लोकतंत्र का नया विमर्श चाहिए

बिना लोकशक्ति के राजशक्ति बेअसर साबित हो चुकी है

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य था पूर्ण स्वराज़, जिसका संकल्प २६ जनवरी १९३० रावी के तट पर लिया गया था. आज़ादी के बाद एक लम्बे मंथन से भारत का संविधान निकला जो हमारा पथ प्रदर्शक बना. लेकिन आज़ादी के आंदोलन की भावना और उससे उपजी लोकशक्ति धीरे धीरे क्षीण होती गयी, जिसे जगाने के लिए लोक नायक जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया. इस आंदोलन के सिपाही और जे एन यू के प्रोफ़ेसर आनंद कुमार इस लेख में कहते हैं कि “समग्र बदलाव के लिए लोकशक्ति का निर्माण चाहिए. बिना लोकशक्ति के राजशक्ति बेअसर साबित हो चुकी है. विचारधाराएँ निरर्थक बन गयी है. दल सत्ता की सीढ़ी भर रह गए हैं. लोकतंत्र का नया विमर्श चाहिए. सम्पूर्ण क्रान्ति चाहिए.”

professor Anand Kumar JNU
प्रोफ़ेसर आनंद कुमार

हर व्यक्ति-देश-समाज-संस्कृति का अपना एक स्मृति-संसार होता है. जिसमें विशिष्ट व्यक्तियों, घटनाओं, तिथियों और अभियानों से प्रेरणा मिलती है. उन्हें स्मरणीय और अनुकरणीय माना जाता है. इस क्रम में आधुनिक भारत की नव-निर्माण यात्रा में तीन तारीखों का ऐतिहासिक महत्व है: पूर्ण स्वराज के संकल्प के लिए २६ जनवरी; लोकतांत्रिक राष्ट्रनिर्माण के लिए प्रतिबद्ध संविधान के लोकार्पण के लिए २६ नवम्बर; और ‘देश के नव-निर्माण के लिए सम्पूर्ण क्रांति के आवाहन के लिए ५ जून.
२६ जनवरी १९३० को ‘’पूर्ण स्वराज’ प्राप्त करने की सार्वजनिक प्रतिज्ञा ली गयी और १५ अगस्त ’४७ को ब्रिटिश राज की समाप्ति के रूप में पूर्ण स्वराज मिलने तक अगले सत्रह सालों के दौरान अनवरत आन्दोलन चलाये गए. इसी प्रकार २६ नवम्बर १९४९ भारत का ‘संविधान दिवस’ है. यह साम्राज्यवादी-विरोधी संघर्ष से जुड़े भारतीय स्त्री-पुरुषों की राजनीतिक दूरदर्शिता और सृजन क्षमता की श्रेष्ठ तिथि है. इसी दिन स्वतंत्रता, न्याय, समता, बंधुत्ब और एकता पर आधारित लोकतांत्रिक राष्ट्र-निर्माण के लिए प्रतिबद्ध विश्व-स्तरीय संविधान की रचना पूरी करके स्वयं को समर्पित किया.
हमारे ताज़ा इतिहास में ५ जून १९७४ को हुए ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के रोमांचक आवाहन के कारण अपना असाधारण महत्त्व है. तब तक स्वराज और संसदीय जनतंत्र के २७ बरस बीत गए थे और स्वाधीनोत्तर विकास-दिशा के बारे में पूर्ण मोहभंग हो चुका था. बेरोजगारी, महंगाई और शैक्षणिक अराजकता से चौतरफा बेचैनी थी. राजनीति में फैली अनैतिकता और सत्ता-प्रतिष्ठान में उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार के खिलाफ गुजरात से बिहार तक जन साधारण में असंतोष की बाढ़ थी. परिवर्तन के लिए मार्क्सवाद-माओवाद के हिंसक वर्गसंघर्ष रास्ते की ओर मुड गए युवक-युवतियों का बंगाल समेत चौतरफा दमन हो रहा था. उत्तर प्रदेश में सशस्त्र पुलिस बल में ही बगावत हुई. रेल मजदूरों ने लम्बी देशव्यापी हड़ताल की और राजसत्ता ने मजदूरों को जेलों में भर दिया. ऐसे अभूतपूर्व संकट से देश को निकालने के लिए लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा ‘सम्पूर्ण क्रांति’ के आवाहन से एक नया दिशा-बोध मिला. इसने समूचे राष्ट्रनिर्माण-विमर्श में ऐतिहासिक बदलावों की शुरुआत की और आगे जाकर १९७५-’७७, १९८९-९२, २०११-’१४ में राष्ट्रीय स्तर पर परिवर्तन की राजनीति की लहरें उठीं.


२६ जनवरी – पूर्ण स्वराज का महास्वप्न


भारत के लोगों ने २६ जनवरी को १९३० को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विराट अधिवेशन में दो सौ बरस की ब्रिटिश गुलामी से पूर्ण स्वराज की सार्वजनिक प्रतिज्ञा ली थी. यह लोकमान्य तिलक द्वारा १९१६ में दिए गए मंत्र की चरम परिणति थी – ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे.’.
इस महास्वप्न को पूरा करने में दो दशक का समय लगा. इसके लिए एक तरफ गांधी-पटेल-राजाजी की पीढ़ी को नेहरु-सुभाष-नरेन्द्रदेव की पीढ़ी के साथ समन्वय करना पड़ा. दूसरी तरफ, करोड़ों दलितों और आदिवासियों के साथ सदियों से हो रहे अन्यायों का प्रायश्चित जरुरी हुआ. इसमें गांधी – आम्बेडकर संवाद, पूना समझौता और गाँधी के अस्पृश्यता उन्मूलन अभियान की केन्द्रीय भूमिका रही. भारत के सांस्कृतिक स्वरुप को राजनीतिक आधार प्रदान करने के लिए ब्रिटिश भारत और ५५० देशी रियासतों के जन-साधारण में पूर्ण स्वराज के लक्ष्य के जरिये निकटता बनायी गयी. ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की ‘बांटो और राज करो’ की कूटनीति के कारण मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा जैसे सांप्रदायिक दलों के माध्यम से सम्प्रदायक दंगे बढे और बंटवारे की मांग जरुर बढती गयी.
इसके बावजूद पूरे देश ने क्रमश: एकजुट होकर ‘पूर्ण स्वराज’ के प्रेरक सपने को १९३० से १९४७ के बीच अगले २० बरस तक हर साल २६ जनवरी को सार्वजनिक समारोहों के जरिये ज़िंदा रखा.


१९३० में ‘नमक सत्याग्रह’, १९४० में ‘व्यक्तिगत सत्याग्रह’ और १९४२ में ‘भारत छोडो आन्दोलन’ के दौरान गांधी समेत हजारों लोगों ने बार-बार सत्याग्रह किये. बंदी जीवन का वरण किया.

भारत छोडो आन्दोलन में इस सपने को साकार करने के लिए ‘करो या मरो!’ का आवाहन किया गया और सचमुच आर-पार का संघर्ष हुआ. ९अगस्त और २१ सितम्बर के शुरुआती छ हफ़्तों में ही ७० पुलिस स्टेशन, ८५ सरकारी भवन, २५० रेल स्टेशन, और ५५० डाकखाने जनविद्रोह के कारण क्षतिग्रस्त कर दिए गए. २५०० से अधिक टेलेफोन के खम्भे उखाड़ दिए गए. सतारा (महाराष्ट्र), तलचर (ओडिशा), मिदनापुर (बंगाल) और बलिया (उत्तर प्रदेश) में जनता ने प्रशासन अपने हाथ में ले लिया. ब्रिटिश राज ने सेना की ५७ बटालियनों का इस्तेमाल किया. ५०,००० से जादा लोग गोलियों के शिकार हुए. देश भर में एक लाख से जादा आंदोलनकारी गिरफ्तार किये गए और अगले तीन बरस तक कैद में रखे गए.

एक अनुमान के अनुसार देश की २० प्रतिशत जनता की हिस्सेदारी हुई. १९४४-४५ में नेताजी सुभाष द्वारा गठित आज़ाद हिन्द सेना की कुर्बानियों और बम्बई के नौसैनिक विद्रोह ने ब्रिटिश राज की बुनियाद हिला दी. १९४७ में ब्रिटिश भारत के रक्तरंजित विभाजन से पैदा पीड़ा से गुजरना पड़ा.
अंतत: १५ अगस्त १९४७ को देश पूर्ण स्वाधीनता का हकदार बना और दिल्ली में लालकिले पर, हर प्रदेश की राजधानी में और हर जिले के मुख्यालय पर ब्रिटिश झंडे की जगह राष्ट्रीय तिरंगा फहराने लगा. आज २६ जनवरी भारत के सालाना कैलेंडर में ‘गणतंत्र दिवस’ के रूप में सबसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय उत्सव का दिन हो चुका है.



२६ नवम्बर – राष्ट्र-निर्माण के पथप्रदर्शक संविधान का लोकार्पण


२६ नवम्बर को मनाया जानेवाला ‘संविधान दिवस’ भारतीय संविधान की रचना के समापन और लोकार्पण से जुडी तिथि है. शुरू में इसको कम महत्व दिया गया. एक तो भारतीय संविधान निर्मात्री सभा के सदस्यों का चुनाव कुल जनसँख्या के मात्र १५ प्रतिशत मतदाताओं द्वारा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और राजनीतिक संक्रमण के माहौल में हुआ था. दूसरे, वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव न कराने के कारण कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी ने इसका बहिष्कार किया था. तीसरे, इस संविधान पर ब्रिटिश राज के गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट (१९३५) का प्रबल प्रभाव था. इस दोष को दूर करने के लिए स्वयं कांग्रेस सरकार ने शुरू से ही संशोधनों का सहारा लिया. इंदिरा गांधी के प्रधानमन्त्री बनने पर, विशेषकर आपातकाल के दौरान कई दूरगामी प्रभाव वाले संशोधन कराये गए. लेकिन १९७५-७७ के आपातकाल के भयानक अनुभवों के बाद देश के सरोकारी नागरिकों और मीडिया में भारतीय संविधान का महत्व बढ़ने लगा.
१९७७-’७९ के बीच की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार ने इसके जनतांत्रिक आयाम को नयी दृढ़ता दी. बाद की सरकारों द्वारा भी पिछले तीन दशकों में इसमें कई प्रगतिशील सुधारों का समावेश किया गया है. इसमें मताधिकार की आयु १८ बरस करने, शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने, सूचना अधिकार, वन सम्पदा अधिकार, पिछड़े वर्गों को आरक्षण और पंचायती राज सम्बन्धी संशोधन उल्लेखनीय हैं. महिला सशक्तिकरण, भूख और कुपोषण से सुरक्षा और स्वास्थ्य अधिकार के महत्वपूर्ण अभियानों ने भी संविधान के महत्व को बढाने में योगदान किया है. इसके विपरीत कुछ संगठनों द्वारा संविधान से धर्म-निरपेक्षता, समाजवाद, निर्बल वर्गों को आरक्षण और अल्पसंख्यकों को दी गयी सुरक्षा को हटाने का भी अभियान चलाया जा रहा है.


इस प्रकार उत्साहहीन माहौल में १९४९ में हुए लोकार्पण के सात दशकों के बाद १०४ संशोधनों के बावजूद यह भारतीय राष्ट्र-निर्माण के विमर्श में एक मजबूत धुरी बन चुका है. ४७० धाराओं और १२ अनुसूचियों वाले भारतीय संविधान को लोकतांत्रिक संगठनों, विशेषकर महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों और पर्यावरण के प्रति सरोकार रखनेवाले मंचों द्वारा विशेष महत्व दिया जा रहा है. समाजवादियों और कम्युनिष्ट संगठनों ने इसके बारे में अपनी आपत्तियों को भुला दिया है. इसलिए हाल के वर्षों में २६ नवंबर को नागरिक समाज द्वारा ‘संविधान दिवस’ के रूप में विशेष सक्रियता के साथ मनाया जाने लगा है.



५ जून – सम्पूर्ण क्रांति का दिशाबोध


स्थान – पटना का गाँधी मैदान. कार्यक्रम – बिहार सरकार द्वारा चलाये जा रहे दमन-चक्र के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन का समापन. अनुमानित हाजिरी – पांच लाख स्त्री-पुरुष. वक्ता – जयप्रकाश नारायण. वक्तव्य का सारांश – ‘ यह एक क्रांति है, सम्पूर्ण क्रांति. यह मात्र विधानसभा भंग करने का आन्दोलन नहीं है. हम सबको दूर तक जाना है, बहुत दूर तक.’. इसके लिए विद्यार्थियों – युवाओं को धीरज से जुटना होगा. इसमें अहिंसक उपाय ही अपनाए जाने चाहिए. इसके लिए हर विद्यालय-महाविद्यालय में छात्र-संघर्ष समितिओं का गठन करने का आवाहन किया गया. हर गाँव – नगर में पंचायत और जिला स्तर पर जन संघर्ष समितियों की जरूरत बतायी गयी. इन दोनों प्रकार की समितियों के समन्वय से पंचायत से लेकर जिला तक जनता सरकार के रूप में लोकशक्ति के उपकरणों का निर्माण किया जाएगा. लोकतंत्र के नाम पर हो रहे तंत्र की वर्चस्वता और उच्च स्तरों पर फ़ैल चुके भ्रष्टाचार को चुनौती देनी होगी. स्थानीय प्रशासन प्रबंधन, कालाबाजारी निर्मूलन, राशन दूकानों की निगरानी, दहेज़ लेना बंद करना, दलितों के साथ अपमानजनक व्यवहार से लेकर भूमि-वितरण में धांधली खत्म करना जनता सरकार की जिम्मेदारियों में शामिल रहेगा. यह समितियां विधानसभा और लोकसभा के निर्वाचन में भी योगदान करके लोकतंत्र की चौकीदारी करेंगे. धनबल और बाहुबल का प्रतिरोध करेंगे….
आखिर जयप्रकाश नारायण के इस रोमांचक आवाहन की क्या पृष्ठभूमि थी? देश-प्रदेश की क्या दशा थी?
वस्तुत: यह चौतरफा अव्यवस्था और मोहभंग का समय था. १९७१ के आम चुनाव और १९७२ के विधान सभा चुनाव हुए और दोनों में ही श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में नवोदित कांग्रेस (इंदिरा) को प्रबल बहुमत मिला. ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के सामने सभी विपक्षी दल धराशायी हो गए. देश की लोकसभा की ५१८ सीटों में से ३५२ जगहें इंदिरा गांधी के उम्मीदवारों को मिलीं थीं. इस बीच बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के कारण हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध में न सिर्फ पाकिस्तान से टूटकर बांगलादेश का उदय हुआ बल्कि भारत ने पाकिस्तान के १ लाख सैनिक युद्धबंदी बना लिए थे. १९६९ में कांग्रेस की टूट के कारण अपनी सरकार बचाने के लिए कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट सांसदों का समर्थन लेने के लिए मजबूर हुई प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी १९७२ तक अपने प्रभुत्व के शिखर पर पहुँच चुकी थीं. लेकिन यह स्थिति शीघ्र ही बदलने लगी. १९७३ में ही गरीबी हटाने की बहु-प्रचारित योजनायें कागज़ी साबित हो रही थीं. राष्ट्रीय उत्पादन और राष्ट्रीय आमदनी में गिरावट सामने आई. खाद्यान्न की कमी पैदा हो रही थी. इसी बीच अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अक्टूबर १९७३ तक तेल-पेट्रोल के दामों में चार गुना बढ़ोतरी हो गयी जिससे रासायनिक खाद और डीजल के भाव आसमान छूने लगे. दैनिक जरुरत की वस्तुओं के दामों में ३० प्रतिशत तक मंहगाई हो गयी. मुद्रा स्फीति को काबू में लाने के लिए खर्च में कटौती की तो रोज़गार अवसर घटने लगे.
आर्थिक मंदी, जरुरी वस्तुओं के अभाव (कालाबाजारी), बेरोज़गारी और मंहगाई के संयोग ने व्यापक असंतोष पैदा किया. भारत की आर्थिक राजधानी बम्बई में अक्टूबर ’७३ और जून ’७४ के बीच १३,००० हडतालें हुईं. सिर्फ १९७४ में उद्योग-धंधों में ३ करोड़ से अधिक श्रम-दिवस का नुकसान हुआ. मई १९७४ में भारत के इतिहास की पहली अखिल भारतीय रेल हड़ताल हुई. सरकार ने इसे विफल करने के लिए ‘भारत रक्षा अधिनियम’ का इस्तेमाल किया. श्रमजीवियों और सरकारी कर्मचारियों की तनखाहों में होनेवाली नियमित सालाना वृद्धि रोक कर अनिवार्य बचत योजनायें लागू कराई गयीं. मंहगाई नियंत्रित करने के लिए किसानों से अनिवार्य अन्न वसूली का प्रयास भी बेहद अलोकप्रिय साबित हुआ. गरीब वर्गों के धीरज के बावजूद मध्यम वर्ग, किसानों, शहरी श्रमिकों और विद्यार्थियों में असंतोष गहराने लगा. सत्ता प्रतिष्ठान में इस मोहभंग की लहर को ‘उम्मीदों में क्रांति’ का विशेषण देकर अनदेखा किया गया.

कांग्रेस की विजय के बावजूद जन असंतोष


राजनीतिक दृष्टि से कांग्रेस की टूट के बाद प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी को चुनाव में प्रबल विजय के बावजूद संगठन शक्ति का अभाव बना रहा. इसने सत्ता और जनता में असंतोषजनक फासला पैदा किया. विपक्ष की दयनीय दशा के कारण सत्ताधारी दल में निरंकुशता, गुटबंदी और स्वेछाचार की बढ़ोतरी होने लगी. स्वयं प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी पर अपने छोटे बेटे संजय गांधी को मारुति कार का कारखाने बनाने में पक्षपात का आरोप लगने लगा.


इसी बीच गुजरात में दिसंम्बर ’७३ और जनवरी ’७४ के दौरान मंहगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध विद्यार्थी असंतोष का विस्फोट हो गया. १६८ सदस्यीय विधानसभा में कांग्रस पार्टी को १४० सदस्यों का समर्थन जरुर था लेकिन विद्यार्थियों द्वारा स्वत:स्फूर्त तरीके से गठित नवनिर्माण समिति के आन्दोलन ने इस प्रचंड बहुमत को निरर्थक बना दिया. इसमें पुलिस फायरिंग से ८५ लोगों की मृत्यु हुई. ३,००० लोग घायल हुए. ८,००० से अधिक गिरफ्तार किये गए. सभी विरोधी दलों समेत समाज के मुखर अंशों ने आन्दोलन का समर्थन किया. जयप्रकाश नारायण ने भी नवनिर्माण समिति को अपना नैतिक समर्थन दिया. उन्हें इस आन्दोलन में ‘आशा की किरण’ दिखाई दी. क्योंकि वह दिसम्बर ’७३ में देश के युवजनों के नाम अपील जारी करके लोकतंत्र की बिगडती दशा के प्रति सरोकारी बनने का आवाहन कर चुके थे. मोरारजी देसाई तो ११ मार्च को विधानसभा विघटन और नए चुनावों के लिए आमरण अनशन पर ही बैठ गए. फलत: १५ मार्च को हाल में ही चुनी गयी सरकार और विधान सभा दोनों का असमय समापन हो गया!

बिहार आंदोलन


इधर बिहार में फ़ैल रहे जन-असंतोष के बीच दिसम्बर ’७३ से विद्यार्थी आन्दोलन शुरू था. २१ जनवरी को गैर-कांग्रसी दलों ने महंगाई के खिलाफ बिहार बंद का आयोजन किया. पटना विश्वविद्यालय छात्रसंघ के आव्हान पर पूरे बिहार के छात्रनेताओं का एक सम्मेलन भी हुआ जिसने १८ फरवरी को छात्र संघर्ष समिति का निर्माण किया. इसमें सभी गैर-कम्युनिस्ट संगठन शामिल थे. कम्युनिस्ट समर्थक विद्यार्थियों ने अलग से बिहार छात्र-नौजवान संघर्ष मोर्चा बनाया. मंहगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और शिक्षा के सवालों पर छात्रों की समिति द्वारा १८ मार्च को बिहार विधानसभा के घेराव का आयोजन किया गया. जिसमें पुलिस फायरिंग से पांच प्रदर्शनकारी मारे गए और पूरे पटना में व्यापक तोड़फोड़ और हिंसा हुई. छात्र-पुलिस टकराहटों से अन्य शहर भी प्रभावित हुए. दो दर्जन जानें गयीं. फलस्वरूप २० मार्च तक बिहार के ११ महत्वपूर्ण शहरों में प्रशासन ठप्प हो गया और कर्फ्यू लगाना पड़ा. पटना में सेना बुलायी गयी. पूरा बिहार अराजकता की चपेट में आ गया.

विरोधी दलों, समाचार पत्रों, व्यवसाय मंडल, वकील संघ आदि ने इसके लिए पुलिस बर्बरता की आलोचना की और सरकार से इस्तीफे की मांग की जाने लगी. इसी दौरान बिहार छात्र संघर्ष समिति ने जे. पी. से मार्गदर्शन का अनुरोध किया. जे. पी. ने दोनों तरफ से हुई हिंसा की निंदा की. बुनियादी बदलावों के लिए अहिंसा और निर्दलीयता की जरूरत समझाई. विद्यार्थी प्रतिनिधियों ने जे. पी. के अनुशासन के पालन का आश्वासन दिया. ८ अप्रैल को जे. पी. के नेतृत्व में सर्वोदय से जुड़े युवकों-नागरिकों का पटना में शांति स्थापना के लिए जुलूस निकला. इसमें राजनीतिक दलों और उनसे जुड़े छात्रो-युवाओं की हिस्सेदारी पर मनाही की.

यह बिहार के छात्रों के लिए ही नहीं देशभर के विद्यार्थियों के बहुत बड़ी घटना थी. जे. पी. का विद्यार्थियों-युवाओं के सवालों के समाधान के लिए आगे आना बहुत अप्रत्याशित उत्साह का कारण बना. इसी क्रम में जे. पी. ने पटना के बाहर की स्थिति जानने के लिए बिहार भर का दौरा किया. उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुँचने में देर नहीं लगी कि चारो तरफ असंतोष और आक्रोश का विस्तार हो रहा है. लेकिन दिशाबोध नहीं है. दलों की दीवारें हैं. छात्रों और जनसाधारण में दूरियां हैं. छिटफुट हिंसा की आदत है. सही समझ और धीरज नहीं है. बहुआयामी संकट के समाधान के लिए सत्ता-परिवर्तन की बजाय व्यवस्था-परिवर्तन की जरूरत है. इस समग्र बदलाव के लिए लोकशक्ति का निर्माण चाहिए. बिना लोकशक्ति के राजशक्ति बेअसर साबित हो चुकी है. विचारधाराएँ निरर्थक बन गयी है. दल सत्ता की सीढ़ी भर रह गए हैं. लोकतंत्र का नया विमर्श चाहिए. सम्पूर्ण क्रान्ति चाहिए.

बहुआयामी संकट के समाधान के लिए सत्ता-परिवर्तन की बजाय व्यवस्था-परिवर्तन की जरूरत है. इस समग्र बदलाव के लिए लोकशक्ति का निर्माण चाहिए. बिना लोकशक्ति के राजशक्ति बेअसर साबित हो चुकी है. विचारधाराएँ निरर्थक बन गयी है. दल सत्ता की सीढ़ी भर रह गए हैं. लोकतंत्र का नया विमर्श चाहिए. सम्पूर्ण क्रान्ति चाहिए.


जे. पी. का यह निष्कर्ष १९६९ और १९७३ के बीच हुए सर्वोदय आत्म-मंथन के निष्कर्षों से अलग नहीं था. गान्धीमार्गी सहयात्रियों से उनका खुला संवाद चला. इसीलिए वह सम्पूर्ण क्रांति की तलाश में अकेले नहीं पड़े. अनगिनत नए-पुराने गान्धीमार्गी सडक से जेल तक उनके सहयात्री बने. उन्होंने माओवादियों से मुशहरी में १९६९-७० के डेढ़ बरस तक चले संवाद में भी आज़ादी के बाद की व्यवस्था का एक और स्वरुप देखा और ‘आमने-सामने’ पुस्तिका के जरिए नि:संकोच देश को भी बताया.

फिर १९७१ में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम की अंतर्कथा से साक्षात्कार हुआ. आतंरिक उपनिवेशवाद और राष्ट्र-विखंडन का रिश्ता पूरी भयावहता के साथ आँखों के आगे था. देश की कानून-व्यवस्था की दुर्दशा से चम्बल के बागियों के आत्मसमर्पण के बहाने आमना-सामना हुआ.


जब उन्होंने इन सवालों को राष्ट्रीय सहमति से सुलझाने के लिए १९७३ में सभी सांसदों को पत्र लिखकर जगाने की कोशिश की तो सभी आत्ममुग्ध और सत्तासाधना में लिप्त मिले. अधिकाँश ने कोई उत्तर ही नहीं दिया. इससे चिंतित होकर जे. पी. ने नागरिक शक्ति की रचना के लिए सरोकारी देशसेवकों को जोड़ना शुरू किया. इसी क्रम में ‘सिटीजन फॉर डेमोक्रेसी’ और ‘यूथ फॉर डेमोक्रेसी’ के लिए आवाहन किया. अंग्रेजी पत्रिका ‘एवरीमैंस’ जुलाई १९७३ से शुरू की.

जेपी – एक कालजयी लोकनायक


इसलिए जब गुजरात और बिहार की प्रताड़ित युवाशक्ति और बेचैन नागरिक शक्ति ने उन्हें फरवरी और अप्रैल ’७४ के बीच गुजरात और बिहार से पुकारा तो यह उनके लिए अप्रत्याशित नहीं था. उन्होंने खुद ही स्वीकारा कि ‘तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!’ लेकिन उन्होंने पूरी ज़िम्मेदारी से नयी पीढ़ी को समस्याओं के व्यवस्थागत कारणों को समझाया. समाधान भी बताया. इसमें उन्होंने एक शिक्षक का कौशल दिखाया. एक पितामह का अपनत्व जताया. सत्ता-प्रतिष्ठान जे. पी. को नहीं समझ पाया. लेकिन समूचे बिहार और फिर क्रमश: देशभर की छात्र-युवा जमातों को जे. पी. की निष्काम देश-चिंता और निर्मल चेष्टा को समझने में देर नहीं लगी. इसीलिए ५ जून ’७४ से आगे भारत के छात्रों-युवक-युवतियों के लिए जे. पी. अबूझ स्वप्नदर्शी नहीं रहे. अक्षय प्रेरणास्त्रोत और कालजयी लोकनायक बन गए.
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सम्पूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है!
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