भारत के गाँव, ग़रीब किसान और माटी की करूण कहानी
अरविन्द त्रिपाठी
स्वतंत्र टिप्पणीकार
हम कौन हैं, कहाँ हैं, किस के लिए हैं और जाना कहाँ है, यह जानने का प्रयत्न करें। साथ ही, यह भी कि राजनीति और सरकार मूलतः समाज की सेवा और रचना के लिए है अथवा राजनीति में लगे सभी लोगों की भोग-वृत्ति के लिए हैं। हम में से सभी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सभी के बारे में जानते हैं, परन्तु अर्थ, पद या झूठी प्रतिष्ठा के लिए विवश होकर इस चक्रव्यूह में फँसे हुए हैं। यही विवशता कभी महाभारत का कारण बनी थी। आज जाति और सम्प्रदाय से भी ज़्यादा विनाशकारी रूप राजनैतिक जातीयता और साम्प्रदायिकता ने ग्रहण कर लिया है।
यद्यपि अंग्रेज़ों को हमने अपना शासक मान लिया था, परन्तु उनके साथ बैठकर खान-पान और चरित्र को स्वीकार नहीं किया। भारत की जाति-प्रथा के कारण अंत्यजों में भंगी और डोम को सबसे निम्न श्रेणी में रखकर गाँव के बाहर रखा गया। सार्वजनिक तालाब और कुएँ से पानी लेने में भी रोक लगाकर रखा। उन्हें मंदिर में जाने से भी वंचित किया गया। फिर भी, धन्य हैं वे लोग जिन्होंने इस अपमान और प्रताड़ना को सहते हुए भी ख़ुद को हिंदू कहना स्वीकार किया और मुग़लों और अंग्रेज़ों के सामाजिक समता के प्रलोभन के बावजूद धर्म-परिवर्तन को नहीं स्वीकारा। हिंदू समाज का जूठन खाकर रहना स्वीकार किया परन्तु मुग़ल और अंग्रेज़ों के हाथ का पानी पीना स्वीकार नहीं किया। क्या भारतीय समाज को उनके आगे झुककर उनकी सहनशीलता की पूजा नहीं करनी चाहिए दूसरी ओर समाज के उच्च शिखर पर बैठने वालों ने हमेशा से विदेशी संस्कार, संस्कृति और सातत्य की दासता को सहर्ष स्वीकार कर लिया। पद, प्रतिष्ठा, साधन, सुविधा और सम्पत्ति के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया।
आज़ाद भारत में जिन लोगों को अनपढ़, अनाड़ी, अशिक्षित और असभ्य कहा गया, वे अपने परम्परागत पेशों के साथ भारत में रमे हुए हैं। पीढ़ियों पहले छोटी दुकान करके गुज़ारा करनेवालों का वंश बढ़ता गया और उसी अनुपात में उनका व्यवसाय भी बढ़ता गया। दूसरी तरफ़, किसानों के जोत के टुकड़े होते गए, परन्तु उसने अपनी किसानी नहीं छोड़ी। तमाम आर्थिक दुश्चक्रों के बावजूद उनका दिवाला नहीं निकला। किसान ने किसी से आग्रह नहीं किया कि उनकी खेती का अधिग्रहण कर ले। देशी या विदेशी किसी कम्पनी के आगे हाथ पसारने नहीं गए। वे प्रज्ञावान और स्वावलंबी थे, अभी भी हैं और आगे भी रहेंगे। स्वाभिमानी थे और आगे भी रहेंगे। उन्हें सौर-चक्र, मौसम-चक्र, फ़सलों और बीजों के ज्ञान के साथ अपनी कृषि-पध्यति पर पूर्ण विश्वास है। इस सबके बावजूद वे अनपढ़, गँवार और देहाती हैं।
आज़ादी के बाद राष्ट्रीयकरण की धुन सवार हुई। यह वह समय था जब समाजवाद, साम्यवाद और उदारवाद के नारे का बोलबाला था। सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना की जा रही थी। समाज के तथाकथित सर्वश्रेष्ठ बुद्धिजीवियों (प्रशासनिक अधिकारियों और प्रबंधकों) के हाथों सब सौंप दिया गया। साँठ-गाँठ, मेलजोल, और गुप्त समझौतों ने अधिग्रहण का सिलसिला चालू किया। परन्तु परिणाम सबके सामने हैं। आज लगभग सभी सार्वजनिक उपक्रमों का दीवाला निकल चुका है। सरकारी अनुदानों पर चलने वाले उपक्रमों को दीमक अंदर से चाट चुकी है। कौन खा गया अनुदानों की भारी-भरकम धनराशि। कहाँ चला गया सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन ज्ञान। कौन लूटकर ले गया इनकी परिसंपत्तियाँ। आज इन सभी को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। जिन नौकरशाहों को अपनी बुद्धि, विद्या, अनुभव, दक्षता, विशेषज्ञता तथा प्रशासकीय प्रबंधन पर अभिमान था, उनसे यह प्रश्न पूँछा जाना चाहिए की ऐसी स्थिति क्यों आई। इसका कारण क्या है। उन सभी उपक्रमों को जो अनुदान दिया गया, उसका क्या हुआ। अधिकतर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम पहले निजी प्रबंधन में थे। बीमार हुए, तब सरकार द्वारा अधिग्रहीत किए गए। उसके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ, इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है। प्रबंधन में उच्च पदों पर बड़े-बड़े विद्वान अधिकारी बैठे रहे। श्रम संगठनों के महान नेता समाजवादी और साम्यवादी सिद्धांतों का ज्ञान बघारते रहे। आज इस दयनीय हालत के लिए श्रमिक संगठनों के नेता ज़िम्मेदार नहीं हैं। असल में, देश में आज़ादी आई, उसी समय भारतीय अर्थनीति की दिशा ग़लत हो गयी।
सरकारीकरण के द्वारा चहेते अधिकारियों को अनुगृहीत करने के लिए इन उपक्रमों में पदासीन किया गया। सेवानिवृत्ति के उपरांत उन्हें राजनीतिक प्रोत्साहन दिया गया। सोसाइटी, न्यास, निगम, बोर्ड के नाम पर संस्थानों का गठन किया गया। प्रबंधन सम्बंधी निर्णय लेने में उन्हें नियंत्रित स्वतंत्रता दी गई। प्रबंधन सम्बंधी अनुभव प्राप्त करने, प्रशिक्षण प्राप्त करने आदि-इत्यादि कारणों से विदेशी यात्राओं के नाम पर होने वाले अपव्यय से निजी क्षेत्रों के प्रबंधन से कई गुना ज़्यादा ख़र्च इन उपक्रमों के प्रबंधकों द्वारा किया जाने लगा। बैकों के प्रबंधन पर भी सरकारों का क़ब्ज़ा होने लगा। सत्ताधारी दल ने देश के समर्पित पूँजीपतियों को बैंक का ख़ज़ाना सौंप दिया, जब तक बैंक निजी क्षेत्र में था तब तक बैंकों के कितने रुपए डूबे। कितना घोटाला हुआ। सरकारीकरण के बाद कितना घोटाला हुआ है और कितना रुपया किस औद्योगिक घराने पर बक़ाया है। आज किसानों और ग़रीबों का कितना बक़ाया है तथा बड़े घरानों का कितना रुपया बक़ाया है। जितना बक़ाया है, उसके लिए वे प्रबंधक ज़िम्मेदार हैं या नहीं? राजनेता, व्यापारी और नौकरशाह का गठबंधन बना दिया गया है। तीनों ने मिलकर लूटना शुरू किया है।
भारतीय परम्परागत तकनीक से चलने वाले कारोबार पिछड़े और दलित के हाथों में था। ज्यों-ज्यों आधुनिकीकरण होता गया, उनके रोज़गार छिनते चले गए। किसान और ग्रामीण कारीगरों के कुटीर उद्योग बंद होते चले गए। प्रथम दौर में देशी पूँजीपतियों तथा बड़े घरानों ने मिलकर गाँव वाले तथा भारतीय कारीगरों के हाथ से काम छीनने का काम किया। अब उनके कारोबार को विदेशी पूँजीपति छीन रहे हैं। सदैव की तरह एक बार फिर, बड़ी मछली छोटी मछली को खाती जा रही है। टाटा ने देश के करोड़ों लोहारों का और बाटा ने देश के करोड़ों चमड़े का कारोबार करने वाले ग़रीबों का रोज़गार छीन किया था। अब उनके ऊपर संकट के बादल मँडरा रहे हैं। देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों, उपकृत अर्थशास्त्रियों, उद्योगपतियों एवं व्यवसायियों ने सुर-में-सुर मिलाकर गीत गाए थे। अब करूण-क्रंदन कर रहे हैं। थोड़े से लोग अपवाद हो सकते हैं। अब यह ज़रूरत है कि एक निष्पक्ष आयोग इस बात की खुले तौर पर सार्वजनिक रूप से लोक अदालत में जाँच करे की सरकारी उपक्रमों के प्रबंधन में लगे लोगों के पास कितनी परिसंपत्तियाँ हैं।
आज़ादी की दूसरी लड़ाई में, नई पीढ़ी के लोग जो जयप्रकाश आंदोलन के अगुआ बने थे, उनके हाथों में सत्ता आई, परन्तु क्या आप उससे संतुष्ट हैं? पहले और अभी में क्या अंतर है, एक गिरोह या मंडली अथवा जाति या गुट का राज गया तो उस स्थान पर दूसरा आ गया। उसके चरित्र और कार्यशैली में क्या अंतर दिखाई पड़ रहा है। आज सभी दलों में सत्ता में रह चुके लोग विराजमान हैं। क्या हमारी आत्मा में उनके श्रद्धा या विश्वास है? श्रद्धाहीन, विश्वासहीन और आस्थाहीन परवाह कभी रचना का काम नहीं कर सकता। संप्रदायवादी, क्षेत्रवादी, जातिवादी आधार पर बने विभिन्न राजनीतिक दलों का उदय और पराभव का कारण वंशवादी राजनीति में परिवर्तित हो जाना रहा है।
राजनीति में वर्षों अपना जीवन लगाने वाले, जेल यातना सहने वाले, दर-दर की ठोकरें खाने वाले, नेताओं के नाम और काम का भूखे-प्यासे रहकर प्रचार करने वाले, परिवार-समाज और जाति से उपेक्षित और बहिष्कृत होकर पीड़ाजनक जीवन जीने वाले क्या संगठन, संसद, विधान मंडल या सरकारों में स्थान पाते हैं? सरकारी तंत्र के समान ही दलीय तंत्र बना हुआ है या नहीं? जाति के नाम पर राजनैतिक संरक्षण सर्व-व्यापक बन चुका है या नहीं? इस विवशता के पाश में बांधे हुए हम सभी मिथ्या, आशा और मृगतृष्णा में जी रहे हैं या नहीं? भारत के किसान, ग्रामीण, निर्धन और निर्बल ने हमेशा से देश की धरती को प्यार किया है और उसकी रक्षा के लिए बलिदान किया है। आज भी उन्हीं के बेटों की छाती सीमा पर छलनी हो रही है। उनके रक्त से भारत के त्याग, बलिदान और पुरुषार्थ का इतिहास लिखा गया है। उनके पूर्वज आदिकाल से यही करते आए और आज भी वे यही कर रहे हैं। प्रशासन तंत्र में उनके द्वारा अनुगृहीत और उपक्रित किए गए लोगों की संततियाँ बैठी हुयी हैं। संगठित अपराधियों ने सत्ता के साथ कुत्सित गठजोड़ बनाकर भ्रम का जाल बिछा रखा है।
भारत के शासकों को इस सत्य और तथ्य को स्वीकार करना चाहिए। केवल राष्ट्रीय चेतना जागरण से यह हो सकता है। केवल सरकार इस काम को नहीं कर सकती है। जनता को राष्ट्र-चेतना-जागरण में भरपूर साथ देना होगा। वास्तव में, समाज की एक धारा द्वार वर्तमान और भविष्य को सुधारने का प्रयत्न किया जा रहा है। द्वंद्व और अंतर्द्वंद्व के साथ ही विरोध एवं अंतर्विरोध जारी है। यही महाभारत है। दिशा, दृष्टि और संकल्प के साथ निर्मम होकर गांडीव उठाने की आवश्यकता है। सत्य और तथ्य को समझने की आवश्यकता है। यही भारत के गाँव, ग़रीब किसान और माटी की करूण कहानी है। व्यक्ति से समाज, समाज से राष्ट्र और राष्ट्र से मानवता ऊपर है। प्रेम, करुणा, उदारता और त्याग के पथ पर चलकर ही मानवता की रक्षा की जा सकती है।