पोलैंड के क्राकोव शहर में चार दशक पहले त्रिलोक दीप को कौन मिल गया था!
वरिष्ठ पत्रकार त्रिलोक दीप चार दशक पहले यूरोप के दौरे पर थे, वहाँ पोलैंड के काक्रोव शहर में अपने देशवासियों से मिलकर उन्हें ऐसा लग रहा था मानों एक दूसरे को दसियों बरसों से जानते हों, अब अचानक मिल गये हों और एक दूसरे से बिछुड़ने का मन न कर रहा हो।पढ़िए त्रिलोक दीप का पूरा यात्रा वृत्तांत ….
आज फिर से अपनी एक पुरानी विदेश यात्रा के अनुभव शेयर करने का मन हो रहा है । बात सन् 1977 की है । मेरा मूल मेज़बान था तत्कालीन सोवियत संघ का सूचना विभाग। उसके बाद तो और भी मेज़बान जुड़ते गये । उस दौर में मैंने आठ कुल देशों की यात्रा की, कुछ विमान से तो कुछ ट्रेन से।
यूरोपीय रेल अपनी दक्षता के लिए प्रसिध्द है । पहले मैं वियेना से हंगरी की राजधानी बुदापेश्त गया था । वह दिन की यात्रा थी । बुदापेश्त से पोलैंड की राजधानी वारसा की यात्रा रात की थी । रास्ते में चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग पड़ती है लेकिन वहां सिवा पासपोर्ट चेक कर ठप्पा लगाने के कुछ नहीं होता । बड़ी तमीज़ और तहजीब से यात्री को उठाया जाता है । पासपोर्ट देखने के बाद निरीक्षक अपना सिर झुका कर यात्री का शुक्रिया अदा करता है ।
अगले दिन सुबह पोलैंड की राजधानी वारसा पहुंच गया । वारसा को वहां के लोग वरसावा कहते हैं और पोलैंड को पोल्स्का । मैं इन दोनों नामों से इसलिए परिचित था कि ‘दिनमान’का संपादक रहते हुए श्री सच्चिदानंद , वात्स्यायन ने हमें मूल नामों की जानकारी दे दी थी और ‘दिनमान’ में उसी तरह से वे नाम लिखे जाते थे ।
वारसा स्टेशन पर जब अगवानी के लिए कोई नहीं आया दीखा तो एक छात्र मेरी मदद के लिए आ गया । मेरे पास जो संपर्क नंबर थे उनपर शायद इसलिए बात नहीं हो पा रही थी कि मैं सुबह जल्दी वारसा पहुंच गया था। उस छात्र ने बड़ी कृपापूर्वक मुझे भारतीय राजदूत श्री भूटानी के निवास पर पहुंचाने के बाद सम्बंधित व्यक्तियों से संपर्क साध मेरी मौजूदगी बाबत बता कर ही मुझ से विदाई ली । कई देशों में मुझे ऐसे अनजान शुभचिंतक मिलते रहे हैं ।
कुछ ही समय बाद मोरोज़ नामक मेरा मार्गदर्शक पहुंच गया। उसने खेद व्यक्त करते हुए बताया कि मेरे मेज़बान इंटरप्रेस वालों को मेरा अगले दिन आने का इंतज़ार था इसलिए यह चूक हो गयी । स्वीडन में दो बरस तक रहा मोरोज़ राजनयिक शिष्टाचार में बहुत निपुण था । उसने यह कहकर कि पहले आपको पोलैंड की पुरानी राजधानी क्राकोव जाना है,एक दिन वारसा के ग्रैंड होटल में रहने का प्रबंध कर दिया ।
क्राकोव एक ऐसा स्थान है जो द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रकोप से बचा रहा ।वारसा आने वाला सैलानी आम तौर पर क्राकोव आना कम ही भूलता है ।यहां के निवासी सरल और सहज हैं । होटल हॉलिडे- इन में मेरे रहने का प्रबंध था । एअरपोर्ट और होटल के बीच के रास्ते को देख कर लगता था जैसे मैं अपने देश में ही भ्रमण कर रहा होऊँ -सड़क के आसपास छोटे छोटे मकान और उन पर खपरैल की छतें आंखों को सुकून प्रदान करती थीं ।
क्राकोव यूरोप की सांस्कृतिक राजधानी: पोलैंड.
क्राकोव एक ऐतिहासिक नगर है । यहां पर सन् 1374 तक की इमारतें हैं । ऐसी इमारतें बची तो अब कम ही है पर जो बची हैं उन्हें सहेज कर सुरक्षित रखा गया है । ऐसी ही इमारतों में एक वावेन महल है जहां कई तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम और समारोह होते रहते हैं ।
इस महल में कुछ पुराने राजाओं की स्मृतियों को सहेज कर रखा गया है। सबसे बड़े सेनेटर हाल में कभी कभी संगीत समारोह भी होते हैं जिन में कुछ चुनिंदा और विशिष्ट लोगों को ही निमंत्रित किया जाता है। इस महल की दीवारों की नक्काशी लाजवाब है और उसकी छतों पर सोने और चांदी वाली पॉलिश आज भी गजब की है । यहां महल के द्वारों पर भी राजसी ठाठबाठ और सामंतवाद परिलक्षित होता है । एक कत्लगाह कक्ष भी था जहां राजा अपने दुश्मनों के सिर काट कर लटका दिया करता था । इस महल में फर्श कई तरह के थे कुछ मोज़ायक और कुछ लकड़ी के जो आज भी चमचमाते नज़र आते हैं। भीतर जाने के लिए जूते बाहर उतार कर विशेष स्लीपर पहनने होते हैं ताकि फ़र्शों की चमक यथावत बनी रहे, क्षतिग्रस्त न हो ।
क्राकोव पोल यहूदियों का महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र है जहांयुवा यहूदी बहुत सक्रिय हैं । जिन दिनों मैं पोलैंड गया था वहां की वामपंथी सरकार कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित बताई गई थी लेकिन जिस तरह से क्राकोव में मैंने यहूदी आध्यात्मिक केंद्र सक्रिय पाये उससे लगा कि यहां खासी धार्मिक स्वतंत्रता है । क्राकोव के आर्कबिशप को ही पोप जॉन पाल द्वितीय नियुक्त किया गया था ।यहां पर नये और पुराने विश्वविद्यालय सांस्कृतिक अध्ययन का केंद्र हैं जहां विदेशी बुद्धिजीवियों की विचारधाराओं को बहुत महत्व दिया जाता है । आज क्राकोव को यूरोप के न केवल सबसे सुंदर नगरों में माना जाता है बल्कि उसे संस्कृति की राजधानी भी कहा जाता है ।
मुझे बताया गया कि आदम मिस्केवीच और युलिशीच स्तोवात्स्की जैसे कवियों का दर्जा उमर खैय्याम के समकक्ष है । बेशक जीते जी दोनों में मुलाकात नहीं हुई थी लेकिन दोनों ही महान कवियों की कब्रें साथ साथ हैं । इन कवियों का इतना आदर-सम्मान है कि इन्हें श्रद्धांजलि देने वाले लोग नंगे सिर झुक कर उनकी कब्रों के सामने से गुज़रते हैं । जब मैं उन महान कवियों को अपनी श्रद्धांजलि देने के लिए पहुंचा तो मुझे अपनी पगड़ी उतार कर जाने के लिए कहा गया । जब मैंने बताया कि पगड़ी हमारा धार्मिक चिन्ह है और उसे हम किसी हालत में उतार नहीं सकते तो सुरक्षाकर्मियों ने मुझे छूट दे दी ।
ऐसा ही मेरे साथ मास्को में भी हुआ था जब मैं क्रेमलिन में लेनिन को श्रद्धांजलि देने के लिए गया था। वहां मेरे मार्गदर्शक ने स्थिति को संभाल लिया था । यह 45 बरस पहले की घटना है । अब तो अन्य पूर्वी देशों की तरह वहां की शासन प्रणाली भी बदल गयी है । संभव है पोलैंड में भी दूसरे यूरोपीय देशों की तरह खुलापन आ गया हो ।
कई मायनों में पुरानी राजधानी क्राकोव का महत्व वर्तमान राजधानी वारसा से अधिक है । एक तो क्राकोव ऐतिहासिक नगर है और दूसरे जितनी अकदेमियां यहां पर हैं, पोलैंड के शायद ही किसी शहर में हों । अब तो आधुनिकता का भी यहां प्रवेश हो चुका है । कालोनोवा में छात्रों का बेहतरीन कॉफ़ी हाउस है । वहां का वातावरण बहुत ही सुकून भरा है ।
कॉफ़ी हाउस के भीतर कुछ बेहतरीन पत्थरों की दीवार के साथ सटे हैं कई तरह के बेंच और कुर्सियां भी ।कहने को तो यह छात्रों का कॉफ़ी हाउस है परंतु यहां पर युवाओं और बुजुर्ग बुद्धिजीवियों को भी देखा जा सकता है जो किसी लिहाज़ से छात्र नहीं लगते थे । कुछ लोग इस आशियाने को दोस्तों-यारों का ठौर-ठिकाना और मिलनस्थ्ल भी मानते हैं ।यहां कॉफ़ी के साथ साथ वाइन तथा कई तरह की कॉकटेल भी उपलब्ध है, वोदका देखने को नहीं मिला ।
क्राकोव शहर में एक प्रेस क्लब भी है
क्राकोव शहर में एक प्रेस क्लब भी है । जिस इमारत में वह स्थित है वह 17वीं या 18वीं सदी की बताई जाती है ।छतों की कुछ शहतीरों को जोड़कर इसे आधुनिक रूप देने का प्रयास किया भी लगता है । बाबजूद इसके प्राचीन कला के कुछ बेशकीमती नमूनों को सहेज और संभाल कर भी रखा गया है जिनमें इटली के अलावा प्राच्य विद्या के नमूने भी शामिल हैं ।प्रेस क्लब में दुनिया भर के अखबार उपलब्ध हैं । विदेशी भाषाओं में मुख्यतयाइतालवी, फ्रांसीसी, जर्मन, अंग्रेज़ी, रूसी, हंगेरियन आदि हैं ।
दिलचस्प बात यह है कि इन विदेशी भाषाओं को सिखाने की भी क्लब में व्यवस्था है । प्रेस क्लब में दो कमरे आरक्षित किये गये हैं जिन्हें ‘शांतियुक्त ‘कमरों का नाम दिया गया है । इन कमरों में बैठकर आप पुराने समाचारपत्रों और पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन कर नोटस आदि भी ले सकते हैं । यहां पर ऊंचा बोलने की किसी को अनुमति नहीं । इस क्लब में खाने-पीने के साथ समय समय पर विभिन्न विषयों पर सेमिनार और प्रदर्शनियां आयोजित करने की भी सुविधा है ।
शिवसेना के अख़बार “ सामना “ में भाजपा का आलेख(Opens in a new browser tab)
क्राकोव विश्वविद्यालय
क्राकोव विश्वविद्यालय में आप संस्कृत भी पढ़ सकते हैं । उस समय मुझे 67 वर्षीय प्रो. तोदेयुश पोबोजनेएस संस्कृत के विद्वान मिले थे । उन्होंने बताया कि 1938 से यहां संस्कृत पढ़ाई जा रही है । विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद संस्कृत की कक्षाएँ यहां फिर से शुरू हो गयी थीं और सन् 1966 से हिन्दी भी पढ़ाई जाने लगी । विश्वविद्यालय के छात्रों के अतिरिक्त भारत-पोल और भारत-रूस मैत्री संघ के लोग भी अध्ययन के लिए आने लगे ।
छात्रों को संबोधित करने के लिए भारतीय विद्वान भी आया करते हैं । उन्हें शिकायत थी कि पोलैंड में यथोचित पुस्तकें उपलब्ध नहीं हैं या तो लंदन से मंगानी पड़ती हैं या मास्को से जो अंग्रेज़ी या रूसी भाषा में होती हैं ।पोल भाषा में कोई पुस्तक नहीं है ।प्रो. नगेन्द्र की भारतीय साहित्य पर पुस्तक रूसी में है और कामता प्रसाद गुरू की हिंदी व्याकरण भी रूसी में । हिंदी पढ़ने वाले लोग तो यहां हैं लेकिन उन्हें पढ़ाने वाला कोई ढंग का टीचर नहीं ।
किसी भी भाषा की उन्नति तभी संभव है जब उस भाषा का व्याकरण व इतिहास पढ़ाने वाला योग्य और कुशल अध्यापक हो ।प्रो. तादेयुश दो बार भारत हो आये हैं-1965-66 में कुछ महीनों के लिए और 1972 में एक संस्कृत सम्मेलन में भाग लेने के लिए कुछ दिनों के लिये ।
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वह यह मानते है कि जब तक भारत में टिक कर हिंदी और संस्कृत का अध्ययन न हो तब तक व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पायेगी ।अक्सर यह सवाल भी पूछा जाता कि पोलैंड में संस्कृत की क्या और कितनी उपयोगिता है बेशक़ यह शास्त्रीय भाषा है । इस तरह का संदेह करने वालों को जर्मनी की मिसाल दी जाती है। जिस तरह से संस्कृत के अध्ययन से उसने होम्योपैथिक दवाओं का अनुसंधान और विकास किया है उससे दुनिया भर में उसने बहुत इज़्ज़त कमाई है । लगता है पोलैंड का नेतृत्व भी इस वास्तविकता से परिचित है जिस के कारण आज दोनों देशों के बीच भाषाशास्त्र, औषधि और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में विद्वानों का आदान प्रदान हो रहा है ।
क्राकोव में कुछ लोगों ने शिकायती लहजे में कहा था कि भारत और पोलैंड के बीच विद्वानों का जब आदान प्रदान होता है तो वारसा के लोग बाज़ी मार ले जाते हैं जब कि अकादेमी के लिहाज़ से क्राकोव का अधिक महत्व है । कुछ भारतीय छात्र बनाम विद्वान क्राकोव विश्वविद्यालय से जुड़े हुए थे उनका ज़िक्र प्रो. तादेयुश ने भी मुझ से किया था । उनमें से तीन लोग जो मुझ से मिले थे वे थे इन्दर कृष्ण भांबरी, शरतचंद्र पाणिग्रही और अशोक ।
अशोक बिलासपुर का रहने वाला था और इन्दर कुमार भांबरी पंजाब के खन्ना शहर का जबकि शरत कुमार पाणिग्रही खड़कपुर का । मैं उन तीनों लोगों से उन्हीं के निवास पर मिला और हमारी यह मुलाकात यादगार बन गयी ।
उन्होंने मुझे बताया कि प्रो. तादेयुश से आपके बारे में जानकारी मिलने के बाद हम तीन बार आपके होटल का चक्कर लगा आये थे । उन्होंने बड़े विस्तार से यह जानकारी देते हुए कहा कि क्राकोव को कई क्षेत्रों में आज भी पोलैंड की राजधानी माना जाता है जैसे बौद्धिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक, प्रौद्योगिक क्षेत्रों में ।वे लोग क्राकोव में औषध विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पढ़ाई कर रहे थे जो उनके अनुसार बहुत उन्नत अवस्था में है ।
क्राकोव में अपने इन देशवासियों से मिलकर मुझे ऐसा लग रहा था मानों हम एक दूसरे को दसियों बरसों से जानते हों, अब अचानक मिल गये हों और एक दूसरे से बिछुड़ने का मन न कर रहा हो।
इन्दर तो मेरे साथ ही बना रहा ।अपने देश और पंजाब के बारे में तमाम तरह की बातें करता रहा और मुझे क्राकोव हवाई अड्डे पर छोड़ने के बाद ही विदा हुआ । मुझे भी लगा कि क्राकोव में मैं कुछ अपने करीबी लोगों को छोड़ आया हूं । निस्संदेह विदेशी धरती पर अपने देशवासियों से मिल कर बहुत सुकून मिलता है ।
त्रिलोक दीप, वरिष्ठ पत्रकार