जीवन यह कविता बन
जीवन यह
कविता बन
भावों और विचारों
की गति में विमल नीर सा
बहता जाए
कालचक्र में इधर बहे
या उधर बहे
घाट घाट बहता जाये
बंधन कोई बांध न पाए
उन्मुक्त रूप से बहते बहते
मानव मन के अंतस को
शीतल कर
कुछ तो सुख पहुंचाए
ठहरे भी तो
प्यासे की अंजुरी में
रिस रिस कर धरती के
अंतस्तल में जो समा सके
तो विश्राम करे
ठहरे भी जो तो
तरु के मूलों में आश्रय पाए
रुकना हो तो
उगते बीजों के खेतों में
रुक जाए
सूरज के किरणों के रथ पर
चढ़कर भाप बनूं
बिहरऊँ मेघों के संग
गगन मगन
तड़ित विद्युत् के संग
हुंकार भरूँ
बरस-बरस कर बूंद-बूंद
लौटूं अपनी धरती की गोदी में।
डॉ. चन्द्रविजय चतुर्वेदी, प्रयागराज