ट्रेन में तब शौचालय नहीं होते थे
ओखिल बाबू ने जमकर कटहल की सब्जी और रोटी खाई, फिर निकल पड़े ट्रेन से अपनी यात्रा पर।
ट्रेन के डिब्बे में बैठे-बैठे पेट फूलने लगा और गर्मी के कारण पेट की हालत नाज़ुक होने लगी।
ट्रेन अहमदपुर रेलवे स्टेशन पर रुकी तो ओखिल बाबू प्लेटफार्म के नल के पानी से अपना लोटा भरकर पटरियों के पार हो लिये।
दस्त और मरोड़ से बेहाल ओखिल बाबू ढंग से फारिग भी न हो पाये थे कि गार्ड ने सीटी बजा दी।
सीटी की आवाज सुनते ही ओखिल बाबू जल्दबाजी में एक हाथ में लोटा और दूसरे हाथ से धोती को उठा कर दौड़ पड़े।
इसी जल्दबाजी और हडबड़ाहट में ओखिल बाबू का पैर धोती में फंस गया और वो पटरी पर गिर पड़े और उनकी धोती खुल गयी।
शर्मसार ओखिल बाबू के दिगम्बर स्वरूप को प्लेटफार्म से झांकते कई औरत-मर्दों ने देखा।
कुछ अरे संभल कर बोले तो कुछ मुस्कुराकर सीन का मजा लेने लगे।
कुछ ओखिल बाबू के दिगम्बर स्वरूप पर ठहाके मारने लगे।
ओखिल बाबू ट्रेन रोकने को जोर -जोर से चिल्लाने लगे लेकिन ट्रेन चली गयी।
वेअहमदपुर स्टेशन पर ही छूट गये।
ये बात है सन् 1909 की। तब ट्रेन में टॉयलेट केवल प्रथम श्रेणी के डिब्बों में ही होते थे।
सन् 1891 से पहले प्रथम श्रेणी में भी टॉयलेट नहीं होते थे।
ओखिल बाबू यानी ओखिल चन्द्र सेन नामक इस यात्री को अपनी साथ घटी घटना ने बहुत विचलित कर दिया।
क्षुब्ध होकर उन्होने रेल विभाग के साहिबगंज मंडल रेल कार्यालय के नाम एक धमकी भरा पत्र लिखा कि यदि आपने मेरे पत्र पर कार्रवाई नहीं की तो मैं ये घटना अखबार को बता दूंगा।
उन दिनों अखबार का डर होता था।
उन्होंने उपर बताई सारी घटना का विस्तार से वर्णन करते हुए अंत में लिखा कि यह बहुत बुरा है कि “जब कोई व्यक्ति टॉयलेट के लिए जाता है तो क्या गार्ड ट्रेन को 5 मिनट भी नहीं रोक सकता।
“मैं आपके अधिकारियों से गुज़ारिश करता हूं कि जनता की भलाई के लिए उस गार्ड पर भारी जुर्माना लगाया जाए। अगर ऐसा नहीं होगा तो मैं इसे अखबार में छपवाऊंगा।”
रेलवे से लेकर सरकार में तब इंसान रहते थे।
उन्होंने एक आम यात्री के इस पत्र को इतनी गंभीरता से लिया कि अगले दो सालों में ट्रेन के हर डिब्बे में टॉयलेट स्थापित कर दिये गये।
तो ! ट्रेन में जब भी टायलेट का प्रयोग करें , ओखिल बाबू का शुक्रिया करना ना भूलें।
ओखिल बाबू का वह पत्र आज भी दिल्ली के रेलवे म्यूजियम में सुरक्षित और संरक्षित है।