क्या होता है घर में अपना घर तलाशना !

प्रोफ़ेसर रूप रेखा वर्मा , पूर्व कुलपति, लखनऊ विश्वविद्यालय

प्रो रूप रेखा वर्मा

दर्द की लकीर पे है घर मेरा

कभी आओ तो बताऊँ

    आज मेरी पीढ़ी के आसपास की कई पीढ़ियाँ देश में अपना देश तलाश रही हैं। आज हम अपने देश में अजनबी हैं और देश पराया सा लगता है। ये तकलीफ़ हमें अन्दर तक बेधती है, बेचैन करती है।

जिस उम्मीद भरे ख़ूबसूरत देश को हम अपनी रूह में बसाये हुये थे उसके निशान खोजती हुई ये पीढ़ियाँ जले हुये घरों की राख में अपनी अमानत के बचे खुचे अवशेष ढूँढ़ती मालूम देती हैं।

    पीछे मुड़ के देखूँ तो यादें जागने लगती हैं। शाम को अम्माँ अँगीठी पे खाना बना रही हैं और हम भाई बहन उन्हें घेरे बैठे हैं। वो विभाजन का दौर याद कर रही हैं। हिंसक पागलपन। डर से घिरी ज़िन्दगी। अगले पल का पता नहीं क्या होगा। भीड़ का दरवाज़ा तोड़ने की कोशिश। वग़ैरह। लेकिन यादों के इस सफ़र में हिन्दू या मुसलमान का कोई ज़िक़्र नहीं। डर और सिर्फ़ डर। और उस भयावह दौर के गुज़र जाने की सुखद निश्चिंतता। उनकी पीढ़ी ने दोनों तरफ़ इंसान को जानवर बनते देखा था। 

    डर की ये कहानी दिल में पैवस्त हो गयी। उसके साथ उसके ख़त्म हो जाने का सुकून भी। तब से, जवानी से गुज़रते हुये बुढ़ापे तक, ये बात मन पर हावी रही कि बस ये अब और नहीं होना है। इसे हर हालत में रोकना है। भय के उस आख्यान से उपजी सम्वेदना माँ बाप तक ही सीमित न रह सकी। फैलती गयी, सभी इंसानों के ऊपर। एक पर्त की तरह।

    सार्वभौमिक सम्वेदना का ये भी एक रास्ता है, सोच के बड़ा अजीब लगता है। 

    शायद ऐसे ही मनोभावों के कारण विभाजन के तुरन्त बाद के दशकों में उस तरह के नियोजित और संस्थागत नफ़रती धंधे नहीं पनप पाये जैसे आज देखने को मिल रहे हैं। 

    भावना आहत होने का खेल भी आज की तरह नहीं था। धर्म के मिथकों की आलोचना और हास परिहास पर नफ़रत की राजनीति नहीं थीं। लोग ज़लील करने को उतारू नहीं हो जाते थे। साथ में हँसते थे और वो परिहास अपने आप निर्दोष और बेअसर हो जाता था।

    तब धर्म इतना नाज़ुक नहीं था। तब धर्म अपने घोषित अर्थ में ज़्यादा मज़बूत था। ज़्यादा असली था। उसे अपने बन्दों से अपनी सुरक्षा की गुहार नहीं लगानी पड़ती थी। 

    एक पंडित जी घर में आते थे। पूजापाठ के लिये नहीं, मित्रवत। मुहल्ले में बच्चे उन्हें “चोर कन्हैया”  कह के चिढ़ाते थे। वो चिढ़ के ख़ूब बकते झकते भी थे। एक दिन चिढ़ाने वाली बालक सेना सड़क पर छोड़ कर घर आ गये। ख़ूब हँसे और बाँसुरी वाले कान्हा का पोज़ बना के खड़े हो गये। बोले, “जान के चिढ़ता हूँ। इसी बहाने बच्चे कन्हैया का नाम लेते रहें”। तब मैं बच्ची थी। बाद में हसरत मोहानी के बारे में पढ़ा कि वो एक बाँसुरी अपने साथ रखते थे। आज़ादी की लड़ाई में जेल गये। जेलर ने नियम के अनुसार सब सामान रखवा लिया तो अड़ गये कि बंसी तो न छोड़ूँगा। हुज्जत हुई। लेकिन बंसी रखने की अनुमति मिल गयी। मोहानी और हिन्दू पंडित जी दिमाग़ में गड्डमड्ड हो गये। 

    घर में साहित्य प्रेम का वातावरण था। तो ये घालमेल बढ़ता गया। बृज नारायण चकबस्त और आनंद नारायण मुल्ला के कलाम।  हिन्दू शायरों के लिखे हम्द और नात। नज़ीर बनारसी के घनश्याम। और,  देश का एक ख़ूबसूरत ख़ाका दिल में बस गया। 

    उसी ज़माने के एक शहज़ाद साहब याद आते हैं। स्कूल के रास्ते में  एक अहाता पड़ता था। वहाँ वो रोज़ खड़े मिलते थे। हम दो बहनों को देखते ही पिताजी का नाम ले के गालियाँ देना शुरू कर देते थे : फ़लाने की बेटी जा रही है ! चेहरे की मुस्कान  उनकी गालियों से बिल्कुल मेल नहीं खाती थी। लेकिन उस उम्र में गाली और मुस्कुराहट का एक साथ होने का मतलब तो समझ आता नहीं था। अलबत्ता स्कूल जाते वक़्त एक घबराहट दिल पे तारी रहती थी और मनाते जाते थे कि वो शख़्स न मिले। लेकिन हर रोज़ वो कासा बियांका की तरह अहाते के बाहर तैनात मिलते थे। एक बार घर आ गये। हमारी सिट्टी पिट्टी गुम। जब पिताजी ने उनकी लपक के आवभगत की और दोनों एक दूसरे को गालियों से नवाज़ने लगे तो हमारा कफ़्यूज़न हदें पार करने लगा। कुछ समय लगा मित्रता के इस पहलू को समझने में।

    जीवन और समाज को जब मैंने थोड़ा थोड़ा समझना शुरू किया था उस समय तमाम सामन्ती परम्परायें और ढाँचे मौजूद तो थे लेकिन उन्हें बदल डालने का संकल्प और उन्हें चुनौती देने वाली सोच भी अपनी जगह बना रही थी। देश की संवैधानिक संस्थाओं का रवैया इस बदलाव के ख़िलाफ़ नहीं था। बल्कि, इसकी हमदर्दी और मित्रता में साथ ही खड़ा लगता था। सामन्ती ढाँचों और पाखंड पर प्रहार शुरू हो गया था हालाँकि यथास्थितिवादी, ऊँचनीच के समाज को मानने वाले और स्त्रीविरोधी स्वर भी पैर जमाये खड़े थे। फिर भी, सामाजिक-बौद्धिक वातावरण आलोचनात्मक और प्रगतिशील विचारों से धनी हो रहा था। बदलाव की ये ख़ुशबू पसन्द करने वालों की तादाद बढ़ रही थी। हवा में उम्मीद थी, आगे बढ़ने का जज़्बा पनप रहा था और बेहतर समाज बनाने का हौसला जीवन को मकसद दे रहा था। एक चाहत, एक सपना तारी था। अन्त्योदय की धारणा  वृहत्तर समाज तक पहुँचने से पहले ही, सबसे निचले पायदान के इन्सान की चिन्ता, तमाम दोहरेपन के बावजूद, हमारे यूटोपिया में शामिल हो रही थी। 

    तमाम अनैतिक रिवाजों के बीच हम नैतिक ख़्वाबों की ज़मीन बना रहे थे। 

    हमने वो वक़्त देखा जब एक तरफ़ बहुत से हिन्दू घरों में मुसलमान और ईसाई जान-पहचानियों के लिये अलग बर्तन होते थे (जो बहुत बुरी बात थी) तो दूसरी ओर उनके घर खाना खा लेने से घर में कोई नाराज़गी नहीं होती थी। इस बात में अंतर्विरोध तो था। लेकिन इसमें नफ़रत की उस तरह की बदबू नहीं आती थी जैसी आज आती है। उस समय कुछ ऐसा रिश्ता था कि दो घरों के बच्चे एक दूसरे के घरों में ब-हक़ घुसपैठिये बन सकते थे। आस पड़ोस में हिन्दू घरों के बच्चे अपने मुसलमान दोस्तों के घर में ईदी लेने पहुँच जाते थे और मुसलमान बच्चे दीवाली पे हिन्दू दोस्तों के घर बच्चों को दी जाने वाली अठन्नी चवन्नी लेने पहुँच जाते थे। इस लेनदेन में कहीं कोई संकोच नहीं होता था। पूरी बच्चा पार्टी इधर से भी और उधर से भी वसूलने चली आती थी, ब-हक़ ! 

    हमारे शहर में एक जगह थी जिसे मिशन कम्पाउंड कहते थे। वहाँ ज़्यादातर ईसाई परिवार रहते थे। वहाँ  एक चर्च भी था। इस चर्च में किसी के भी आने की या इसके कम्पाउंड में टहलने की मनाही नहीं थी। वहाँ मेरी बड़ी बहन की इनी गिनी मित्रों में एक रहती थीं। कभी कभी देर शाम मेरी बड़ी बहन हम दो छोटी बहनों को  साथ ले कर वहाँ टहलने जाती थीं। अगर वो समय धार्मिक सर्विस का होता था तो बाहर कुछ दूरी से ही ईशगान की आवाज़ आती थी। सुर इतने सुरीले समवेत होते थे कि कानों में देर तक गूँजते रहते थे।

    यहाँ के एक परिवार की लड़की स्कूल में मेरी ही क्लास में होने के नाते अच्छी दोस्त थी। कभी हम दो छोटी बहनें उनके घर पूरा दिन बिता देते थे तो कभी वो अपनी दो अन्य बहनों के साथ हमारे घर पूरी दोपहर रहती थी। जहाँ दोपहर बीतती थी, वहाँ खाने की माँग बिना संकोच की जाती थी। 

    हमारे और उनके परिवारों में  इन रोज़मर्रा के रिश्तों में धर्म का कोई मुद्दा ही नहीं था। फ़र्क़ दिखता था। उसकी बात भी होती थी। लेकिन उस फ़र्क़ से हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। “धार्मिक सद्भावना” की पैरवी की ज़रुरत ही नहीं पड़ी। 

    ये उस समय की बात है जब वहाँ आर्यसमाज में बाहर से आये प्रवचक दूसरे धर्मों के ख़िलाफ़ भाषण देते  रहते थे और सुनने के लिये अच्छी ख़ासी भीड़ भी रहती थी। पता नहीं क्या बात थी कि इसके बावजूद हम एक दूसरे के लिये पराये न हो पाये।

ऐसा नहीं कि उस समय हम बिल्कुल मखमली सतह पे जी रहे थे। धार्मिक उन्माद की खबरें मिलती थीं। एक धर्म का सब अच्छा और दूसरे का सब  बुरा, ऐसे बड़ बोल भी मिलते थे। परन्तु इन बातों को आम स्वीकृति नहीं मिली थी। आम नागरिक नफ़रत पे गर्व करना, धर्म आधारित हिंसा, धमकी और बदतमीज़ी बुरी बात मानते थे। 

    नफ़रत और झूठ के ख़िलाफ़ इस सर्वजनिक सहमति में कोई दोहरापन रहा हो तो भी ये अमन की रक्षा के लिये कुछ हद तक कारगर था। सार्वजनिक सहमति या कॉन्सेंसस समाज के विभाजन और लोकतांत्रिक मूल्यों पर प्रहार को कुछ सीमा तक क़ाबू में रखने में समर्थ होती है। क्योंकि इसकी वजह से सत्ता के ऊपर शर्म का एक पर्दा बना रहता है। इस पर्दे के कारण, चाहे वो झीना ही क्यों न हो, सरकार, प्रशासन, अन्य संवैधानिक संस्थाओं और न्याय व्यवस्था पर एक दबाव बना रहता है और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ लड़ने के रास्ते हमारे लिये बने रहते हैं।

https://www.jansatta.com/jansatta-special/who-is-roop-rekha-verma-who-repeatedly-protests/2337533/

    1980 के दशक से इस परदे में छेद होने शुरू हुये और शती बदलने के क़रीब डेढ़ दशक बाद इसे रेशा रेशा कर दिया गया है। पूर्व नियोजित हिंसा और धाकड़ बेशर्मी 2002 में गुजरात से शुरू हो गयी थी। अब पूरे देश में है। 

    इस दौर में हमने देश के अमन और पारस्परिक सम्वेदनाओं को नियोजित ढंग से घायल किये जाते देखा। और देखा : अल्पसंख्यकों को सिकुड़ते हुये, अमन पसन्द देशप्रेमियों को दंगाइयों के निशाने पे आते हुये और बेइज़्ज़त होते हुये, संवैधानिक मूल्यों और शालीन भाषा को कमज़ोर होते हुये और शालीनता को दबंगों-अपराधियों की ठोकर खाते हुये। 

    1980 के दशक से शुरू हुई अनैतिक और साम्प्रदायिक राजनीति ने देश के साथ क्या किया? देश को विकृत और विभाजित करके देशद्रोह किया। आगे बढ़ता समाज मध्ययुग में लौट गया। सड़ी गली परंपराओं और विवेकहीन पाखंड का सर्वनाशी बोलबाला दोबारा क़ायम हो गया। अस्मिता या पहचान का सवाल जीवन के ज़्यादा ज़रूरी सवालों पर हावी हो गया। जो इस बदलाव के ख़िलाफ़ बोले वो राज्यशक्ति द्वारा सताये गये। उनका उपहास उड़ाया गया। कुल मिला कर, हम सभी अँधेरे कुयें में डाल दिये गये।

    पहचान की इस अश्लील राजनीति ने साधारण लोगों के जीवन पे अजीब सा असर डाला।  लुप्तप्रायः बुरके वापिस आने लगे, माँग का सिन्दूर माथे से उतर के नाक तक आ पहुँचा। कर्मकांड हज़ार गुना ज़्यादा बढ़ गया। बाबा-साधू होना कमाई का बहुत बड़ा धंधा बन गया। हताश जनता अपने समाधान के लिये राज्य से निराश हो कर इन बाबाओं की दुकानों पे जाने को मजबूर हो गये और बहुत से लोग इनके अनैतिक जाल में फँस के बर्बाद हो गये। इनमें ज़्यादा बड़ा नम्बर महिलाओं का रहा। 

    धर्म बंदूक बन गया। घर घर में इन सरोकारों को लेकर वैमनस्य फैलने लगा। मुझे कई रिश्तेदारों से लानतें मिलीं। पता लगा कि ये हर धर्म के कुछ विवेकपूर्ण लोगों के साथ हो रहा है। वो मुसलमान जिनके ज़्यादातर दोस्त हिन्दू थे अचानक तनहा हो गये। 

कैसे बदला दोस्तों का नजरिया

    मेरी एक मुस्लिम प्रोफ़ेसर दोस्त यूनिवर्सिटी में मेरे पास आयीं। मैंने देखा, उनकी आँखों में कोर तक पानी था। हम कुछ देर चुप बैठे रहे। संयत होने पर उन्होंने बताया कि उनकी तक़रीबन सभी दोस्त हिन्दू थीं। और, अब वो मिलने पे सबसे पहले एक ही सवाल पूछती हैं :  ‘तुम लोग बाबरी मस्जिद दे क्यों नहीं देते?’ एक अच्छी तरक़्क़ीपसन्द दोस्त की पहचान कब “लोग” में बिला गयी, ये उनका गहरा दुख था। इसके बाद वो अपने में सिमटती गयीं। वो अकेली नहीं थीं ये चोट खाने में। अघोषित बहिष्कार की यातना और ज़िल्लत लाखों अल्पसंख्यकों और साझी विरासत के पैरोकारों ने झेली है और आज और भी पैने रूप में झेल रहे हैं।

 तब से अब तक बहुत से युवाओं, बुज़ुर्गों ने अचानक पराये और बहिष्कृत हो जाने का दर्द मेरे साथ बाँटा है। लेकिन में भी चारागर नहीं। मैं भी उसी बीमारी के मरीज़ हूँ। आज यही हमारी शिनाख़्त है। 

    अहम सवाल ये है कि इस पहचान का हम जैसे लोग क्या करें।

    मुझे लगता है कि ये शिनाख़्त ही हमारी ताक़त है। वो तमाम युवा, वृद्ध, मेहनतकश लोग जो इतने ख़ौफ़नाक दौर में भी तानाशाही के मुक़ाबिल मुट्ठी बाँधे खड़े रहे, हमारे रास्ते में रौशनी की शहतीर हैं। उन समुदायों का सब्र हमारे साथ है जो नेक इरादों के बावजूद सूली पे चढ़ाये जाते रहे। भगत सिंह, मोहानी, अहमदुल्ला शाह, गाँधी, नेहरू का देश यूँ खो थोड़े ही जायेगा. 

“कथादेश”से साभार 


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