अफ़ग़ानिस्तान के आंतरिक संघर्ष से पड़ोसियों की सुरक्षा को ख़तरा
20 साल का लंबा वक्त, 2300 से अधिक फ़ौज़ी और 800 बिलियन डॉलर गवाँ कर अंततः अमेरिका की अफगानिस्तान से विदाई हो ही गई. जैसी की उम्मीद थी, अमेरिकी सेना के हटने के साथ हीं तालिबान और अफगान बलों के बीच ख़ूनी भिड़ंत शुरू हो गई हैं. एक तरह से अफगानिस्तान नये संघर्ष से घिरता जा रहा है.
तालिबान उत्तर से नये इलाकों पर कब्ज़ा करता हुआ काबुल की ओर बढ़ता आ रहा हैं, उधर अफगान सेना ने भी ताबड़तोड़ हवाई हमले शुरू कर दिये हैं. अफगान राष्ट्रपति अशरफ ग़नी ने तालिबान को शिकस्त देने की कसम खाई हैं. बदघिस प्रांत की राजधानी कलात-ए – नौ पर तालिबान के कब्ज़े को ख़त्म करने के लिये अफगान सेना की स्पेशल कमांडो यूनिट को उतारा गया. बदघिस के गवर्नर हेसामुद्दीन शम्स के अनुसार सुरक्षा बलों के तगड़े हमले से उन्हें पीछे धकेल दिया गया हैं और वे भाग रहे हैं. हालांकि तालिबान इतना आसान प्रतिद्वंदी नहीं हैं. अप्रैल से लेकर अब तक 3600 आम नागरिक, 1000 से अधिक सिपाही मारे जा चुके हैं और 3000 से अधिक घायल हैं. उत्तरी अफगानिस्तान के दस फीसदी ज़िलों पर उसका कब्ज़ा हो गया है. तालिबान की बढ़त को देखते हुए कई देशों ने उन इलाकों में स्थित अपने वाणिज्यिक दूतावासों को बंद कर दिया है. जैसे की बल्ख़ प्रांत की राजधानी मज़ार-ए -शरीफ में रूस और तुर्की ने अपने दूतावास बंद कर दिये हैं. भारत ने हेरात और जलालाबाद के अपने दोनों दूतावासों को बंद कर दिया है.
अफगानिस्तान के इस आतंरिक संघर्ष से उसके पड़ोसियों की सुरक्षा पर संकट खड़ा हो गया हैं. उत्तर -पूर्वी प्रांत बदख्शां के अधिकतर अधिकांश क्षेत्र पर तालिबान के कब्ज़ा करने के बाद अफगान सेना के 1000 से अधिक जवान तज़ाकिस्तान भाग गये हैं. इसे देखते हुए वहाँ के राष्ट्रपति इमोमाली रखामोन के आदेश से 20 हज़ार सैनिकों को दक्षिणी सीमा पर तैनात कर दिया गया है.
इधर भारत में भी बेचैनी है. एक लंबे संघर्ष के बाद अब कश्मीर में हालात स्थिर हुए हैं लेकिन तालिबान कि सत्ता में वापसी वहाँ एक बार फिर कट्टारपंथीयों को संबल दें सकती हैं तथा यहाँ फिर से जेहादी हमले शुरू हो सकतें हैं. चीन भी सिंज़ियाँग को लेकर चिंतित हैं. चूकि उइगर कट्टरपंथीयों का तालिबान से गहरा सम्बन्ध रहा हैं इसलिए चीन को वहाँ आंतकवाद का प्रभाव बढ़ने कि आशंका हैं. रूस भी CIS देशों कि सुरक्षा को लेकर सक्रिय हैं क्योंकि यहाँ तालिबान कि सक्रियता उसके आतंरिक सुरक्षा के लिये भी प्रतिकूल परिस्थितियां पैदा करेगा. वैसे भी रूस बड़ी मुश्किल के साथ चेचन्यायी विद्रोहियों को काबू में लाने के लिये प्रयासरत है.
इस दौरान परदे के पीछे दोनों पक्षो के बीच सुलह के प्रयास भी चल रहे हैं. अफगानिस्तान सरकार के प्रतिनिधिमण्डल और तालिबान के प्रतिनिधियों की मुलाक़ात तेहरान में हुईं. तालिबान प्रतिनिधियों का नेतृत्व शेर मोहम्मद अब्बास स्तानीकजई तथा अफगानिस्तान सरकार के प्रतिनिधि मंडल पूर्व के प्रमुख उपराष्ट्रपति योनुस हैं. ईरान और रूस इसमें माध्यथता कर रहे हैं. वे भारत को भी इससे शांति प्रक्रिया से जोड़ना चाहतें हैं. माना जा रहा है कि भारतीय विदेश मंत्री की तेहरान और मास्को यात्रा के मूल में अफगानिस्तान का घटनाक्रम ही है.
संघर्ष का आर्थिक पक्ष
इस संघर्ष का एक आर्थिक पक्ष भी है. चीन बेल्ट एंड रोड प्रॉजेक्ट का विस्तार अफगानिस्तान तक करना चाहता है, जिसकी लागत करीब 62 अरब डॉलर है. चीन के बेल्ट एंड रोड प्रॉजेक्ट का ध्येय पूरी दुनिया को खुद से जोड़ना है. इसके जरिये चीन कई देशों में भारी पैमाने पर निवेश कर रहा हैं. इस परियोजना को वर्ष 2049 तक पूरा किये जाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है. असल में चीन पेशावर से काबुल तक एक सड़क का निर्माण करना चाहता है, जिसके माध्यम से अफगानिस्तान औपचारिक रूप से सीपीईसी का हिस्सा बन जाएगा. चीन पिछले कई वर्षो से इस दिशा में प्रयासरत था, लेकिन अफगान सरकार पर अमेरिकी प्रभाव के चलते यह संभव नहीं हो पाया. किंतु USA के अफगानिस्तान छोड़ते हीं चीन की संभावनाएं बलवती होने लगीं हैं. अफगानिस्तान की सरकार और वहाँ के अधिकारी इसके प्रति सकारात्मक रुख दर्शा रहे हैं. चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजिन ने स्वीकार किया कि चीन और अफगानिस्तान सरकार के मध्य वार्ता चल रही है. अफगानिस्तान के इस परियोजना से जुड़ने के पीछे मात्र आर्थिक लाभ या चीन का प्रभाव हीं नहीं काम कर रहा है. दरअसल इसमें अफगान सरकार के अपने हित छुपे हैं. इससे चीन के रूप में उन्हें ताकतवर सहयोगी मिल जाएगा, जो अफगानिस्तान कि सरकार को आर्थिक, कूटनीतिक और सामरिक सहयोग दें सकेगा. साथ ही अफगानिस्तान बेल्ट एंड रोड प्रॉजेक्ट के माध्यम से एशिया, यूरोप और अफ्रीका के 60 से अधिक देशों से जुड़ जाएगा. चीन इसमें अपने लिए अवसर देख रहा हैं. उसकी संसाधनों कि भूख सर्वविदित हैं. अफगानिस्तान में बहुमूल्य संसाधन मौजूद हैं जिनकी कीमत लगभग एक ट्रीलियन डॉलर हैं. इनमें लीथिएम और निओबीएम जैसे धातु सम्मिलित हैं. चीन इनका दोहन करना चाहता हैं. इसके अतिरिक्त अफगानिस्तान के माध्यम से चीन मध्य और पश्चिम एशिया तथा यूरोप तक अपनी पकड़ और मजबूत करने में सक्षम होगा. यह चीन कि भारत को घेरने कि नीति का भी एक भाग होगा. USA द्वारा रिक्त जगह को भरने में चीन चूकने वाला नहीं है. भारत के अफगानिस्तान में अपने हित दांव पर लगे हैं. अफगानिस्तान में विभिन्न पुनर्निर्माण परियोजनाओं में भारत ने लगभग तीन अरब डॉलर का निवेश कर रखा है. काबुल में दूतावास के अतिरिक्त कंधार और मज़ार ए शरीफ में भारत के वाणिज्य दूतावास हैं, जिनमें करीब 500 से अधिक कर्मचारी हैं, इसके अतिरिक्त अफगानिस्तान में लगभग 1700 भारतीय रहते हैं जिनकी सुरक्षा भी दांव पर लगी हैं. तालिबान का ताकतवर होना पाकिस्तान के पक्ष में होगा. पाकिस्तान की नीति तालिबान के माध्यम से सिर्फ कश्मीर में हिंसा भड़काने की ही नहीं होगी बल्कि वह अफगानिस्तान में भी भारत को कमजोर करने का प्रयास करेगा. तालिबान की वापसी को देखकर अफगानियों में खौफ का माहौल हैं. अपने सत्ता काल में तालिबान ने शरिया कानूनों के नाम पर लड़कियों की शिक्षा बंद करना, औरतों का अकेले बाहर निकलना, शरीर का जो हिस्सा दिख जाए उसे काट देना, पत्थर मारकर मार डालना, हाथ – पैर काटने जैसे कृत्य किये थे. अब लोगों को उसी दौर के लौटने का भय सता रहा हैं.
उधर तालिबान ने भी घोषणा की हैं कि अफगानिस्तान में शांति का एकमात्र रास्ता इस्लामी व्यवस्था का लागू होना है. अमेरिका जिस अव्यवस्था में अफगानिस्तान से निकला हैं, वह नीतिगत कमी को दिखाता हैं. उसने अफगानी लोगों को कट्टरपंथीयों के आगे निढाल छोड़ दिया हैं. इसके दुष्परिणाम जल्द ही इस पूरे उपमहाद्वीप को भुगतने पड़ेगे.
शिवेन्द्र राणा,
ईमेल – Shivendrasinghrana@gmail.com
ट्विटर – @shivend33163533