श्रावणी पर्व का निहितार्थ
श्रावण पूर्णिमा को श्रावणी ,सनातन पूर्णिमा और रक्षाबंधन के पावन पर्व के रूप में मनाया जाता है। श्रावणी द्विजत्व के ज्ञानदोष ,कर्मदोष के परिष्कार ,प्रायश्चित और नवीनीकरण का पर्व है। यह ऋषित्व वृद्धि के संकल्प का पर्व है। ज्ञान और कर्म के क्षेत्र में संकल्परत व्यक्ति सहज रूप से ही ज्ञानदोष और कर्मदोष के भागी हो जाते हैं। श्रावणी पर्व पर ब्राह्मणत्व ,पौरोहित्य तथा ऋषित्व कर्म में रत व्यक्ति दोषों से मुक्त होने के लिए प्रायश्चित स्वरूप शिखा सिंचन और यज्ञोपवीत परिवर्तन करते हुए ब्रह्मा ,वेद और ऋषियों की आराधना करते हैं। इसके उपरांत यजमानो को रक्षासूत्र बांधकर सनातन संस्कृति के अनुशासन में बांधते हैं और उनकी रक्षा का उत्तरदायित्व लेते हैं।
भारत में युगों से लोक और शास्त्र में देश के चार प्रमुख पर्व श्रावणी ,दशहरा ,दीवाली और होली क्रमशः चार वर्णो के त्यौहार के रूप में माने जाते हैं ,पर इनसभी पर्वों को सभी वर्णों के लोग मिलकर मनातें हैं।
ब्राह्मण कौन हैं ?
वेद और उपनिषद् में ब्राह्मणस्पति शब्द का उल्लेख किया गया है। ब्राह्मण का अर्थ है –वाणी और ब्राह्मणस्पति वाणी का स्वामी हुआ। ऋग्वेद में गणेश को ब्राह्मणस्पति कहा गया है –ज्येष्ठराजं ब्राह्मणं ब्राह्मणस्पति स्था। वाकपति अग्रपूजा का अधिकारी ब्राह्मण ही वाग्देवी का शुभ्र राजहंस है जिसके माध्यम से ज्ञान का विद्या का संवहन होता है। यह राजहंस नीर क्षीर विवेक की क्षमता से युक्त होता है। भागवत पुराण में ब्राह्मण के लिए कहा गया है —
ब्राह्मणस्य हि देहोयम क्षुद्रकामायनेष्यते
कृच्छाय तपसे चेह प्रेत्यानंत सुखाय च
अर्थात ब्राह्मण का शरीर संसार के भोग विलास जैसे क्षुद्र काम के लिए नहीं बनाया गया है। उसके दो आदर्श हैं -कठिन व्रतों तथा तपस्या का आचरण करना एवं मोक्ष प्राप्त करना। भारतीय संस्कृति के अतीत के उच्च नैतिक आचार विचार का माला जपने मात्र से सनातन धर्म को प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता है। अध्ययन और अध्यापन के बीच की दो आवश्यक श्रेणियां होती हैं –बोध और आचरण। सिद्धांतों का बोध या ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। ब्राह्मणत्व वही प्राप्त कर सकता है जो बोध के अनुसार आचरण भी बना सके। ब्राह्मणत्व में आचरणहीनता के कारण बोध ने संशय और सम्भ्रम ही उत्पन्न किया है।
श्रावणी के पर्व पर यह विचार करने की आवश्यकता है की जब धर्मसूत्र ,स्मृतियों के अनुशासन से समाज अनुप्राणित था और धर्म की प्रतिष्ठा वैयक्तिक ,सामाजिक ,प्रशासनिक आचार के नियम के रूप में थी तब तो शासक बदलते रहे ,वंश बदलते रहे ,नए सम्प्रदायों का उदय होता रहा ,राजनैतिक उथल पुथल मचता रहा ,विदेशी आक्रांताओं द्वारा भारी फेरबदल भी होता रहा पर देश की मूल सांस्कृतिक चेतना अक्षुण्य रही। अब क्या हो गया ?राजनैतिक ,सामाजिक उथल पुथल के साथ आचारो विचारों का स्खलन होने लगा। राक्षसी प्रवृत्तियों की कार्ययोजनाएं ही व्यक्ति ,समाज और राष्ट्र का धर्म बनता जा रहा है। ऐसे स्थिति में ब्राह्मणत्व को जागना होगा और समाज में व्याप्त धर्म ,जाति , वर्ण के संशयों को दूर करना होगा। आदि शंकराचार्य ने वेदोक्त धर्म दो प्रकार का बतलाया –प्रवृत्ति लक्षण और निवृत्ति लक्षण। जगत की स्थिति ,कारण और प्राणियों के साक्षात् अभ्युदय -उत्कर्ष और निःश्रेयस -मोक्ष का कारण धर्म कहलाता है। यह धर्म सनातन है।
सनातन क्या है ?
सनातन वह है जो युगों युगों से प्रत्येक काल की गति के साथ समन्वय करता हुआ चलता रहे। सनातन वह है जो प्रत्येक युग की सामाजिक संस्थाओं के कार्य व्यापार को सुचारु रूप से चलाने के लिए परंपरागत व्यवस्थाओं को बनाये रखता है। सामाजिक व्यवहार यदि गलत दिशा में चल रहे हों तो वह उनको परिष्कृत करता है ,सनातन वह है जो किसी भी संकट में अपने को सुरक्षित रख सके। सनातन वह है जो प्रत्येक युग के आधुनिकता बोध को आत्मसात करते हुए रूढ़ियों का परित्याग कर सके।
ऋग्वेद के ऋषियों ने उद्घोष किया था –अ ज्येष्ठास अकनिष्ठास एते /सं भ्रातरः वावृद्ध सौभाग्याय—अर्थात तुमसे न कोई बड़ा है न कोई छोटा है अतः तुम सब मिलकर सौभाग्य के लिए बढ़ो –यही ऋषियों का श्रावणी का सन्देश है।