बेटा तुम्हारे दादाजी ट्रेन में सफर करते थे…
दादाजी के ज़माने की ट्रेन
फाल्गुन का महीना था खेत में फसल लहलहा रही थी, और घरों में होली की तैयारी चल रही थी। पड़ोसियों को नए कपड़े लाते देख चार बरस का गुड्डू भी पिता विजय से जिद करने लगा।
पड़ोस के घर में पकवान की सुगंध सुनीता को उसकी गरीबी और बेबसी के ताने जैसी लग रही थी।
विजय ने जैसे-तैसे पांच सौ रुपये जुटाए और गुड्डू को साइकिल के डंडे व पत्नी सुनीता को कैरियर पर बैठाया।
शहर की साप्ताहिक बाजार में सस्ती खरीदारी करने निकल पड़ा। तीनों बेहद खुश थे।
साइकिल उनके लिए किसी लग्जरी कार से कम नहीं थी। विजय तेजी से पैडल घुमाकर पैदल चल रहे लोगों और रिक्शा-ठेलिया को पछाड़ रहा था। शहर पहुंचने ही वाले थे कि रेलवे फाटक बंद होने के कारण साइकिल रोकनी पड़ी, तीनों लोग फाटक खुलने का इंतजार करने लगे। इस बीच ट्रेन धड़धडाते हुए गुजरी। मासूम गुड्डू हैरत से देख रहा था, विजय और सुनीता अतीत में खो से गए थे। फाटक खुलने के साथ गाड़ियों के हार्न बजने लगे। विजय ने भी साइकिल बढ़ाई।
बेटे की जिज्ञासा शांत करने के इरादे से आह भरी और अनायास ही मुंह से निकल गया कि तुम्हारे दादाजी भी ट्रेन में सफर किया करते थे।
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पिता के इस वाक्य पर गुडडू ने सवाल दाग दिया कि क्या दादाजी बहुत अमीर थे। वह जानना चाहता था कि परिवार गरीब कैसे हो गया, जिस घर में दो वक्त का खाना नसीब नहीं है। मां के स्तन के अलावा ग्लास में दूध पीने की उसने कभी कल्पना नहीं की। उसके पुरखे हजारों रुपये का टिकट लेकर ट्रेन में सफर कैसे करते थे, क्या उन्होंने सैर सपाटे में सारी सम्पत्ति लुटाकर परिवार को कंगाल बना दिया? पुरखों के प्रति नफरत उसके चेहरे पर झलकते देख विजय ने सड़क किनारे स्थित मंदिर के बाहर लगे घने वृक्ष के पास साइकिल रोकी।
एक पत्थर पर बैठकर सुस्ताने के साथ मासूम बेटे की जिज्ञासा शांत करने लगा। सुनीता ने अतीत से बाहर आकर तथाकथित विकास और अपनी गरीबी को कोसते हुए मंदिर के भीतर कदम बढ़ाए इधर, विजय बता रहा था कि दादाजी के जमाने में ट्रेन कोयला और पानी से चलती थी फिर डीजल के इंजन से चलने वाली और उसके बाद विद्युतचालित ट्रेन आई। बेटा हमारे दादाजी कोई राजा-महाराजा या जमींदार नहीं, वो भी हमारी तरह किसान थे। फर्क ये है कि उस जमाने में गरीबों के लिए पैसेंजर ट्रेन होती थी। एक्सप्रेस ट्रेन में भी अमीरों के लिए तीन-चार एसी डिब्बे होते थे। मध्यम वर्ग के लिए स्लीपर और गरीबों के लिए लकड़ी की बेंच वाले सामान्य डिब्बे लगाए जाते थे।
उनका टिकट इतना होता था, कि हमारे जैसे लोग आसानी से टिकट लेकर यात्रा कर सकें। वक्त बदलने के साथ देश में विकास की ऐसी होड़ लगी कि ट्रेन गरीबों से छिन गई। बेटा अब ट्रेन में एसी डिब्बे ही नजर आते है। किसी किसी ट्रेन में दो-चार स्लीपर लगे होते है। बेटा पहले एक्सप्रेस के साथ कुछ सुपर फास्ट ट्रेन चलीं। उनका किराया कुछ अधिक था। फिर सरकार ने चुपके से अधिकांश ट्रेनों को सुपरफास्ट कह दिया, भले ही सभी स्टेशन पर रुकती हों।
बेटा तुम्हें राज की एक और बात बताऊं उस जमाने में पांच बरस के बच्चे का टिकट नहीं पड़ता था।
बारह-चौदह साल के बच्चे का आधा टिकट लेकर गरीब परिवार आसानी से सफर कर लेता था लेकिन अब देश विकास की तरफ दौड़ रहा है। ऐसे में हम गरीबों की हमसफर ये साइकिल ही है। होली की खरीदारी की खुशी पर विकास की इस कहानी का खासा असर था। मंदिर से बाजार तक तीनों खामोश थे। सोच रहे थे कि गरीब सिर्फ मतदान और श्रमदान के लिए ही हैं।