गांधी और सावरकर का रिश्ता : क्या सावरकर ने गांधी की सलाह पर अंग्रेजों से माफी मांगी थी?
साथ में गांधी हत्या के अनजाने तथ्यों पर तुषार गांधी के साथ रामदत्त त्रिपाठी की चर्चा

क्या सावरकर ने गांधी की सलाह पर अंग्रेजों से माफी मांगी थी? पिछले दिनों जब राजनाथ सिंह का यह बयान सामने आया तो एक बात तो साफ हो गई कि सावरकर और गांधीजी के बीच कोई रिश्ता तो था. यकीनन वह रिश्ता बेहतर तो नहीं था. इसके बाद दो दिन पहले जब अभिनेत्री कंगना रनौत अपने अंडमान दौरे पर उस काल कोठरी में जा पहुंची और वहां बैठकर ध्यान लगाया, जहां सावरकर नजरबंद थे, तो एक बार फिर नई पीढ़ी सावरकर के व्यक्तित्व को लेकर संशय में आ गई. वह यह समझ ही नहीं पा रही कि वह सावरकर को वीर माने या फिर गांधीजी की हत्या का साजिशकर्ता. इसके अलावा एक और सवाल जो हमारे अंदर कौंध रहा है कि क्या सावरकर ने गांधी की सलाह पर अंग्रेजों से माफी मांगी थी? इसी मुद्दे पर महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी से कई सवाल जवाब किए बीबीसी के पूर्व संवाददाता रामदत्त त्रिपाठी ने.
मीडिया स्वराज डेस्क
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या बीसवीं सदी की सर्वाधिक लोमहर्षक घटनाओं में से एक है. यह गांधी और बुद्ध के देश भारत में नहीं होना चाहिए था कि महात्मा गांधी जैसे जननायक की खुलेआम हत्या पर कुत्सित विचारधारा का पर्दा डालने की कोशिशें हुईं और यह आज तक समझाया जा रहा है कि गांधी की हत्या जायज थी और उनकी जघन्य हत्या करने के बाद उनका हत्यारा देशभक्त था.
अदालत से बरी होने के बावजूद अनेक लोगों का दावा है कि बीसवीं सदी के इस सबसे चर्चित हत्याकांड के तार सावरकर से भी जुड़ते हैं, जिन्होंने सेल्यूलर जेल, अंडमान की यातनाओं के सामने घुटने टेककर एक बार नहीं, अनेक बार अंग्रेजों से लिखित क्षमायाचना की. न सिर्फ क्षमायाचना की, बल्कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने और अंग्रेजों के प्रति वफादार रहने की शर्त पर 60 रुपये मासिक की पेंशन भी ली, जो उस समय किसी कलक्टर के वेतन से भी अधिक धनराशि थी.
सावरकर गांधीजी की हत्या के आरोपी भी थे, लेकिन उपलब्ध साक्ष्यों में तकनीकी दोषों के चलते अदालत ने उन्हें संदेह का लाभ दिया. यद्यपि बाद में गठित कपूर आयोग ने उन्हें गांधी की हत्या का दोषी माना, लेकिन तब तक सावरकर की मृत्यु हो चुकी थी. संदिग्ध सावरकर को वीर कहकर उनका महिमामंडन करने वाले आज सत्ता में हैं. हालिया विवाद केन्द्रीय काबीना मंत्री राजनाथ सिंह के उस बयान से पैदा हुआ, जिसमें उन्होंने सावरकर द्वारा अंग्रेजों से माफी मांगने की बात पहली बार सार्वजनिक तौर पर यह कहते हुए स्वीकार की कि उन्होंने ऐसा गांधीजी के कहने पर किया था. इस बयान ने हलचल पैदा कर दी. इस साक्षात्कार में महात्मा गांधी के पड़पोते तुषार गांधी के साथ बातचीत में इस पूरे प्रकरण की पड़ताल करने और इतिहास का सच तलाशने की कोशिश की गयी है. सवाल बीबीसी के पूर्व वरिष्ठ संवाददाता रामदत्त त्रिपाठी के हैं. यह इंटरव्यू यूट्यूब पर पहले प्रसारित हो चुका है।
सवाल : महात्मा गांधी और वीर सावरकर, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और भारतीय राजनीति के दो ऐसे महापुरुष हैं, जो दो छोर पर खड़े हैं और हमेशा उनकी चर्चा किसी न किसी बहाने होती रहती है. अब भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने एक नया प्रसंग छेड़ दिया है कि सावरकर ने महात्मा गांधी के कहने पर अपना माफीनामा भेजा था. आज मैं देख रहा हूं कि पूरे सोशल मीडिया पर ये विषय छाया हुआ है. राजनाथ सिंह की छवि तो एक सोवर नेता की है और वे जो भी बोलते हैं, सोच-समझ कर बोलते हैं. सावरकर को महात्मा गांधी ने सलाह दी थी, क्या वे सावरकर के वकील थे?
जवाब : मुझे तो पहली दफा यह जानकारी मिली है. मुझे भी उतना ही ताज्जुब हो रहा है, जितना और लोगों को हो रहा है कि ये बात कहां से आयी. मैं दो चीजों की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करूंगा. एक तो यह कि बहुत सोच-विचार करके ये कैम्पेन चलाया जा रहा है. असत्य को सत्य ठहरा देने का जो कैम्पेन है, यह उसी श्रृंखला की एक कड़ी है. उन्होंने बापू की हत्या का कैम्पेन चलाया, बापू की हत्या को सही साबित करने के लिए कई झूठे इल्जाम भी लगाये. यह हमारा दुर्भाग्य है कि आज ऐसी दो-तीन पीढ़ियां हिन्दुस्तान में जी रही हैं, जो ऐसे असत्यों को सत्य मानने लगी हैं, क्योंकि हमने उन असत्यों का खंडन नहीं किया. अब जाकर बापू के पूरे चरित्र पर ही असत्य का एक पर्दा डालने की कोशिश की जा रही है. उसी श्रृंखला में यह कैम्पेन भी किया जा रहा है. यह बहुत सूझबूझ के साथ किया जा रहा है, इसमें कोई गलती नहीं की जा रही है. राजनाथ सिंह भी उसमें शामिल हैं, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि वे भी उसी विचारधारा से आते हैं. यह विचारधारा बापू के खून के बारे में आज तक दुष्प्रचार करती आयी है. अब रही बात कि बापू की सलाह पर सावरकर ने माफी मांगी, तो सावरकर ने सबसे पहले 1911 में अंग्रेज सरकार को माफीनामा भेजा. वहां से उनकी यह श्रृंखला चलती रही. राजनाथ सिंह के बयान से यह जरूर पता चलता है कि सावरकर को माफी मांगने की आदत थी. एक बार नहीं, दो बार नहीं, वे बार बार अंग्रेज सरकार से क्षमा याचना करते रहे और अपनी रिहाई के लिए दया की भीख मांगते रहे. राजनाथ सिंह जैसे प्रतिष्ठित नेता और मंत्री अगर ये कहते हैं, तो हमें मान लेना चाहिए, इसके लिए हम उन्हें शुक्रिया अदा करते हैं. आखिर उन्होंने इतिहास के सच को कबूला.
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सवाल : जब गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में थे, तब क्या सावरकर से उनका कोई पत्र व्यवहार हुआ है?
जवाब : नहीं, इसका कोई रेकार्ड कलेक्टेड वर्क्स में तो दिखता नहीं है. पहला खत, जिसमें सावरकर का बापू ने जिक्र किया है, वह कलेक्टेड वर्क्स में दर्ज है. वह 1925 का खत है. उसके पहले के किसी पत्र का कहीं जिक्र नहीं है. इंग्लैंड में सावरकर की एक सभा में बापू उनसे जरूर मिले थे, उनकी बातचीत भी हुई थी.
सवाल : वह प्रसंग थोड़ा बतायेंगे? मेरे खयाल में शायद 1909 में हिन्द स्वराज लिखने से पहले जब वे दक्षिण अफ्रीका से ही लंदन गये थे, वहां एक सोशल प्रोग्राम था और उसमें खाने पीने को लेकर भी कुछ बात हुई थी, क्योंकि गांधी जी तो पूरी तरह से शाकाहारी थे. कुछ याद दिलायेंगे, मैं थोड़ा भूल रहा हूं.
जवाब : वह प्रसंग बहुत चर्चित था. बापू दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के मूल अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ रहे थे, तो उन्हें लग रहा था कि दक्षिण अफ्रीका की सरकार के ऊपर दबाव डालने के लिए इंग्लैंड की पार्लियामेंट का सपोर्ट बहुत जरूरी था, इसलिए वे वहां गये थे. वहां उन्होंने बहुत लोगों से मुलाकात की थी. उसी दरम्यान वहां के जो क्रांतिकारी घटक थे, उनसे भी उनकी मुलाकात हुई थी. उसके बारे में भी दस्तावेज है, बापू ने अपने एक पत्र में जिक्र किया है. बापू की ऐसी फितरत थी कि जो चीज उन्हें पसंद न आये या जिस चीज के बारे में उन्हें कहने की जरूरत लगती थी, तो वे बेहिचक कह देते थे. जब वहां हमारे हिन्दुस्तानियों का ठाट बाट और साहबी प्रवृत्ति उन्होंने देखी तो कहा कि यह ठीक नहीं है, हमें भी संयम बरतना जरूरी है, लेकिन उस वक्त उनकी बातों को उतनी प्रखरता से मान्य किया जाय, ऐसा नहीं था. शायद तब लोगों को यह लगा होगा कि यह व्यक्ति बड़बोला है, जहां जरूरत नहीं, वहां भी बोल देता है.
सवाल : गांधीजी का वह दौर था, जब वे दक्षिण अफ्रीका में बैरिस्टर के रूप में जाने जाते थे, तब मेरे खयाल से कानून के अनुसार जो समानता का अधिकार है, ब्रिटिश सरकार से उसकी मांग वे करते थे.
जवाब : बिल्कुल, वे अपनी वफादारी भी साबित करते रहे कि हम ब्रिटिश सल्तनत के वफादार नागरिक हैं. ब्रिटिश सल्तनत जिस तरह से बाकी सारे नागरिकों के साथ सलूक करती है, वही सलूक हमारे साथ भी करे. सबसे पहले जब जुलू विद्रोह हुआ, तो उसमें जिस बर्बरता से सोल्जर्स पेश आये और उन्होंने जो अमानवीय व्यवहार वहां के लोगों के साथ किया, उन्हें लगा कि मैं ब्रिटिशों के साथ जो व्यवहार करता हूं, उसमें कोई खोट तो नहीं है. उससे यही बात जलियांवाला बाग कांड में साबित हो गयी. तब बापू ने कहा कि यह निष्ठुर और बिल्कुल निर्दयी सल्तनत है, इसके साथ हम कोई निष्ठा नहीं कर सकते.
सावरकर की गिरफ्तारी
सवाल : आप ने जो रिसर्च किया है, उसके अनुसार सावरकर की गिरफ्तारी पर कुछ रोशनी डालेंगे? फ्रांस से जब वे वापस लौट रहे थे, तो लंदन में क्यों गिरफ्तार हुए?
जवाब : हां उस वक्त जब सावरकर को शंका हुई तो वे फ्रांस चले गये थे. फ्रांस में ही रह रहे थे. लेकिन किसी सहेली से मिलने के लिए जब उनसे नहीं रहा गया, तो चोरी छुपे लंदन वापस आये. उन्हें पता नहीं था कि वह मुलाकात उन्हें गिरफ्तार करने के लिए ही आयोजित की गयी थी. वे वहां गिरफ्तार हो गये. तभी भारतीय सरकार ने सावरकर के भारत आने पर प्रतिबंध लगा दिया. उसके बाद जो कोलोनियल एडमिनिस्ट्रेशन था, उसने तय किया कि उन्हें वापस भारत लाकर उनके ऊपर ट्रायल करेंगे. भारत से पुलिस भेजी गयी उन्हें लाने के लिए. समुद्र मार्ग से आते हुए तूफान आने के कारण जहाज फ्रांस में डायवर्ट किया गया और सुरक्षा के लिए वहां के पोर्ट में रुका. सावरकर छलांग लगाकर उस जहाज से भागे, लेकिन उन्हें पकड़ लिया गया और भारत लाया गया. कालापानी से पहले के सावरकर का जो किरदार था, वह एक क्रांतिकारी का किरदार था, यह भी हमें मानना चाहिए.
सवाल : क्रांतिकारी थे, लेकिन मैं जरा स्पष्ट कर दूं, क्योंकि क्रांतिकारी तो महात्मा गांधी भी थे. क्रांतिकारियों का वह गुट, जो हिंसा में विश्वास करता था, सावरकर वैसे क्रांतिकारी थे.
जवाब : जी, हमें यह भी समझना जरूरी है कि सावरकर ने कभी हिंसा में भाग नहीं लिया. उनके ऊपर जो इल्जाम था, वह यही था कि उन्होंने हिंसात्मक क्रांति की प्रेरणा दी थी. शायद उन्होंने इंग्लैंड से क्रांतिकारियों के लिए बंदूकें भिजवायी थीं, भगत सिंह की तरह कोई क्रांतिकारी कार्य सावरकर ने नहीं किया. ऐसे काम वे स्वयं न करके इसके लिए दूसरों को प्रेरित करते थे.
सवाल : हिन्द स्वराज पुस्तक में बापू ने जिक्र किया है कि हिन्दुस्तान में जो कट्टरपंथी लोग हैं, उनसे हिन्दुस्तान का भला नहीं होगा, ऐसा उन्हें लगा था. क्या उनकी यही भावना थी?
जवाब : बिल्कुल. देखिये हिन्द स्वराज बापू के लिए भगवद गीता जैसा है. उसमें बापू का जो संवाद हो रहा था, वह एनारकिस्ट के साथ हो रहा था. एनारकिस्ट के साथ डायलॉग को उन्होंने हिन्द स्वराज्य के रूप में पेश किया था. मुमकिन है कि लंदन में जो उनको अनुभव हुआ, उससे ही प्रेरित होकर हिन्द स्वराज्य का उद्भव हुआ. लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटने का अपना सारा समय उन्होंने हिन्द स्वराज्य लिखने में बिता दिया.
सवाल : एक किताब आयी है, कैम्ब्रिज टेक्स्ट एंड मॉर्डर्न पॉलिटिक्स. उसमें उस समय की परिस्थिति का, गांधी जी के चिन्तन का, सबका उल्लेख है, उस समय का सारा परिदृश्य भी है. इस बारे में कुछ बताइये.
जवाब : देखिये, हिन्द स्वराज्य को पढ़ने से मुझे ऐसा लगता है कि आज के जमाने के जो लोग हैं, वे शायद उसे समझ न पायें. इसलिए यह समझना बहुत जरूरी है कि इसका कंटेंट क्या था. किन हालातों में, किन परिस्थितियों से प्रेरित होकर बापू ने, जो उनकी कल्पना थी, उसे हिन्द स्वराज्य में अंकित किया.
सवाल : सावरकर के साथ एक और प्रसंग जुड़ा है. कहते हैं कि अंग्रेजों ने जब सावरकर को जेल से रिहा किया, तो वे पुणे में रह रहे थे. रहने का बंदोबस्त तो अंग्रेज सरकार ने किया ही, कहते हैं कि उनको 60 रुपये महीने की पेंशन भी दी, जो उस समय के कलेक्टर की तनख्वाह से ज्यादा थी. ऐसी कौन सी सेवा कर रहे थे सावरकर, जिसके लिए कलेक्टर की तनख्वाह से ज्यादा उन्हें अंग्रेज सरकार पेंशन दे रही थी?
अंग्रेजों की पेंशन
जवाब : यह भी, सावरकर की रिहाई के लिए जो क्षमा याचना की शर्त थी, उससे जुड़ी हुई बात है. अंग्रेजों ने उनको बहुत ही उदारता पूर्वक 60 रुपये की पेंशन दी. इससे वे संतुष्ट नहीं थे. वे रत्नागिरी में रखे गये थे, वे रत्नागिरी से बाहर नहीं जा सकते थे. कई बार उन्होंने रत्नागिरी निवास से अंग्रेज सरकार से अपील की थी कि अब 60 रुपये में मेरा निर्वाह नहीं हो रहा है, हमारी पेंशन बढ़ा दीजिए. वे इससे संतुष्ट नहीं थे. जैसे कोई वेतनभोगी अपने वेतन के लिए नेगोसिएशन करता है, उसी प्रकार उन्होंने किया.
सवाल : अभी सोशल मीडिया में चल रहा है कि सावरकर गांधी, कांग्रेस और मुसलमानों का हमेशा विरोध करते रहेंगे, 60 रुपये की पेंशन इस शर्त पर तय हुई थी. क्या ऐसा कोई समझौता हुआ था?
जवाब : यह एक अनैतिक समझौता था और अनैतिक समझौतों का कोई दस्तावेज नहीं होता. अंग्रेजों ने उनसे कहा था कि तुम कांग्रेस, गांधी और मुसलमानों से द्वेष करो, इसके लिए तुम्हें पैसे दिये जायेंगे. मुझे लगता है कि यह उनकी फितरत थी. सावरकर को गांधी खटकते थे, इसलिए तो कांग्रेस भी खटकने लगी थी. मुसलमानों के प्रति द्वेष तो उनको बचपन से ही था.
गांधी हत्या का पहला प्रयास पुणे में 1934 में
सवाल : महात्मा गांधी की हत्या के छह सात प्रयास हुए, उसमें से एक प्रयास पुणे में भी हुआ था. इस बारे में जरा विस्तार से बतायें.
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जवाब : 1934 से यह श्रृंखला शुरू हुई. आप महादेव देसाई और प्यारे लाल की जीवनी पढ़ें, तो उन्होंने लिखा है कि इस बार का प्रयास गहरी साजिश के साथ किया गया था. इसका मतलब यह होता है कि इसके पहले भी कई प्रयास किये गये थे. 1934 से जो प्रयास हुए, हम उस बारे में बोल सकते हैं. पहला प्रयास पुणे में किया गया था, जब बापू की गाड़ी पर गोला फेंका गया था. पुणे सम्मेलन में बापू को सम्मानित करने के लिए एक बैठक बुलाई गयी थी, बापू वहीं जा रहे थे. जब वे टाउन हाल पर पहुंचे, तो उनके स्वागत में बैंड ने गाना बजाना शुरू किया. उसी समय ऊपर से एक हथगोला फेंका गया, यह हथगोला बापू की गाड़ी के शीशे पर जाकर गिरा. बापू की खुशनसीबी यह थी कि वे उस गाड़ी में नहीं, उसके पीछे वाली गाड़ी में ट्रेवल कर रहे थे. इसलिए वे बच गये थे, इस हमले में जो पुलिसकर्मी बापू के स्वागत के लिए बाहर खड़े हुए थे, वे जख्मी हुए थे.
सवाल : यह प्रयास किसने किया था, इस बारे में कुछ बतायेंगे?
जवाब : इसका इन्वेस्टिगेशन उस वक्त हुआ नहीं था. अंग्रेजों के लिए तो यह बहुत माकूल बात थी. क्योंकि गांधी नाम का जो कांटा उन्हें चुभ रहा था, उसे हटाने का यह प्रयास था, इसलिए तहकीकात नहीं हुई और यह कहा गया कि जिस व्यक्ति ने वारदात को अंजाम दिया, वह भाग गया. बाद में जब इनवेस्टिगेशन हुआ तो पता चला कि जिन हथगोलों का प्रयोग किया गया था, उन्हीं हथगोलों का प्रयोग आप्टे और गोडसे ने बाद के कई हमलों में किया.
सवाल : गोडसे का खुलासा कब हुआ था? पहला खुलासा सेवाग्राम में ही हुआ था या उससे पहले भी हुआ था?
जवाब : पंचगनी में हुआ था. जब नाथूराम गोडसे को बापू की तरफ हाथ में छुरा उठाये भागते हुए पकड़ा गया था और छुरा उसके हाथ से छीन लिया गया था. सतारा के भिलारे गुरु जी एक पहलवान थे, जो बापू की सेवा के लिए सेवादल के वालंटियर थे. उनके मुंह से मैंने यह बात सुनी थी कि प्रार्थना सभा में गोडसे छुरा लेकर बापू की तरफ भागा था, भिलारे गुरु जी ने उसे गिराके उसके हाथ से छुरा छीन लिया था. यह पहला प्रमाण था. इसके बाद इस घटना का दूसरा प्रमाण पुणे के एक अंग्रेज एडिटर ने दिया था. आप्टे और गोडसे, सावरकर द्वारा फंड किया हुआ एक अखबार निकाल रहे थे, जो बाद में हिन्दू राष्ट्र के नाम से प्रकाशित हुआ, तो उनकी पहचान जनरलिस्ट के रूप में थी. पंचगनी के लिए रवाना होने के पहले आप्टे और नाथूराम ने कहा था कि कुछ ही दिनों में पंचगनी से एक बड़ी खबर आयेगी, जिसका कारण वे लोग होंगे. इसके बाद बापू के ऊपर सेवाग्राम में अटैक किया गया. बम्बई से पुणे जाने वाली ट्रेन को पलटने की कोशिश का पर्दाफाश हुआ. उसका जिक्र बापू ने पुणे में किया कि मुझे मारने वालों को यह जान लेना चाहिए कि मैं 125 साल जीने वाला हूं. नाथूराम ने हिन्दू महासभा के एक कार्यक्रम में स्टेज से यह ऐलान किया था कि गांधी कहते हैं कि वे 125 साल जीयेंगे, लेकिन उन्हें जीने देगा कौन. इस बात का कई लोगों ने प्रशासन से जिक्र किया था. इस तरह से एक पूरी श्रृंखला चलती रही.
दशहरे के कार्टून में गांधी को रावण बताया
सवाल : दशहरे के समय एक बार इन लोगों ने कोई कार्टून छापा था, जिसमें गांधी को रावण की तरह दिखाया गया था, यह क्या था?
जवाब : वह एक कार्टून है, जिसमें बीच का सिर और पूरा शरीर बापू का है, और बाकी के दस सिर कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं के हैं. जो राम की तरह बाण मार रहे थे, वहां श्यामा प्रसाद और सावरकर को दिखाया गया था. ऐसे कार्टून सोशल मीडिया पर भी बहुत चलते हैं. उसका वेरीफिकेशन हुआ है कि नहीं, मैं नहीं जानता हूं.

सवाल : क्या आपने कोशिश की उस कार्टून के बारे में वेरीफिकेशन के लिए, जिसमें सावरकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी बाण चला रहे हैं और गांधी जी को रावण की तरह दिखाया गया है?
जवाब : मेरी इच्छा थी कि उस कार्टून का उपयोग अपनी हालिया प्रकाशित किताबों में करूं. मैंने वेरीफिकेशन की काफी कोशिश की, लेकिन नाकामयाब रहा. मेरी अभी भी कोशिश है कि उसे प्रामाणित किया जा सके. इस तरह हिन्दू महासभा का पूरा विचार और सावरकर ही इस हत्या की प्रेरणामूर्ति थे और उन्हीं की प्रेरणा से गांधी जी की हत्या की गयी थी.
सवाल : गांधीजी की हत्या में हिन्दू महासभा और सावरकर ही शामिल थे या आरएसएस के लोग भी शामिल थे या और भी कोई था?
जवाब : आरएसएस में मेम्बरशिप का कोई सबूत नहीं मिल सकता है. यह कोई रजिस्टर्ड बॉडी नहीं है, इसलिए प्रमाण मिलना बहुत मुश्किल है. आरएसएस ने जो काम करवाया, उसमें उनका नाम न आये, इसकी उन्होंने हमेशा अच्छी कोशिश की है.
सवाल : बापू की हत्या का सावरकर पर मुकदमा चला था, लेकिन उनको संदेह का लाभ मिला था और उनको सजा नहीं हुई. बाद में कपूर कमीशन ने उनका इनवाल्वमेंट कैसे माना था?
जवाब : देखिये कोर्ट में यह जो पूरा केस था, उसमें सबसे कमजोर सबूत पेश किया गया.
सवाल : गोडसे को जो रिवाल्वर मिली थी, वह कहां से मिली? वैसे तो कहा जाता है कि ग्वालियर से मंगायी गयी थी. इस बारे में आप कुछ खुलासा करेंगे?
गोडसे को गांधी हत्या के लिए बंदूक़ कैसे मिली
जवाब : सावरकर के एक परम भक्त थे परचुरे, ग्वालियर में हिन्दू महासभा के संस्थापक और संचालक थे, वे कट्टर सावरकरवादी थे. उन्हीं की ओर से गन प्राप्त करायी गयी थी. रिवाल्वर नहीं थी, गन थी, उस समय की सबसे अच्छी ऑटोमेटिक गन थी. उस बंदूक की हिस्ट्री बहुत दिलचस्प है, क्योंकि वह ग्वालियर के दरबार से परचुरे तक पहुंची थी. अगर इस बंदूक का इनवेस्टिगेशन किया जाता तो इसका ताना बाना न सिर्फ ग्वालियर के दरबार तक पहुंचता, बल्कि सावरकर तक भी पहुंचता. 28 तारीख तक नाथूराम के पास कोई हथियार नहीं था, और 28 तारीख को ग्वालियर से नाथूराम तक हथियार पहुंच जाता है. नाथूराम बम्बई से दिल्ली गये और दिल्ली से ग्वालियर गये. वहां से बंदूक प्राप्त करके ग्वालियर से दिल्ली आये और दूसरे दिन बापू की उसी बंदूक से हत्या कर दी. यह जानना बहुत जरूरी है कि अगर इनवेस्टिगेशन ठीक से हुआ होता तो बहुत कुछ सामने आता. यह अलग बात है कि सावरकर सबूत के अभाव में बरी हो गये, पर जिसने बंदूक उपलब्ध करवायी, बाद में वह परचुरे भी छूट गया, क्योंकि जो साक्ष्य था, उसमें टेक्निकल फाल्ट था. परचुरे को अरेस्ट करने से पहले पुलिस ने जरूरी एक्सरसाइज नहीं किया. वह ब्रिटिश इंडिया का नागरिक था, इसलिए उसको हिन्दुस्तान में अरेस्ट करने से पहले जो टेक्निकल प्रॉसेस करनी चाहिए थी, वह नहीं की गयी थी. इसके बिना ही उन्हें छोड़ दिया गया था.
सवाल : आपने कहा था कि 30 जनवरी से 10 दिन पहले भी, यानी 20 जनवरी को बापू पर हमला किया गया था, बम फेंका गया था.
जाँच में पुलिस की घातक लापरवाही
जवाब : बिल्कुल. 20 तारीख और 30 तारीख के बीच पुलिस की जो भूमिका थी, उसकी जानकारी जब कोर्ट में जज को दी गयी, तब जज ने कहा था कि ये सारे सबूत देखने के बाद मैं समझता हूं कि इस केस में पुलिस की लापरवाही कम नहीं है. पुलिस की लापरवाही के कारण ही हत्यारे कामयाब हुए और बापू की हत्या हो पायी. यह जजमेंट में दर्ज है.
सवाल : मोरारजी देसाई उस समय मुम्बई के होम मिनिस्टर थे, और उनके हाथ कोई अहम सबूत लगा था गांधी जी की हत्या के बारे में?
जवाब : एक जैन प्रोफेसर थे, मदन लाल पाहवा अपने रोजगार के बारे में उनसे मिला, तो उन्होंने कहा कि वह स्टेशनों पर जाकर किताबें बेचे. वे मदन लाल को कमीशन देते थे. 20 तारीख के प्रयास के 5-6 दिन पहले मदन लाल, जैन से मिलने आया, तब उसने बहुत कुछ बताया कि मैं बहुत देशभक्ति का काम करता हूं, मुसलमानों को बहुत प्रताड़ित करता हूं. उसने यह भी कहा था कि हमको सावरकर का भी आशीर्वाद प्राप्त है. उसने जैन से कहा कि मैं अपने बहुत बड़े काम पर दिल्ली जा रहा हूं, किसी बड़े नेता को खत्म करना है. जैन ने उससे कहा कि तू ऐसा कुछ मत कर, तेरी सारी जिन्दगी पड़ी है, पूरी जिन्दगी खराब हो जायेगी. उन्होंने सोचा कि यह बड़बोला है, इसलिए ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया, पर जब 21 तारीख को हमले की बात सामने आयी कि किसी रिफ्यूजी द्वारा बम फोड़ा गया है, तब उन्होंने कहा कि अरे, यह तो बात मुझे मदन लाल ने कही थी. तब जैन को ये याद आया कि यह बड़ी साजिश थी. उन्होंने मुख्यमंत्री से मिलने की कोशश की, उस समय बम्बई के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री होते थे. उन्होंने कहा कि मैं बाहर जा रहा हूं, आप हमारे होम मिनिस्टर से मिलिये. जैन मोरारजी देसाई के पास गये, उन्होंने मोरारजी को सारी बातें बतायीं और कहा कि उसे गिरफ्तार करने के सारे सबूत हैं, क्योंकि मदन लाल ने ही मुझे सारी बातें बतायी हैं. ताज्जुब की बात यह है कि मोरारजी देसाई ने यह सब सुनने के बाद भी किसी पुलिसकर्मी को बुलाया नहीं और न ही यह कहा कि जैन की बात नोट करो. उन्होंने कहा ठीक है, मैं शाम को अहमदाबाद जा रहा हूं, स्टेशन पर मिलो, ट्रेन रवाना होने से पहले आ जाना मैं बात करूंगा. तब जैन ने उनसे कहा था कि मैं हिन्दू महासभा के डोमिनेटेड एरिया शिवाजी पार्क में रहता हूं, इसलिए मेरी पहचान कहीं प्रदर्शित मत करियेगा. मेरी जान पर खतरा हो सकता है. ताज्जुब की बात है कि इन सारे घटनाक्रमों में मोरारजी ने जैन की पहचान जाहिर नहीं की. उन्होंने ये कहा कि यह जो बड़ा अटैक हुआ है, शायद इसमें सावरकर की भी भूमिका रही हो. जब बापू की हत्या हुई तो उसके बाद जैन ने एक किताब लिखी, उसमें उन्होंने पश्चात्ताप जाहिर किया है कि मैं बापू को बचा नहीं सका.
सवाल : कपूर कमीशन ने किस आधार पर सावरकर को दोषी माना था?
कपूर कमीशन ने क्या कहा?
जवाब : कपूर कमीशन ने सावरकर की मृत्यु के बाद जांच की थी. उनके सेवक ने भी यह कहा था कि सिर्फ 15, 16 और 17 को ही नाथूराम सावरकर से मिलने नहीं आया था, 26 व 27 को भी मिलने आया था. उसके बाद ही उसने दिल्ली जाकर ग्वालियर जाने का तय किया और फिर सीधे एक कट्टर सावरकरपंथी के पास पहुंचे और वहां से हथियार प्राप्त किया.
सवाल : अब जब ये बात सामने आ रही है कि 1934 से ही महात्मा गांधी की हत्या के प्रयास हो रहे थे, जो बकायदे रिकार्डेड है, तब तो यह कहना गलत होगा कि 55 करोड़ रुपये पाकिस्तान को देने के कारण उनकी हत्या की गयी?
जवाब : यह सब बातें बापू को मारने के बाद की हैं. उस खून को प्रमाणित करने के लिए कही गयीं. यह सब इसलिए किया जा रहा था कि इन सब चीजों को सजाकर नाथूराम का बयान दर्ज किया जा सके. मैंने सावरकर की किताबें भी पढ़ी हैं. नाथूराम की पहचान गाली-गलौज करने वाले की थी. वह ऐसी ही भाषा इस्तेमाल करता था. उसके अंदर वह मास्टरी नहीं थी, जो सावरकर में थी. कोर्ट में दिया गया उसका बयान भी सवारकर ने लिखा था.
सवाल : सावरकर दुनिया घूमे चुके थे, वह सब कुछ समझते थे. वे महात्मा गांधी से दुश्मनी क्यों रखते थे?
जवाब : सावरकर उस आइडियोलॉजी के प्रेरक थे, जो खून करती थी. उनमें विचारों का मुकाबला करने का साहस नहीं था, वे विचारों का मुकाबला खून करके करते थे.
सवाल : अभी मैं देखता हूं कि सोशल मीडिया पर आईटी सेल का प्रोपोगंडा इतना अधिक चल रहा है, आपको इसके पीछे क्या कारण नजर आता है?
जवाब : आप अगर संघ की हरकतों में लॉजिक ढूंढ़ने जायेंगे, तो मैं क्षमा चाहूंगा, क्योंकि उनका लॉजिक समझने के लिए पहले तो उनके विचारों का समर्थन करना सीखिये और मैं उनके विचारों को महसूस भी नहीं कर सकता. इसलिए मेहरबानी करके आप उनकी हरकतों को बौद्धिक मत मानिये.
सवाल : आप मुझे इतना समझा दीजिये कि आज राजनाथ सिंह को यह कहने की क्या जरूरत पड़ी होगी कि सावरकर ने गांधी के कहने पर माफी मांगी?
जवाब : दो चीजें हैं. एक तो यह है कि जिस चीज पर गांधी का प्रामाणिक ठप्पा लगा दो, उसे लोग मानने लगते हैं. यह एक मजबूरी है उनकी कि आज भी उनकी बात गांधी के प्रमाण से ही मानी जाती है. अपनी खुद की हैसियत पर वे कुछ नहीं मनवा सकते. यह समझना बहुत जरूरी है कि यह केवल राजनाथ सिंह का बयान नहीं है, यह एक सोची-समझी साजिश की अगली कड़ी है. जो श्रृंखला उन्होंने बापू की हत्या के पूर्व और बाद में चलायी, उसके बाद की अगली कड़ी.
सवाल : तो सावरकर को इतना इस्टेबलिश करना उनके लिए जरूरी क्यों है?
जवाब : वह तो उनका देवता है न. खूनियों का देवता खूनी ही हो सकता है, गांधी नहीं हो सकते. इसलिए उनके राज में जितनी मूर्तियां बापू की हैं, मैं तो कहता हूं कि उनका यह अधिकार है, उतनी मूर्तियां नाथूराम गोडसे और सावरकर की भी लगवायें, मुझे कोई ऐतराज नहीं है. मुझे जो बापू की भक्ति करने का अधिकार है, वही भक्ति का अधिकार, जो लोग खूनियों की भक्ति करते हैं, उन्हें भी है.
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