया. इस मुद्दे को उठाने के पीछे बीजेपी की रणनीति यही रही होगी कि जनता को 2017 में हुई अखिलेश की हार को याद दिलाया जाये.

2013, 2017 और 2019 के चुनाव से बिल्कुल अलग होगा 2022 का चुनाव

जुबली पोस्ट के संपादक डॉ. उत्कर्ष सिन्हा कहते हैं, 2019 से लेकर 2022 के बीच क्या हुआ, हमें सबसे पहले इस बात पर गौर करने की जरूरत है. तीन उपचुनाव हुये, तब जबकि सपा और रालोद साथ में थी और दो में इन्हें जीत मिली. मुजफ्फनगर दंगों के बाद से जाटों और किसानों का समीकरण जो टूटा तो वो 2013 से लेकर अब तक भी वापस पहले जैसा नहीं हो पा रहा था, जिससे रालोद लगातार चुनाव हारी. लेकिन अब ऐसा नहीं है.

राजनीति में कोई एक घटनाक्रम भी माहौल को पूरी तरह से बदलने में अहम भूमिका निभाती है. किसान आंदोलन के दौरान गाजीपुर बॉर्डर पर जिस दिन राकेश टिकैत फूट फूटकर रोये, उस दिन मरते हुये किसान आंदोलन में जान आ गयी और अगले दिन जयंत चौधरी उस मंच पर नजर आये. उसके बाद से जयंत लगातार किसान आंदोलन को लेकर सक्रिय हो गये और इससे उनकी पार्टी भी पुनर्जीवित हो गयी. धीरे धीरे जयंत चौधरी और अखिलेश यादव के बीच जब कैमिस्ट्री बनी और दोनों साथ नजर आने लगे तो एक बार फिर पश्चिमी यूपी में चौधरी चरण सिंह के दिनों की याद ताजा हो आयी.

पिछले कुछ सालों की राजनीति देखें तो जाट, गुर्जर और मुसलमानों को अलग अलग करके देखा जाने लगा, लेकिन किसान कमेरा समुदाय का एक होना राष्ट्रीय लोकदल को किसान आंदोलन की वजह से गिफ्ट की तरह मिल गया. अब जाट, गुर्जर, किसान, कमेरा, मुसलमान का फर्क नहीं बल्कि किसान आंदोलन के जरिये एक बार फिर से इनकी एकता का फायदा जयंत चौधरी को मिल रहा है.

किसान कमेरा समुदाय का एक होना राष्ट्रीय लोकदल को किसान आंदोलन की वजह से गिफ्ट की तरह मिल गया. अब जाट, गुर्जर, किसान, कमेरा, मुसलमान का फर्क नहीं बल्कि किसान आंदोलन के जरिये एक बार फिर से इनकी एकता का फायदा जयंत चौधरी को मिल रहा है.

किसानों के अंदर शुरू हुआ गिल्ट का भाव

किसान आंदोलन के दौरान किसानों के बीच एक बात और होने लगी. उनको लगने लगा कि चौधरी चरण सिंह, अजीत सिंह का परिवार, जो उनकी राजनीति करते थे, उनको छोड़कर हम किसानों ने अपना रहनुमा खो दिया है. हमने अपनी रहनुमाई करने वाला चेहरा खो दिया. ये बात लगातार किसानों की बीच शुरू हो गयी. उनके अंदर इसका अफसोस नजर आने लगा था, जिसका फायदा इस बार जयंत चौधरी को मिल रहा है.

इसके अलावा किसान, जाट, गुर्जर ये सभी जातियां चूंकि ओबीसी में आती हैं, और यूपी में इस बार जब चुनाव पिछड़ी जाति को लेकर भी हो रही है तो निश्चित तौर पर बड़े पैमाने पर इन जातियों के अलावा भी ओबीसी के लोग जयंत चौधरी के साथ जुड़ रहे हैं. अब अगर इस बार जयंत चौधरी को ज्यादा से ज्यादा सीटें मिलती हैं तो ये माना जा सकता है कि इससे उनकी पार्टी को नया जीवन मिल जायेगा और वो आगे भी बेहतर कर पायेगी. लेकिन अगर किसी भी कारण से ऐसा नहीं हो पाया तो नि:संदेह जयंत चौधरी के लिये इसके बाद खुद को खड़ा कर पाना नामुमकिन सा हो जायेगा, क्योंकि इससे पहले भी वे दो चुनाव लगातार हार चुके हैं.

2017 के चुनाव में अखिलेश यादव और राहुल गांधी की जोड़ी और 2022 के चुनाव में अखिलेश यादव और जयंत चौधरी की जोड़ी में बहुत बड़ा बुनियादी फर्क है. जहां तक अखिलेश यादव की बात है तो 2017 में माहौल उनके खिलाफ था, पार्टी टूटी हुई थी, उन्हें चुनाव लड़ने का अनुभव नहीं था. जैसे तैसे गठबंधन किये जा रहे थे. उस माहौल से आज का माहौल बिल्कुल जुदा है. आज अखिलेश परिपक्व नेता के तौर पर नजर आ रहे हैं. उनकी अपनी पार्टी एकजुट हो चुकी है. बहुत सोच समझकर वे हर कदम आगे कर रहे हैं. फिर, माहौल भी उनके फेवर में दिख रहा है.

अब माहौल बदला हुआ है

पश्चिमी यूपी की राजनीति को करीब से समझने वाले युवा विश्वराज चौधरी उत्कर्ष जी की बात को आगे बढ़ाते हुये कहते हैं कि 2011 के मुजफ्फरनगर दंगे के बाद जाट और मुस्लिम के बीच की लड़ाई का फायदा उठाकर वोट बीजेपी ने लिये. लेकिन अब माहौल बदला हुआ है.

किसान आंदोलन के दौरान जयंत चौधरी ने तकरीबन 40 से 45 जनसभायें कीं, जिसे आज भी किसानों ने याद रखा हुआ है. अब जब वो वोट डालने जायेगा तो उसे ध्यान में रखकर अपना वोट डालेगा.

जयंत चौधरी ने काफी काम किया 

जयंत चौधरी ने इस बीच कई स्लोगन पर काम किया. उन्होंने महिलाओं का अलग संगठन बनाया और उसे मजबूत करने के लिये काम भी किया. हर बूथ जीतेगा यूथ, नाम से उन्होंने युवाओं के लिये भी संगठन तैयार किया और युवाओं के ​बीच काम किया. इसके बाद उन्होंने भाईचारा जिंदाबाद नारे के अंतर्गत जाट, मुस्लिम, एससी, एसटी, कमेरा जैसे समुदायों को इकट्ठा किया, जो मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से अलग अलग हो चुके थे. उनके बीच जो दरार आ गयी थी, उसे पाटने का काम किया. इसके अलावा उन्होंने हाथरस की घटना को लेकर विजय रथ यात्रा भी निकाली, जिसका नेतृत्व प्रशांत कनौजिया ने किया था, जो कि रालोद के कनौजिया एससी एसटी विंग के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. ये विजय रथ यात्रा पश्चिम यूपी से आगरा तक निकाली गयी थी.

पूरी चर्चा सुनने के लिये क्लिक करें…

जयंत चौधरी खुद भी मानते हैं कि कोई भी पार्टी तब तक जीत नहीं सकती, जब तक कि वह जमीनी स्तर पर खुद को मजबूत न बनाये. उसका संगठन मजबूत न हो. 29 जनवरी की रात जो घटना हुई, उसने इसे और भी ज्यादा मजबूत बनाने का काम किया.

आंदोलन होगा तो टिकैत के साथ और वोट देना होगा तो रालोद के साथ

राकेश टिकैत खुद जाट बिरादरी से आते हैं. चौधरी चरण सिंह भी जाट बिरादरी से हैं. महेंद्र सिंह टिकैत के समय से ही जाट, कमेरा और किसान बिरादरी इस बात को लेकर साफ है कि आंदोलन होगा तो हम महेंद्र सिंह टिकैत के साथ हैं और जब वोट देना होगा तो हम चौधरी चरण सिंह यानी रालोद के साथ होंगे. इसका उदाहरण ये भी है कि राकेश टिकैत एक बार विधायक और एक बार सांसद का चुनाव लड़ चुके हैं, लेकिन दोनों ही बार वे हार गये, इसके बावजूद कि किसानों का एक बड़ा वर्ग आंदोलन के दौरान उनके साथ होता है.

किसान कमेरा वर्ग का ध्रुवीकरण पूरे पश्चिमी यूपी में हो चुका

2013 में वोट हिंदू मुस्लिम के नाम पर शिफ्ट हो गया था लेकिन अब किसान और कमेरा वर्ग के नाम पर जाट और किसानों का पूरा वोट रालोद की ओर शिफ्ट हो जायेगा. किसान कमेरा वर्ग का ध्रुवीकरण पूरे पश्चिमी यूपी में हो चुका है. इसका फायदा निश्चित तौर पर जयंत चौधरी की पार्टी को मिलेगा और सपा और रालोद के गठबंधन को भी. ऐसे में 2017 के चुनाव के दौरान राहुल गांधी और अखिलेश की जोड़ी के साथ आज के जयंत चौधरी और अखिलेश यादव की जोड़ी की तुलना करना सही नहीं कहा जा सकता. तब और अब में परिस्थितियां भी बहुत ज्यादा बदली हुई हैं और माहौल भी. तो निश्चित तौर पर यह गठबंधन बीजेपी के लिये मुश्किलें खड़ी करने वाला होगा.

इसे भी पढ़ें:

UPElection2022: अखिलेश ने दिया योगी आदित्यनाथ की ‘गरमी’ का जवाब

Leave a Reply

Your email address will not be published.

8 − 1 =

Related Articles

Back to top button