सत्यकाम जाबाल – मानवेतर सृष्टियों से लिया ब्रह्मज्ञान
चन्द्रविजय चतुर्वेदी। परिचारिणी शूद्रा जाबाला का पुत्र सत्यकाम वेदाध्ययन की तीव्र इच्छा से गुरुकुल जाना चाहता था।
गुरुकुल जाने से पूर्व उसने माता से पूछा -किं गोत्रो अहमस्मीति –अर्थात मेरा गोत्र क्या है।
माता जबाला ने पुत्र से कहा –बेटा, मैं नहीं जानती तू किस गोत्र का है।
युवावस्था मैं अनेक व्यक्तियों की सेवा करती थी, उसी समय मैंने तुझे पाया।
इसलिए मुझे नहीं मालूम तेरा गोत्र क्या है , बस जाबाला मेरा नाम है, सत्यकाम तेरा नाम है।
गुरु से गोत्र पूछने पर तू कहना कि तू सत्यकाम जाबाल है।
वेदाध्ययन के लिए बालक सत्यकाम गौतमगोत्री हारिद्रुमत ऋषि के पास गया।
बोला -भगवान ,मैं आपके यहाँ ब्रह्मचारी के रूप में रहना चाहता हूँ। क्या मैं इसके लिए निवेदन कर सकता हूँ।
गौतम ऋषि ने कहा –किं गोत्रो नु सौम्यासीति -हे सौम्य तुम्हारा गोत्र क्या है।
उत्तर में सत्यकाम ने वह सारी बातें, जो उसकी माँ ने बताई थी, गौतम ऋषि को बताते हुए कहा कि वह सत्यकाम जाबाल है बस।
गौतम ऋषि ने किया दीक्षित
गौतम ऋषि उसकी सत्यवादिता से प्रभावित होकर उसका उपनयन कर ब्रह्मविद्या प्रदान करने के लिए दीक्षित किया।
ऋषि ने उसे सौ कृशकाय गायें देकर उनकी सेवा का आदेश दिया।
गुरु के आज्ञा पालन में सत्यकाम ने गुरु से कहा जब तक ये गऊयें एक हजार नहीं हो जाएंगी, मैं नहीं लौटूंगा।
सत्यकाम ने गोपालन करते हुए प्रकृति के उन्मुक्त वातावरण में मानव से इतर प्राणियों से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया।
बृषभ के रूप में वायुदेव ने सत्यकाम को ज्ञान दिया की पूर्व दिक् कला, पश्चिम दिक् कला, दक्षिण दिक् कला, उत्तर दिक् कला, यह ब्रह्म का प्रकाशवान नामक चार कलाओं वाला पाद है।
गौओं के साथ गुरुकुल की ओर जाते हुए एक स्थान पर जब सत्यकाम समिधा दान कर रहा था तो अग्नि ने ज्ञान दिया कि पृथ्वी कला है, अंतरिक्ष कला है, द्युलोक कला है और समुद्र कला है।
यह ब्रह्म का चतुष्कालपाद अनन्तनाम वाला है।
एक दिव्य हंस के द्वारा सत्यकाम को ज्ञान प्राप्त हुआ की प्रकाश प्रदान करने वाले अग्नि ,सूर्य ,चन्द्रमा और विद्युत् ब्रह्म का चतुष्कलपाद ज्योतिष्मान नामवाला है।
गुरुकुल की तरफ आगे बढ़ते हुए चौथे चरण में एक जलचर पक्षी मिला जिसने सत्यकाम को ज्ञान दिया की प्राण, चक्षु , श्रोत्र और मन इस विश्वायतन ब्रह्म की चार कलाएं हैं।
सत्यकाम को वस्तुतः सोलह कलाओं वाले ब्रह्म का ज्ञान वायु, अग्नि, सूर्य और प्राण से प्राप्त हुआ।
गुरुकुल लौटने पर गौतम ऋषि ने कहा जो कुछ तुमने सीख लिया है अब कुछ भी सीखने को शेष नहीं है।
अब तुम इस ज्ञान को आत्मसात करो।
जाबाल ने भारतीय तत्वचिंतन को दी अमूल्य निधि
दासी जबाला का पुत्र सत्यकाम तपश्चर्या से मंत्रदृष्टा ऋषि बना जिसने भारतीय तत्वचिंतन को प्राणदर्शन की अमूल्य निधि प्रदान की।
सत्यकाम ने स्थापित किया की ब्रह्माण्ड में जो वायु है वही पिंड में प्राण है।
शरीर में सभी इन्द्रियवर्ग प्राण से ही कार्य करने में सक्षम हैं –प्राणोवाव ज्येष्ठश्च श्रेष्ठश्च –प्राण ही ज्येष्ठ है और श्रेष्ठ है।
इस तत्वज्ञ ऋषि ने सृष्टि की प्रक्रिया में शरीर विज्ञान के महत्त्व को स्थापित किया।
औपनिषिदिक तत्वचिंतन में महर्षि सत्यकाम जाबाल ने ही मानवी देहात्मा को श्रेष्ठता प्रदान करने का महत्वपूर्ण दर्शन प्रदान किया।
औपनिषदिक तत्वज्ञान के उत्क्रांति के इतिहास में पंचमहाभूतों को सृष्टि का आधार मानने से हटकर पंचेन्द्रियों को सृष्टि का आदि आधार मानने वाले आचार्यों की परंपरा में महर्षि सत्यकाम जाबाल प्रमुख हैं।
इस धारणा का विकास यक्यवल्क्य वाजसनेय ने किया जिसने सृष्टि के आद्य प्रतिष्ठान के रूप में मानवी आत्मा या जीवात्मा को दृढरूप में प्रतिष्ठित किया।