गांधी का एक अनोखा दीवाना!

प्रेम प्रकाश

दिन के बारह बजे के आसपास का समय है। कचहरी परिसर वादियों और फरियादियों की भीड़ से भरा हुआ है। एसडीएम सदर की अदालत में १५१/११६ में निरुद्ध कुछ मुल्जिमों की पेशी है। ये लोग जमानत के लिए आये हैं।

मुल्जिमों और जमानतदारों की आंखें चुपचाप फाइलों में नज़रें गड़ाए एसडीएम साहब की तरफ एकटक देख रही है कि तभी अचानक फाइल पर से नजरें हटाते हुए एसडीएम साहब मुल्जिमों की ओर एक अजीब सा सवाल उछालते हैं—‘तुममें से गांधी जी की आत्मकथा कितने लोगों ने पढ़ी है?’

सुनी तो सबने ये बात, पर समझ में किसी के नहीं आयी। गांधी जी की आत्मकथा! ये क्या होता है? कानून की कुर्सी पर बैठे एसडीएम साहब व्यवस्था दे रहे हैं- ‘जिसको जिसको जमानत चाहिए, जाओ गांधी जी की आत्मकथा पढ़ के आओ, तब मिलेगी जमानत।’ ये कहाँ मिलेगी साहब?

एसडीएम साहब मुस्कुराते हुए अपनी अलमारी में रखी किताबों की ढेरी में से कुछ किताबें निकालकर सामने खड़े लड़कों को थमाते हैं, फिर हिदायत देते हैं कि एक हफ्ते में पढ़ के आओ सबलोग ये किताब। इसमें गांधी जी की अपनी कहानी लिखी है। सत्य और अहिंसा के प्रयोग लिखे हैं। पढ़ लोगे तो झगड़ा करना भूल जाओगे, जाओ।

ये हैं वाराणसी सदर में तैनात एसडीएम मदन मोहन वर्मा. गांधी का एक अनोखा दीवाना! एड़ी से चोटी तक गांधी के रंग में रंगे पगे और अबतक के जीवन में जितना गांधी को पा सके हैं, उतना उन्हें अपने आचरण में लिपटाये चिपटाये। मनसा, वाचा कर्मणा तीनों विधियों से; आपादमस्तक गाँधीमय; बोल से, वचन से, काम से, चिंतन से, पठन से, पाठन से, लेखन और अध्ययन से भी। एसडीएम वर्मा को गांधी की लौ लग गयी है। ज्यादा दिन नही हुए, उनमें यह परिवर्तन बीते पांच, छः सालों में ही आया है।

अच्छी भली तहसीलदार की नौकरी से प्रमोशन लेकर एसडीएम हुए। हमेशा वरिष्ठों के प्रियपात्र रहे। पद, पैसे और प्रभाव का प्रभामण्डल कुछ कम तो नही होता। लेकिन जीवन की आपाधापी के किन्हीं भावनात्मक क्षणों में उनका यह प्रभामण्डल गांधी के आभामंडल के सामने पड़कर अचानक धुंधला-सा पड़ गया। यह चेतना की टकराहट थी।

गांधी के सत्य के प्रयोगों से जैसे जैसे गुजरते गए, बानक बदलता गया। अफसरी के सारे ठाट फकीराना होते गए। उन्होंने अपनी कुर्सी पर बैठकर जिस समाज के दर्शन किये, उसमें उन्हें गांधी का चेहरा महसूस हुआ। उन्होंने पाया कि असत्य और हिंसा के झंझावातों से जूझता हुआ समाज अपनी बुनियादी आस्थाओं में आज भी गांधी के मूल्यों पर खड़ा है। कितना भी विभ्रम में जी रहा हो, पर समाज का वास्तविक जेहन अभी गांधी से बहुत दूर नहीं गया है।

गांधी की विभूति ने रास्ता दिखाया। उनके हाथ में अधिकार तो ढेर सारे थे, पर किताब एक ही थी; सत्य के प्रयोग। गांधी की आत्मकथा। दिल की लगी यहीं से शुरू हुई। जो किताब उन अभियुक्तों को देकर एसडीएम वर्मा ने इंसान की अच्छाई पर अपनी उम्मीद कायम रखी थी, उन्होंने तय किया कि जहां तक सम्भव हो सके, उस किताब से किसी को महरूम नहीं रहने देना है। बस एक सिलसिला- सा चल निकला। एसडीएम साहब ने किसी और जरिये से नहीं, अपने वेतन के पैसों से गांधी की आत्मकथा खरीदनी और लोगों में बांटनी शुरू कर दी।

उनके कार्यालय की अलमारी, उनके घर की बुकशेल्फ और उनकी गाड़ी की पिछली सीटें इस किताब के बंडलों से भरी रहती हैं। क्या पता, कब, कहाँ रास्ते से भटका हुआ कोई नौजवान मिल जाये। बापू की ये किताब पढ़ी है? लो पढ़ो।

इसी किताब की तलाश ने एक दिन अचानक उन्हें सर्व सेवा संघ प्रकाशन के कार्यालय में ला खड़ा किया। और जैसे कि उन्हें कोई मुकाम मिल गया हो। गांधी विचार के प्रसार के निमित्त उन्हें एक सहज केंद्र मिल गया। उनके हाथ गांधी का खजाना लग गया। सत्य के प्रयोग से आगे गांधी को जानने के लिए किताबें और भी हैं। दक्षिण अफ़्रीका  का इतिहास, हिन्द स्वराज, पूर्णाहुति, सर्वोदय दर्शन, रोमा रोलां, लुई फ़िशर ..कितनी सारी किताबें और कितने सारे लेखक! उनके अध्ययन के लिए बहुत कुछ अब सामने था।

वे पढ़ने लगे, पढ़ाने लगे और अपने मित्रों को साथ लेकर आने लगे। रोशनी का एक झरोखा मिला था। एसडीएम साहब ने कहा कि लोगों में बांटने के लिए सत्य के प्रयोग सबसे ज्यादा उपयुक्त किताब है। लोगों के बीच उनके हाथों बांटी गई आत्मकथा की प्रतियां अब लाखों की संख्या पार कर रही है।

अंबेडकर नगर, उत्तर प्रदेश में पैदा हुए मदनमोहन वर्मा शुरू से ही अध्ययनशील और मेधावी विद्यार्थी रहे हैं। जीवन के इस पड़ाव पर आकर जब उन्होंने देखा कि देश के सामाजिक वातावरण में राजनीतिक प्रभाव ने नफरतों के बीज बोए हैं और आने वाली पीढियां इसके कुप्रभाव से ग्रस्त हो रही हैं, तो उन्होंने पाया कि उम्मीद की रोशनी अगर कहीं ज़िंदा है, तो उस पुंज का नाम महात्मा गांधी है।

वे कहते हैं कि इंटरनेट और सोशल मीडिया के जमाने में गांधी के बारे में सही जानकारियां उपलब्ध ही नहीं हैं। इंटरनेट का कोई भी सर्च इंजन सर्च कीजिये, तो गांधी के बारे में असत्य, अप्रामाणिक और गलत तथा दुर्भावना से भरी हुई फेक सूचनाएं, चित्रों के फोटोशॉप और डॉक्टर्ड वीडियोज़ भरे पड़े हैं, जबकि सही तथ्यों का एकदम अभाव है।

हमें यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए। सही किताबें, सही सूचनाएं और सही जानकारियां लोगों के बीच ले आयी जानी चाहिए, ताकि भ्रमित करने वाली सूचनाओं के महाजाल में भटकने से पीढ़ियों को बचाया जा सके। जब सही बात हम बताएंगे ही नहीं तो वे गलत ही जानेंगे, क्योंकि गलत करने वाले हमसे अधिक सक्रिय हैं। हर मंच पर, हर प्लेटफॉर्म पर, हर माध्यम पर उनकी पकड़ मजबूत है। दुर्जनों की दुर्जनता का मुकाबला सज्जनता के समर्थ प्रतिकार से ही सम्भव है, ओढ़ी हुई चुप्पियों से नहीं।

अपनी इस सोची हुई दिशा में वे पूरे मनोयोग से लगे भी हुए हैं। वे केवल गांधी की आत्मकथा ही नहीं बांट रहे, जहां भी कार्यरत होते हैं, अपने कार्यक्षेत्र में गांधी की एक प्रतिमा भी वे जरूर स्थापित करते और करवाते हैं। एसडीएम साहब कहते हैं कि गांधी का होना ही नहीं, अब गली गली में गांधी का दिखना भी जरूरी है। ताकि जो उन्हें पढ़ना नहीं चाहते, वे उन्हें देखने से न बच सकें।

यह कहकर वे अपना विश्वास जाहिर करते हैं कि कोई कितना भी बुरा आदमी हो, एक बार गांधी की प्रतिमा देखेगा, तो उसके अंदर की बुराई एक बार को जरूर सहमेगी। गांधी प्रतिमाओं की स्थापना में होने वाले खर्च के लिए वे निरतंर अभियानरत रहते हैं। एक बड़ा हिस्सा वे अपनी जेब से तो खर्च करते ही हैं, समाज के लगभग हर हिस्से को वे इसके लिए प्रेरित भी करते हैं। वे पूछते हैं, जैसे आश्वस्त होना चाहते हों, यही तो है गांधी का तरीका? कि समाज के काम में समाज खुद भागीदारी भी करे।

गांधी की पहली प्रतिमा मदनमोहन वर्मा ने ऊंचाहार, जनपद रायबरेली में अपनी पोस्टिंग के दौरान २०१४ में लगवाई। दूसरी प्रतिमा की स्थापना सिद्धार्थनगर में २०१७ में करवायी। तीसरी प्रतिमा की स्थापना के लिए उन्होंने अपना घर चुना। अपने पैतृक गांव में अपने घर के सामने खाली सहन में २०१८ में जब इस प्रतिमा की स्थापना का काम शुरू किया तो इस प्रश्न पर भाइयों के बीच ही मतभेद उभर आये, पर वे अपने जुनून के पक्के हैं। बहुतेरे वाद विवाद और दिक्कतों परेशानियों के बावजूद अंततः प्रतिमा की स्थापना वहीं की, जहां तय किया था।

२ अक्टूबर २०१८ को चौथी गांधी प्रतिमा कचहरी बार एसोसिएशन, वाराणसी प्रांगण में करवाई। जनपद जौनपुर में अपनी पोस्टिंग के दौरान जब वहां प्रतिमा लगवाने की कोशिशें शुरू कीं, तो प्रशासनिक स्तर पर भी भारी विरोध का सामना करना पड़ा। वह काम एक बार तो रुक ही गया, लेकिन बाद में जब उनका स्थानांतरण वाराणसी हो गया तो स्थानीय नगर पंचायत ने गांधी प्रतिमा की स्थापना का छूटा हुआ काम पूरा कराया। इसी तरह का एक कड़वा अनुभव जौनपुर के बदलापुर क्षेत्र का भी है, जहाँ हुए भारी विरोध के चलते गांधी की लगी हुई प्रतिमा अंततः उखाड़नी पड़ी।

वाराणसी के राजघाट स्थित सर्व सेवा संघ परिसर में गांधी जी की प्रतिमा
वाराणसी के राजघाट स्थित सर्व सेवा संघ परिसर में गांधी जी की प्रतिमा नौ अगस्त को स्थापित की गयी.

सर्व सेवा संघ प्रकाशन कार्यालय के सामने गांधी की इस प्रतिमा की स्थापना भी एसडीएम मदन मोहन वर्मा की प्रेरणा और उनके सक्रिय सहभाग से ही हो रही है। चबूतरे और प्रतिमा के निर्माण से लेकर उसकी डिजाइन, ढांचा और सजावट तक के पूरे अभियान में उन्होंने हर तबके से सहयोग मांगा और उनकी निरन्तर सक्रियता के परिणामस्वरूप अब यह प्रतिमा भी स्थापित हो चुकी है। अगली प्रतिमा की स्थापना कहाँ कराई जाए, मदनमोहन वर्मा आजकल इस विषय पर सोचने लगे हैं।

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