‘मानिकदा’ नाम से चर्चित महान फिल्मकार सत्यजीत रे की खूबियाँ अनेक
2021: मानिकदा का जन्म शताब्दी वर्ष
सिनेमा की दुनिया में साल 2021 को महान फिल्मकार सत्यजीत रे के जन्म शताब्दी वर्ष के तौर पर मनाया जा रहा है. 2 मई 1921 को जन्मे रे ने एक बार बायोग्राफर से फिल्ममेकर बने अपने मित्र एंड्रू रॉबिन्सन से कहा था, मेरे ख्याल से फिल्में बनाना “डेमोक्रेटिक अंडरटेकिंग” यानि लोकतांत्रिक उपक्रम है.
-सुषमाश्री
एक इंटरव्यू के दौरान सत्यजीत रे की कई फिल्मों में मुख्य भूमिका निभा चुकीं जानी मानी अभिनेत्री शर्मिला टैगोर ने सत्यजीत रे के बारे में कहा, रे की दृष्टि को समझ पाना कई बार लोगों के लिए आसान नहीं होता था. हिंदी फिल्म उद्योग के बहुत से लोगों ने पहली बार में रे की सराहना नहीं की थी.
भारतीय गरीबी को पश्चिम में निर्यात करने के लिए संसद में नरगिस दत्त ने एक बार रे की घोर आलोचना की थी, जिस पर लंबे समय तक लोग चर्चा करते रहे. लेकिन वास्तव में, उन्होंने गरीबी को सम्मानित किया. पाथेर पांचाली, अपुर संसार और अपर्जितो, अपू त्रयी और आशानी संकेत को छोड़कर उनकी कोई भी फिल्म गरीबी के माहौल पर आधारित नहीं थी. चारुलता और जलासघर गरीबी पर आधारित नहीं थे. सच तो यह है कि उनका सिनेमा मानवीय मूल्यों पर आधारित है.
बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक फिल्मी हस्तियों और चाहने वालों के बीच “मानिकदा” नाम से मशहूर सत्यजीत रे के काम करने के तरीके और उनके स्वभाव के बारे में उनकी फिल्म “शतरंज के खिलाड़ी” का पटकथा लेखन करने वाले जावेद सिद्दिकी काफी कुछ बताते हैं.
जावेद सिद्दीक़ी बताते हैं, “सत्यजीत रे की स्क्रिप्ट एक बही-खाते की तरह होती थी जो कि पंसारी एक ज़माने में इस्तेमाल किया करते थे. हल्के बादामी कागज़ों पर लाल रंग की जिल्द चढ़ी होती थी और उसमें सारे उर्दू डायलॉग और उनका अंग्रेज़ी और बाँग्ला में अनुवाद करीने से लिखा होता था.”
कभी ऊँची नहीं होती थी “मानिकदा” की आवाज़
“सेट पर “मानिकदा” की आवाज़ कभी ऊँची नहीं होती थी. वो कलाकार को इतनी धीमी आवाज़ में निर्देश देते थे कि कई बार उनके बग़ल में बैठे रहने के बावजूद मुझे सुनाई नहीं देता था कि वो क्या कह रहे हैं.”
“वो चाहे अभिनेता से कितनी ही दूर खड़े हों, वो कभी चिल्ला कर उससे बात नहीं करते थे. वो उसके पास जा कर उसके कान में कुछ कहते और फिर दूर चले जाते.”
एक हाथ में पेन और दूसरे हाथ में चिकन सैंडविच
सत्यजीत रे की एक और आदत थी. सेट पर पहुंचने के बाद वो शाम को पैक-अप करने के बाद ही सेट से बाहर निकलते थे.
जावेद सिद्दीक़ी बताते हैं, “एक हाथ में पेन और दूसरे हाथ में एक चिकन सैंडविच लिए वो अपनी कुर्सी पर बैठते थे. उनकी गोद में स्क्रिप्ट का बही-खाता खुला होता था और उनकी नज़रें पन्नों पर होती थी. आठ घंटे की शिफ़्ट में वो सिर्फ़ एक चिकन सैंडविच और कुल्हड़ में जमी हुई मिष्टी दोई यानि मीठी दही खाते थे.”
“उसके बाद वो स्वाद बदलने के लिए एक सिगरेट पिया करते थे. कैमरामैन के होने के बावजूद वो खुद कैमरा चलाना पसंद करते थे. चाहे जितना जटिल शॉट हो वो कैमरामैन को कैमरा छूने नहीं देते थे. अपनी फ़िल्में एडिट भी वो ख़ुद करते थे.”
महिलाओं की बहुत इज़्ज़त करते थे मानिकदा
सईद जाफ़री लिखते हैं, “मानिकदा अपनी लाल बही में सारे शॉट्स के स्केच बना कर रखते थे. कैमरे के पीछे उनका ज़ोर लाइट की बारीकियों पर होता था. मैं और संजीव शूटिंग के लिए पूरी तैयारी करके आते थे इसलिए सारे शॉट्स एक टेक में ही ओके हो जाते थे.”
शराब नहीं पीते थे मानिकदा
“मानिकदा शराब नहीं पीते थे. इसलिए वो शूटिंग ख़त्म होने के बाद सीधे अपने घर चले जाते थे और अगले दिन होने वाली शूटिंग के स्केच बनाया करते थे.”
“एक दिन हम लोग लखनऊ के एक गाँव में शूटिंग कर रहे थे. किसी ने मेरी पत्नी जैनिफ़र को मानिकदा का स्टूल बैठने के लिए दे दिया. जैनिफ़र को ये अंदाज़ा नहीं था कि इसी स्टूल पर बैठकर मानिकदा अपना कैमरा ऑपरेट करते थे. महिलाओं के प्रति मानिकदा का सम्मान इतना गहरा था कि बहुत देर तक उन्होंने जैनिफ़र के स्टूल से उठने का इंतज़ार किया और फिर बहुत शर्माते हुए बोले,- माई डियर जैनिफ़र, क्या मैं थोड़ी देर के लिए आपका स्टूल उधार ले सकता हूँ?”
जब रेडलाइट इलाके में गए मानिकदा
सत्यजीत रे ‘शतरंज के खिलाड़ी’ फ़िल्म में मुजरा करने के लिए एक युवा नर्तकी की तलाश में थे. बाद में ये रोल सास्वती सेन ने किया. किसी ने मानिकदा को बताया कि कलकत्ता के रेडलाइट इलाक़े सोनागाछी की एक महिला इस रोल को अच्छी तरह निभा सकती है.
जावेद सिद्दीक़ी बताते हैं, “मानिकदा उस महिला को अपने पास बुलवा सकते थे और वो ख़ुशी-ख़ुशी उनसे मिलने आ भी जाती. लेकिन रे ने सोचा कि कहीं वो महिला उनके स्टूडियो आकर ख़ुद को असहज महसूस न करे. इसलिए वो उससे मिलने उसके पास गए.”
“बाज़ारे-ए-हुस्न की गलियाँ इतनी पतली थीं कि उनकी कार उसके अंदर नहीं घुस पाईं. रे अपनी कार से उतरे और गौहर-ए-मक़सूद के घर पैदल चल कर गए. कोठे पर पहुंच कर पहले उन्होंने उसका मुजरा देखा और फिर उससे बात की. जब रे कोठे से बाहर आ रहे थे तो लोगों ने उन्हें पहचान लिया और न सिर्फ़ उस गली में बल्कि चारों तरफ़ रे की झलक पाने के लिए भीड़ जमा हो गई.”
“ताज्जुब की बात ये थी कि लोगों ने उन्हें उस तरह नहीं घेरा जैसा कि वो अक्सर फ़िल्म कलाकारों को घेरते हैं. उन्होंने आदर सहित उनके लिए रास्ता बनाया. मानिकदा आगे चलते रहे और लोग उनके पीछे चलते हुए उनकी कार तक छोड़ने आए.”
खाने के शौक़ीन थे मानिकदा
सत्यजीत रे को खाने का बहुत शौक था. वो हर रविवार की सुबह कलकत्ता के मशहूर फ़्लूरी रेस्तराँ में नाश्ता करने जाते थे. यूरोपीय खाने के साथ-साथ वो बंगाली खाना भी पसंद करते थे. वो ख़ासतौर से लूची, अरहर दाल और बैगुन भाजा के बहुत शौकीन थे.
बेक या ग्रिल की हुई मछली थी पसंद
सत्यजीर रे की पत्नी बिजोया रे अपनी आत्मकथा में लिखती हैं, “सत्यजीत मछली तभी खाते थे जब वो या तो बेक की गई हो या ग्रिल की गई हो. मेरी सास की पूरी कोशिश होती थी कि वो उन्हें रोहू मछली का एक टुकड़ा ज़रूर खिलाएं, लेकिन उन्हें इसमें सफलता कम ही मिलती थी.” “उनको झींगा से भी एलर्जी थी. हाँ, वो अंडों के बहुत शौकीन थे, ख़ासकर उसकी जर्दी के.
फलों के राजा आम से नफरत
मानिक को फलों से भी ज़्यादा लगाव नहीं था. उनको आम की सुगंध से भी नफ़रत थी. हम लोग गर्मी में आम खाने के लिए लालायित रहते थे लेकिन मानिक का निर्देश था कि हम आम खाना तभी शुरू करें जब वो खाने की मेज़ से उठ जाएं.”
ऑड्री हेपबर्न के हाथों लिया ऑस्कर
जब सत्यजीत रे को बताया गया कि उन्हें ‘लाइफ़ टाइम ऑस्कर’ पुरस्कार दिया जा रहा है तो उन्होंने इच्छा प्रकट की कि उन्हें ये पुरस्कार मशहूर हॉलिवुड अभिनेत्री ऑड्री हेपबर्न के हाथों दिया जाए. उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए 30 मार्च 1992 को ऑड्री हेपबर्न ने उन्हें ये पुरस्कार दिया.
उन्होंने कलकत्ता के एक नर्सिंग होम में अपने बिस्तर पर बैठे-बैठे वो पुरस्कार स्वीकार किया, जिसे पूरी दुनिया में विडियो लिंक के जरिये लाइव दिखाया गया. अस्पताल में ये ट्रॉफ़ी उन्हें उनकी पत्नी बिजोया ने दी.
बाद में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा, “जब मैं मानिक को ऑस्कर ट्रॉफ़ी पकड़ा रही थी तो मैंने महसूस किया कि वो बहुत भारी थी. मानिक के डॉक्टर बख्शी ने अगर उस ट्रॉफ़ी के निचले हिस्से को अपने हाथ से नहीं पकड़ा होता तो वो मानिक के हाथ से फिसल जाती. ऑस्कर पुरस्कार की घोषणा के दो दिन बाद भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया.”
संयोग की बात है कि इस पुरस्कार को ग्रहण करने के कुछ हफ़्तों बाद 23 अप्रैल, 1992 को सत्यजीत रे का निधन हो गया. उसके कुछ महीनों बाद जनवरी 1993 में ऑड्री हेपबर्न भी इस दुनिया को छोड़ गईं.
सत्यजीर रे की ‘तीसरी आँख’
अमजद ख़ान को ‘शतरंज के खिलाड़ी’ फ़िल्म में लेने से पहले सत्यजीत रे उनसे कभी नहीं मिले थे. उन्होंने पहली बार उन्हें फ़िल्म शोले में देखा. अगले दिन उन्होंने उनका चित्र बनाया. उन्होंने उनके कान और गले में हीरे पहनाए और उनके सिर पर कढ़ी हुई दोपल्ली टोपी रखी. उस चित्र को एक नज़र देखने के बाद लोगों के मुँह से निकला ये है जान-ए-आलम वाजिद अली शाह का चित्र.
न सिर्फ़ अमजद ख़ाँ बल्कि शर्मिला टैगौर, अपर्णा सेन और सौमित्र चटर्जी को भी सत्यजीत रे ने गुमनामी की गर्त से निकाल कर स्टार बनाया. कहते हैं सत्यजीत रे की तीसरी आँख हुआ करती थी. कोई चीज़ जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता था रे की नज़र में तुरंत आ जाती थी.
जावेद सिद्दीक़ी एक किस्सा सुनाते हैं, “जब वो स्टूडियो में मीर रोशन अली के घर का सेट देखने आए तो उन्होंने तुरंत कहा दीवारें साफ़ नहीं दिखनी चाहिए. फिर अचानक वो एक बाल्टी के पास गए जिसमें पेंट ब्रशों को सुखाने के लिए रखा गया था. उन्होंने एक ब्रश उठाया जो गंदे पानी से भीगा हुआ था और उसे साफ़ दीवार पर फेर दिया.”
दिखावे का आरोप
कुछ लोगों का मानना था कि सत्यजीर रे दिखावे में यक़ीन करते थे. एक बार एक पत्रकार ने ‘अपुर संसार’ देखने के बाद उनसे पूछा कि इस फ़िल्म में कई ट्रैकिंग शॉट्स हैं जबकि आपकी पहली फ़िल्म ‘पाथेर पांचाली’ में सिर्फ़ स्थिर शॉट्स ही लिए गए हैं. क्या वजह थी कि आपने अपने फ़िल्मांकन की स्टाइल बदल दी?
मानिकदा का जवाब था, “वो इसलिए था कि पाथेर पांचाली के दिनों में मेरे पास ट्रॉली ख़रीदने के पैसे नहीं थे.” उसी तरह टैक्सी ड्राइवर पर बनी उनकी एक फ़िल्म ‘अभिजान’ देखने के बाद एक पत्रकार ने उनसे पूछा क्या आप टैक्सी के रियर व्यू शीशे को टूटा हुआ दिखा कर टैक्सी ड्राइवर के टूटे हुए अहंकार को दिखाना चाह रहे थे?
सत्यजीत रे ने उस पत्रकार की तरफ़ आश्चर्य से देखा और फिर अपने आर्ट निर्देशक बंसी चंद्रगुप्त की तरफ़ मुड़ कर पूछा, “बंसी क्या वाक़ई हमने टूटा हुआ शीशा दिखाया था?”
एक शायर की कुछ पंक्तियाँ मानिकदा पर पूरी तरह लागू होती हैं –
‘फ़साने यूँ तो मोहब्बत के सच हैं पर कुछ-कुछ
बढ़ा भी देते हैं हम ज़ेब-ए-दास्तान के लिए’